रिश्‍ते टूटने की तकलीफ पुरुषों को स्त्रियों से ज्‍यादा महसूस होती है: स्‍टडी

हमारा सांस्‍कृतिक और सामाजिक विकास हमें सिखाता है कि स्त्रियां पुरुषों के मुकाबले ज्‍यादा भावुक और ज्‍यादा संवेदनशील होती हैं

Update: 2021-11-08 07:29 GMT

मनीषा पांडेय हमारा सांस्‍कृतिक और सामाजिक विकास हमें सिखाता है कि स्त्रियां पुरुषों के मुकाबले ज्‍यादा भावुक और ज्‍यादा संवेदनशील होती हैं. वो दुख को ज्‍यादा महसूस करती हैं. पुरुषों में दुख को महसूस करने की फैकल्‍टी या क्षमता उस तरह विकसित नहीं होती. हममें से अधिकांश लोगों ने अपनी परवरिश की प्रक्रिया में यही सीखा है. पॉपुलर कल्‍चर भी इसी पॉपुलर नोशन को मजबूत करने वाला है. सिनेमा में हमेशा मां को रोते हुए और पिता को मजबूत खड़े दिखाया जाता है. नायिका भावुक होती है और नायक कठोर, बदलशाली, संसार की व्रिदूपताओं का बल से मुकाबला करता हुआ.

यह भी एक तरह का स्‍टीरियोटाइप है, जो बरसों से ऐसे ही चला आ रहा है और लोग इस सच मानकर इस पर यकीन करते हैं. लेकिन वैज्ञानिक अध्‍ययन इस तरह के दावों को गलत साबित कर रहे हैं.
स्‍टीरियोटाइप पर सवाल करती साइंटिफिक स्‍टडी
हाल ही में लैंकेस्‍टर यूनिवर्सिटी में हुई एक रिसर्च यह कह रही है कि ब्रेकअप होने या रिश्‍ते टूटने पर पुरुष स्त्रियों के मुकाबले ज्‍यादा पीड़ा महसूस करते हैं. स्त्रियां कम समय में उस तकलीफ से उबर जाती हैं, जबकि पुरुष ज्‍यादा लंबे समय तक इमोशनल डिस्‍ट्रेस यानि तकलीफ में रहते हैं. उ न्‍हें उससे उबरने और अपनी सामान्‍य जिंदगी में वापस लौटने में ज्‍यादा वक्‍त लगता है. रिश्‍ते टूटने के दौरान वह ज्‍यादा गहरे अवसाद में जाते हैं. तो दरअसल ये बात कतई सच नहीं है कि पुरुषों को ब्रेकअप से कोई तकलीफ नहीं होती.
रिसर्च की प्रक्रिया
दुनिया भर के मनोवैज्ञानिकों की एक टीम ने लैंकेस्‍टर यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के साथ मिलकर अब तक के सबसे बड़े अध्‍ययन को अंजाम दिया. इस अध्‍ययन का मकसद क्लिनिकल और काउंसिलिंग की सीमाओं से बाहर जाकर इस बात को समझना था कि जीवन के सबसे बड़े, महत्‍वपूर्ण और भावनात्‍मक रूप से प्रभावित करने वाले बदलाव का स्‍त्री और पुरुष दोनों के दिल, दिमाग और फिजियोलॉजी पर क्‍या असर पड़ता है.
इस वैज्ञानिक अध्‍ययन को लीड कर रही डॉ. शार्लोट एंथविस्‍टल कहती हैं कि रिश्‍तों में होने वाले बदलाव हमारे मनोविज्ञान को कैसे प्रभावित करते हैं, इसके बारे में हमारी अधिकांश जानकारियां कपल्‍स थैरेपी और काउंसिलिंग के नतीजों पर ही आधारित है. थैरपी और काउंसिलिंग की प्रक्रिया हमें सही वैज्ञानिक नतीजों तक नहीं पहुंचाती क्‍योंकि पुरुष विभिन्‍न सामाजिक और सांस्‍कृतिक कारणों से स्त्रियों के जितने एक्‍सप्रेसिव नहीं होते. स्त्रियां ज्‍यादा खुलकर अपनी बात कह पाती हैं. उनके लिए रोना, अपनी भावनाओं को व्‍यक्‍त करना आसान होता है. इसलिए इन कपल्‍स थैरेपी और काउंसिलिंग के जरिए मिल रही जानकारियां पूरी तरह विश्‍वसनीय नहीं हैं.
डॉ. शार्लोट कहती हैं कि इस मनोवैज्ञानिक अध्‍ययन के जरिए हम ये समझना चाहते थे कि रिश्‍तों के टूटने का दोनों जेंडर पर क्‍या असर पड़ता है और कौन सा जेंडर किस भावना को ज्‍यादा महसूस करता है. ऑनलाइन सवाल-जवाब के जरिए इस स्‍टडी में एक लाख चौरासी हजार लोगों के ब्रेकअप के बाद के इमोशनल स्‍टेट का अध्‍ययन किया गया. मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञों की लंबी-चौड़ी टीम एनालिसिस का काम कर रही थी.
भावनाएं अभिव्‍यक्‍त नहीं करते पुरुष
इस अध्‍ययन में मनोवैज्ञानिकों ने पाया कि महिलाएं रिश्‍तों में होने वाली परेशानियों को पहचानने, उनको आइडेंटीफाई करने, काउंसिलिंग और थैरेपी के लिए पहलकदमी करने में ज्‍यादा आगे होती हैं, जबकि पुरुष रिश्‍ते में तकलीफ ज्‍यादा महसूस करते हैं. मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि पुरुषों के ज्‍यादा तकलीफ महसूस करने की वजह भी उनका एक्‍सप्रे‍सिव न होना है. वे ज्‍यादा दर्द महसूस करते हैं क्‍योंकि वे खुलकर अपनी बात कह नहीं पाते.
तेल अवीव यूनिवर्सिटी की हॉर्मोनल स्‍टडी
कुछ साल पहले इस्राइल की तेल अवीव यूनिवर्सिटी के स्‍कूल ऑफ मेडिसिन में हुई एक स्‍टडी ने सबको चौंका दिया था. स्‍टडी का विषय ये था कि एक बच्‍चे को गर्भ में रखने और पैदा करने की प्रक्रिया में बच्‍चे के माता-पिता यानि एक स्‍त्री और पुरुष के शरीर के भीतर किस तरह का बदलाव होता है. यह तो जाहिर है कि स्‍त्री के शरीर में प्रेग्‍नेंसी और डिलिवरी के दौरान बहुत सारे हॉर्मोनल बदलाव होते हैं. यह उसके शरीर से जुड़ा हुआ, उसके भीतर ही घट रहा एक अंतरंग अनुभव है. इस पर पहले भी बहुत सारी मेडिकल स्‍टडीज हो चुकी हैं कि स्‍त्री के शरीर में क्‍या-क्‍या हॉर्मोनल बदलाव हो रहे हैं.
लेकिन मेडिकल साइंस के इतिहास में संभवत: यह पहली बार था कि डॉक्‍टर पिता यानि एक पुरुष की माइंड मैपिंग करने की कोशिश कर रहे थे. यह जानने के लिए कि इंटीमेट फिजिकल एक्‍सपीरियंस न होने के बावजूद क्‍या पुरुष के शरीर के भीतर भी कोई हॉर्मोनल बदलाव हो रहे हैं.
प्रेग्‍नेंसी की शुरुआत से लेकर बच्‍चे के जन्‍म के बाद छह महीने तक डॉक्‍टर माता-पिता दोनों की माइंड मैपिंग करते रहे. उनके हाइपोथैलेमस, डोपमाइन और कॉर्टिसॉल के स्‍तर की जांच करते रहे. उन सारी हॉर्मोनल बदलावों का डीटेल में डॉक्‍यूमेंशन किया किया, जो स्‍त्री और पुरुष दोनों के शरीर में हो रहे थे.
पितृसत्‍तात्‍मक मूल्‍यों को चुनौती देता विज्ञान
स्‍टडी के नतीजे काफी चौंकाने वाले रहे. डॉक्‍टरों ने पाया कि हमारे मस्तिष्‍क के बाएं हिस्‍से में मौजूद हाइपोथैलेमस, जिससे कनेक्‍शन और लगाव को महसूस करने वाले हॉर्मोन रिलीज होते हैं, उस हॉर्मोन की मात्रा स्‍त्री और पुरुष यानि माता और पिता दोनों में एक बराबर थी. यानि के बच्‍चे के जन्‍म से सीधे शारीरिक जुड़ाव न होने के बावजूद पुरुष के शरीर के भीतर प्‍यार और लगाव को महसूस करने वाले ठीक वही हॉर्मोन रिलीज हो रहे थे, जो कि एक स्‍त्री के शरीर में.
विज्ञान की यह खोज एक पितृसत्‍तात्‍मक समाज की उन सारी मान्‍यताओं को ध्‍वस्‍त कर रही थी, जिन्‍होंने प्‍यार, लगाव, जुड़ाव, केयर और ख्‍याल का सारा ठीकरा अकेले औरतों के सिर पर फोड़ रखा है. जिन्‍होंने सदियों से हमारे दिमागों में इस विचार को ठूस दिया है कि स्त्रियां ज्‍यादा संवेदनशील और भावुक होती हैं. स्त्रियां ही मुख्‍यत: लगाव, जुड़ाव महसूस करती हैं, प्राइमरी केयरगिवर होती हैं और पुरुष ज्‍यादा कठोर, ताकतवर और भावनाशून्‍य होता है. हंटर और गैदरर वाली वही पुरानी इवोल्‍यूशन की थियरी कि पुरुष हंटर है और औरत गैदरर है.
आज भी जिन समाजों में पितृसत्‍तात्‍मक मूल्‍य गहरी जड़ें जमाए हुए हैं, स्‍त्री और पुरुष के बीच गहरा विभेद है, एक मेल और फीमेल चाइल्‍ड की परवरिश में ढेरों असमानताएं बरती जाती हैं, उन समाजों में वयस्‍क स्‍त्री और पुरुष का इमोशनल व्‍यवहार बहुत अलग होता है. यह सामाजिक और सांस्‍कृतिक उद्विकास का मसला है, विज्ञान का नहीं. क्‍योंकि जहां तक विज्ञान का सवाल है तो विज्ञान इस बात को मानने से पूरी तरह इनकार करता है कि इमोशनल हॉर्मोन दोनों जेंडर में अलग-अलग होते हैं.
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