हड़ताल का अर्थ
जनतंत्र में सरकार की नीतियों का विरोध या अपनी मांगें मनवाने के लिए हड़ताल, प्रदर्शन आदि का संवैधानिक अधिकार है। मगर इसके चलते देश की अर्थव्यवस्था और आम लोगों के कामकाज को होने वाले नुकसान की भरपाई में काफी वक्त लगता है।
Written by जनसत्ता: जनतंत्र में सरकार की नीतियों का विरोध या अपनी मांगें मनवाने के लिए हड़ताल, प्रदर्शन आदि का संवैधानिक अधिकार है। मगर इसके चलते देश की अर्थव्यवस्था और आम लोगों के कामकाज को होने वाले नुकसान की भरपाई में काफी वक्त लगता है। हालांकि इसकी जिम्मेदारी अकेले हड़ताल करने वालों पर नहीं डाली जा सकती। इसके लिए कहीं न कहीं सरकारें भी जवाबदेह होती हैं, क्योंकि हड़ताल जैसे कदम कर्मचारी एकदम से नहीं उठाते।
अपनी मांगें मनवाने की लंबी जद्दोजहद के बाद ही इस निर्णय पर पहुंचते हैं। श्रमिक संगठनों के आह्वान पर दो दिन की देशव्यापी हड़ताल भी इसी का नतीजा थी। विभिन्न महकमों के कर्मचारी लंबे समय से सरकारी उपक्रमों के निजीकरण, नई भर्तियां न होने, महंगाई बढ़ने आदि के विरोध में आवाज उठा रहे थे। पिछले साल बैंकों के निजीकरण, विलय आदि को लेकर बैंक कर्मियों ने देश भर में दो दिन की हड़ताल की थी।
उस वक्त उन्होंने अपना दो दिन का वेतन भी कटवाया था। इस बार लगभग सभी बैंकों के कर्मचारी हड़ताल पर रहे, जिसके चलते भारी पैमाने पर वित्तीय लेन-देन बाधित हुआ। इस हड़ताल में डाक विभाग, खनन, परिवहन आदि से जुड़े कर्मचारी भी शामिल हुए, जिससे आम लोगों की आवाजाही, कई जरूरी कामों में बड़े पैमाने पर बाधा पहुंची।
कामकाज रोक कर विरोध जताना या अपनी मांगें मनवाने का दबाव बनाना श्रम संगठनों का पुराना तरीका रहा है। कई बार यह तरीका कारगर साबित होता है, तो कई बार सरकारें उन्हें मानने से इनकार कर देती हैं, कर्मचारियों पर आवश्यक सेवा अधिनियम के तहत कार्रवाई का दबाव बनाती हैं। इस बार की हड़ताल का सरकारों पर क्या असर पड़ेगा, दावा नहीं किया जा सकता।
केंद्र सरकार ने पिछले दिनों कई सार्वजनिक उपक्रमों को निजी कंपनियों के हवाले कर दिया। अनेक सार्वजनिक उपक्रमों के मौद्रीकरण की सूची तैयार है। कई रेलवे स्टेशन और हवाईअड््डों का प्रबंधन निजी कंपनियों को सौंपा जा चुका है। कई बैंकों का विलय कर दिया गया है और निजी बैंकों को प्रोत्साहित किया जा रहा है।
इस तरह नई भर्तियों पर तो लंबे समय के लिए रोक लग चुकी है, मौजूदा कर्मचारियों के भविष्य पर भी खतरा मंडराने लगा है। इसी तरह खनन के क्षेत्र में कोयला खदानों का आबंटन निजी कंपनियों को किया गया है। लंबे समय से सरकारी विभागों में खाली पदों को भरने की प्रक्रिया रुकी हुई है। लिहाजा, उनके निजीकरण से बची-खुची उम्मीद भी खत्म हो गई है। महंगाई को लेकर चौतरफा हाहाकार है, मगर सरकार इस पर लगाम लगा पाने में विफल साबित हो रही है।
जब सरकार ने खुद नीतिगत फैसला कर रखा है कि वह अब सरकारी उपक्रमों का खर्च उठाने को तैयार नहीं है, जो उपक्रम घाटे में चल रहे हैं, उनका मौद्रीकरण ही इससे बचने का एकमात्र रास्ता है, तो श्रम संगठनों की हड़ताल को लेकर वह अपना मन बदलने को शायद ही तैयार हो। इंडियन एअरलाइंस को इसी तर्क पर बेच दिया गया कि वह घाटे में चल रही थी।
सरकारी कोयला खदानें भी घाटे और उत्पादन लक्ष्य पूरा न कर पाने की तोहमत झेल रही हैं। फिर कई विशेषज्ञों का मानना है कि सरकारों को उद्यम चलाने के बजाय कानून-व्यवस्था पर ध्यान देना चाहिए। उद्यमों की जिम्मेदारी उद्योगपतियों को सौंप देना चाहिए, क्योंकि उनके पास कारोबार का हुनर है। पर सरकारों को अपने कर्मचारियों के भविष्य की चिंता तो होनी ही चाहिए। इसलिए इस हड़ताल से उसे इस दिशा में नए सिरे से विचार का अवसर तो मिला ही है।