पेट्स से खिलवाड़
महामारी और लॉकडाउन की त्रासदी ने मनुष्य समाज को जिस मन:स्थिति में डाल दिया था, उसका एक मासूम शिकार पेट्स भी हुए हैं।
महामारी और लॉकडाउन की त्रासदी ने मनुष्य समाज को जिस मन:स्थिति में डाल दिया था, उसका एक मासूम शिकार पेट्स भी हुए हैं। इस दौरान लोगों में बढ़ती असुरक्षा और आशंका ही नहीं, उनके अकेलेपन का भी खामियाजा आखिरकार डॉगी और कैट्स जैसे मासूम प्राणियों को भुगतना पड़ा है। इस पहलू पर रोशनी हाल ही में हुई अपने तरह की पहली स्टडी से पड़ी है। मार्स पेट केयर और पशु कल्याण विशेषज्ञों के एक सलाहकार बोर्ड द्वारा पिछले हफ्ते करवाए गए एक सर्वे से यह बात स्पष्ट हुई कि लॉकडाउन के दौरान जब लोग हर तरह की गतिविधियों से दूर घरों में बंद रहने को मजबूर थे, तब पेट्स एडॉप्ट करने की प्रवृत्ति काफी तेज हो गई थी।
ज्यादातर लोगों को यह अपना अकेलापन दूर करने का आसान तरीका लग रहा था। यह काफी हद तक सफल भी था। अकेलेपन के उस दौर में ये मासूम पशु लोगों के अच्छे दोस्त साबित हो रहे थे। मगर जैसे-जैसे दुनिया अनलॉक हुई और जीवन पुराने ढर्रे पर लौटने लगा, अकेलेपन के ये साथी बोझ बनने लगे। सो, इन्हें वापस लौटाने या अघोषित रूप से ही मार्केट प्लेस पर या अनजान गलियों में छोड़ आने की प्रवृत्ति तेज हो गई। यह प्रवृत्ति दुनिया भर में दिखी, लेकिन भारत इसमें सबसे आगे रहा। जिन नौ देशों में यह सर्वे किया गया, उनमें से पेट होमलेसनेस के मामले में सबसे बुरी स्थिति भारत में ही पाई गई।
ओमीक्रोन का खतरा, क्या फिर लॉकडाउन होगा?
दिलचस्प है कि महामारी और लॉकडाउन की पाबंदियों के बीच जब पेट्स को गोद लेने का ट्रेंड बढ़ रहा था, तब भी देश में पेट्स छोड़ने की घटनाएं बड़े पैमाने पर हो रही थीं। इस स्टडी के मुताबिक, भारत में 50 फीसदी पेट ओनर्स ने महामारी के दौरान उन्हें त्यागने की बात मानी जबकि वैश्विक स्तर पर ऐसे ओनर्स का प्रतिशत 28 है। महामारी के दौरान ऐसा करने के पीछे ज्यादातर मामलों में यह डर था कि कहीं ये पेट्स वायरस पहुंचाने का जरिया न बन जाएं।
लॉकडाउन के बाद इन्हें छोड़ने की बड़ी वजहों में कामकाज और जीवनशैली से उपजी मजबूरियां रहीं। कहा गया कि इनकी देखभाल करने की कोई व्यवस्था नहीं हो सकी और ऑफिस तो जाना ही था। कई लोगों को इन्हें एडॉप्ट करने के बाद पता चला कि इनकी देखभाल करना कितना मुश्किल काम है और यह उनके वश का नहीं है।-
एम्स बीबीनगर के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर डॉ विकास भाटिया ने कहा कि नया वेरिएंट ज्यादा संक्रामक मगर कम जानलेवा है। उन्होंने ANI से बातचीत में कहा कि हमें तीसरी लहर की तैयारी करनी चाहिए। डॉ भाटिया के अनुसार, 'ओमीक्रोन ज्यादा जानलेवा नहीं है। अभी तक दुनिया के किसी हिस्से से मौत की खबर नहीं आई है। यह शायद एक हल्की बीमारी हो। कुछ देशों में दिख रहा है कि इन्फेक्शन और बीमारी उभरने में थोड़ा ज्यादा समय लग रहा है। और अगर यह डेल्टा वायरस से ज्यादा है तो निश्चित तौर पर और लोगोकं को संक्रमित रहा है। प्रसार दर ज्यादा है लेकिन इसकी जान लेने की क्षमता कम है तो यह फैलकर इम्युनिटी जेनरेट करने में मदद कर सकता है।
-दक्षिण अफ्रीका में ओमीक्रोन ने 5 साल से कम उम्र के बच्चों को भी संक्रमित किया है। हालांकि SARS-CoV-2 की जीनोम सीक्वेंसिंग के लिए बने कंसोर्टियम (INSACOG) की एक सदस्य का मानना है कि भारत में बच्चों को यह उस तरह से प्रभावित नहीं करेगा। नैशनल इंस्टिट्यूट ऑफ बायोमेडिकल जीनॉमिकस (NIBMG) के डायरेक्टर डॉ सौमित्र दास ने कहा कि अभी यह कहना जल्दबाजी होगी। उन्होंने कहा, 'हमें लोगों के इम्युन सिस्टम, उनकी खानपान की आदतों, संक्रमण के पुराने मामलों में शरीर की ताकत को समझना होगा, इसकी किसी भी वायरस की कार्यप्रणाली तय करने में अहम भूमिका है।' उन्होंने कहा, 'संक्रामक बीमारियों को लेकर भारतीयों के अनुभव दूसरे देशों से जुदा हैं।'