बिहार का संदेश: विकास की आकांक्षाओं को तरजीह

बिहार से आये चुनाव परिणामों ने जनादेश को स्पष्ट परिभाषित किया है

Update: 2020-11-11 04:12 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। बिहार से आये चुनाव परिणामों ने जनादेश को स्पष्ट परिभाषित किया है कि जनता अब जातीय समीकरणों के भ्रमजाल से उबरकर राष्ट्रीय मुद्दों, विकास व सुशासन की आकांक्षा को प्राथमिकता दे रही है। नीतीश कुमार की डेढ़ दशक की पारी के बावजूद सत्ता के विरुद्ध वैसा रुझान नजर नहीं आया जैसा कि राजनीतिक पंडित कयास लगा रहे थे। बिहार के चुनाव परिणामों के बाद राजग में यह बड़ा बदलाव जरूर आया है कि अब भाजपा बड़े भाई की भूमिका में आ गई है। यह बात अलग है कि पूरी चुनावी प्रक्रिया में लोजपा की जद-यू के खिलाफ आक्रामकता में भाजपा की भूमिका को लेकर सवाल उठाये जाते रहे हैं। बिहार विधानसभा चुनावों का कमोबेश शांतिपूर्वक होना भी एक सुखद संकेत है, जिसका श्रेय निस्संदेह चुनाव सुधारों और चुनाव आयोग की सक्रियता को जाता है। भले ही गाहे-बगाहे चुनाव आयोग व ईवीएम मशीनों पर हारे प्रत्याशी सवाल उठाते रहे हों, लेकिन सुधारों ने चुनावों को हिंसामुक्त व पारदर्शी बनाने में बड़ी भूमिका निभायी है। कोरोना संकट के चलते बड़ी संख्या में बिहार के श्रमिकों का पलायन, कई इलाकों में बाढ़ की तबाही तथा महामारी के संकट के बीच बिहार के लोगों ने जिस उत्साह के साथ लोकतंत्र के पर्व में भागीदारी की, उसकी सराहना की जानी चाहिए। विकास की आकांक्षाओं को शिद्दत के साथ इन चुनावों में बिहार के जनमानस ने अभिव्यक्त किया। राज्य के युवा नौकरियों के लिये पूरे देश में जिस तरह भटकते रहे हैं, उसके चलते विकास की तीव्र उत्कंठा बिहार के जनमानस में देखी जानी स्वाभाविक है। राजद के युवा तुर्क तेजस्वी यादव ने जिस तरह दस लाख युवाओं को रोजगार देने का वायदा किया, उसने राज्य में रोजगार के मुद्दे को प्राथमिकता में ला खड़ा किया। फिर भाजपा को भी उन्नीस लाख नौकरियां देने का वायदा करना पड़ा। इसके बावजूद केंद्र में शासन करने वाली भाजपा को मिली बढ़त के मूल में बिहार की तरक्की को हकीकत में बदलने की आकांक्षा है। वहीं मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश व गुजरात के उपचुनावों की कामयाबी से भाजपा खासी उत्साहित है जबकि हरियाणा में बरोदा विधानसभा सीट कांग्रेस के खाते में जाने का मलाल पार्टी को रहेगा। निस्संदेह इस चुनाव में भाजपा-जद-यू को समृद्ध संसाधनों और नरेंद्र मोदी जैसे राष्ट्रीय छवि वाले नेता का साथ मिला। भाजपा को बूथ प्रबंधन और कैडर आधारित पार्टी होने का भी लाभ मिला। वहीं राजद सुप्रीमो लालू यादव की अनुपस्थिति पार्टी को जरूर खली लेकिन अपने बलबूते तेजस्वी ने यह संदेश जरूर दे दिया कि उनमें राज्य की राजनीतिक धारा को प्रभावित करने का दमखम है। भले ही चुनाव प्रबंधन की खामियां और भीड़ को वोट में बदलने की कला की कमी राजद को खली हो मगर उनके चुनाव अभियान ने जता दिया कि तेजस्वी बिहार के आने वाले वक्त के नेता हैं। अब चाहे मुस्लिम-यादव समीकरण पूरी तरह न चला हो और महागठबंधन में कांग्रेस पार्टी को ज्यादा टिकट देने का खमियाजा चुनाव परिणामों में नजर आया हो, मगर इस चुनाव में वाम दलों ने अपने गढ़ों में बेहतर प्रदर्शन किया है। जितनी सीटों पर वे चुनाव लड़े और जितनी सीटें उन्हें हासिल हुईं, उसका प्रतिशत कांग्रेस से बहुत बेहतर है। बहुत संभव है कि यह रणनीति पश्चिम बंगाल में भाजपा के विरुद्ध दोहरायी जाये। बहरहाल, राजनीतिक पंडित मंथन में लगे हैं कि तेजस्वी यादव की रैलियों में जुटने वाली भीड़ उम्मीदों के मुताबिक वोटों में क्यों तबदील नहीं हुई। वहीं कौन-सा साइलेंट वोटर था, जिसने भाजपा व जद-यू को ताकत दी। बताते हैं कि इन साइलेंट वोटरों में बिहार की आधी दुनिया भी थी, जो शराबबंदी के चलते अपने परिवार को संभाल पायी। कहा जा रहा है कि महिलाएं नीतीश कुमार की रैलियों में तो नजर आती थीं मगर तेजस्वी की रैलियों से नदारद थीं। बहरहाल, बिहार के चुनाव परिणामों ने जहां जीतने वालों की दिवाली निखार दी है, वहीं हारने वालों को मंथन का मौका दिया है कि चुनाव रणनीति में कहां चूक हुई है। मंथन यह भी कि भाजपा ने राजद व जद-यू के मुकाबले कम सीटों पर चुनाव लड़कर बेहतर प्रदर्शन कैसे किया?

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