EVM से निकला संदेश

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Update: 2020-11-16 15:38 GMT

फाइल फोटो 

बिहार विधानसभा चुनाव इस मायने में बहुत खास थे कि ये और साथ में कुछ अन्य राज्यों के उपचुनाव भी कोरोना काल में होने वाले देश का पहला बड़ा चुनाव थे। कोरोना की आपदा के बीच ही, लगभग समानांतर चले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों से तुलना करके देखें तो जहां राष्ट्रपति ट्रंप को महामारी से अच्छी तरह न निपट पाने की कीमत अपने एक कार्यकाल की बलि देकर चुकानी पड़ी, वहीं बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए चुनाव नतीजे आने के बाद भी चुनाव से ठीक पहले वाली सीटों पर ज्यों का त्यों डटा रहा। इसका श्रेय काफी हद तक बीजेपी को ही जाता है, जिसने अपनी सीटों की संख्या में अच्छा-खासा इजाफा करके उस कमी की भरपाई कर दी, जो नीतीश के जेडीयू की टैली में आई गिरावट से उपजी थी। हालांकि कोरोना बिहार में भी बहुत बड़ा मुद्दा था। प्रवासी मजदूर देश के अलग-अलग शहरों से जिन अमानवीय स्थितियों में तकलीफों के बवंडर से गुजरते हुए अपने गांव पहुंचे थे, उसका पूरा असर वोटिंग पर पड़ने की संभावना जताई जा रही थी।

चुनाव प्रचार के दौरान आरजेडी नेता और महागठबंधन की तरफ से सीएम प्रत्याशी तेजस्वी यादव की रैलियों में जुट रही भीड़ इसकी पुष्टि करती जान पड़ती थी। लेकिन बीजेपी के पास न केवल मजबूत संगठन और समर्पित काडर है, बल्कि भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास की सबसे कुशल चुनावी मशीनरी भी है। सही रणनीति के साथ इन संसाधनों के सटीक इस्तेमाल के जरिये चुनाव परिणाम को अपने पक्ष में झुकाकर बीजेपी ने यह साबित किया कि कोरोना से जुड़ी बदहाली को अपने फायदे में भुनाने की विपक्ष चाहे जितनी भी कोशिश करे, देश का जनमत अभी मोदी सरकार के साथ ही है। एक बड़ी परीक्षा एनडीए की एकजुटता की भी थी। शिवसेना और अकाली दल के बाहर निकल जाने के बाद गैर-बीजेपी एनडीए के नाम पर अब जेडीयू ही बचा हुआ है। बिहार के दूसरे एनडीए घटक एलजेपी ने जेडीयू के खिलाफ लेकिन बीजेपी के पक्ष में चुनाव लड़ा। बिहार में नीतीश कुमार की कथित अलोकप्रियता को देखते हुए यह सवाल उठ रहा था कि बीजेपी उन्हें अपने साथ रखेगी या नहीं। पर चुनाव के दौरान ही बीजेपी नेतृत्व ने साफ कर दिया कि सीटें जिसकी जितनी भी आएं, बिहार में एनडीए के नेता नीतीश कुमार ही होंगे।

इसका एक मतलब साफ है कि एनडीए को किनारे करके अकेले चलना फिलहाल बीजेपी के अजेंडे पर नहीं है। हां, इसका स्वरूप वह वैसा नहीं रखना चाहती जैसा यह अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में था, या जैसा मनमोहन सिंह के जमाने का यूपीए हुआ करता था। यही वजह है कि महाराष्ट्र में शिवसेना का कद छोटा करने का दांव उलटा पड़ जाने के बावजूद बिहार में जेडीयू को 'कट टु साइज' करने की कोशिशों से वह बाज नहीं आई और इस काम में वह कामयाब भी रही। बहरहाल, सबसे बड़ा संदेश इन चुनाव नतीजों का यह है कि विपक्ष पश्चिम बंगाल में या कहीं भी बिल्ली के भाग से छींका टूटने की उम्मीद नहीं कर सकता। कोरोना, मंदी, बेरोजगारी जैसे ढेरों मसलों के बावजूद सत्तारूढ़ गठबंधन चुनावी पिच पर जबर्दस्त फॉर्म में है और उसे आउट करने के लिए काफी पसीना बहाना होगा।

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