मुर्मू की उम्मीदवारी पर मोहर के मायने और आगामी चुनावी राजनीति के लिए एनडीए का संदेश
अगले राष्ट्रपति चुनाव के लिए एनडीए ने द्रौपदी मुर्मू को अपना उम्मीदवार बनाया है। हालांकि पहले से ही कहा जा रहा था कि इस बार किसी महिला को उम्मीदवार बनाया जाएगा और हो सकता है
नीरजा चौधरी: अगले राष्ट्रपति चुनाव के लिए एनडीए ने द्रौपदी मुर्मू को अपना उम्मीदवार बनाया है। हालांकि पहले से ही कहा जा रहा था कि इस बार किसी महिला को उम्मीदवार बनाया जाएगा और हो सकता है कि वह अनुसूचित जनजाति की महिला हों। चूंकि नरेंद्र मोदी हमेशा आखिरी क्षणों में लोगों को आश्चर्यचकित करते रहे हैं, इसलिए लोगों को लग रहा था कि इस बार भी वह कोई चौंकाने वाला फैसला कर सकते हैं। हालांकि निर्वाचक मंडल में एनडीए के पास 49 प्रतिशत वोट थे, और किसी उम्मीदवार को जिताने के लिए 50 प्रतिशत वोट चाहिए होते हैं।
चूंकि नवीन पटनायक और जगन मोहन रेड्डी भी प्रधानमंत्री से मिल चुके थे और कहा गया था कि उन्होंने समर्थन का वादा किया था, हालांकि उन्होंने खुलकर कुछ नहीं कहा था। फिर भी यह लगभग तय था कि अगर ये पार्टियां समर्थन नहीं भी करेंगी, तो भी छोटी पार्टियों और निर्दलियों के समर्थन से एनडीए का उम्मीदवार जीत जाएगा, जैसा कि हमने राज्यसभा चुनाव और महाराष्ट्र के विधान परिषद के चुनाव में देखा। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री ने राजनाथ सिंह और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा को अन्य दलों से सर्वानुमति बनाने के काम पर लगा दिया था।
ऐसा लगता था कि वह यह संदेश देना चाहते थे कि वह सबको साथ लेकर चलना चाहते हैं, क्योंकि हाल के दिनों में उन्हें कई झटके झेलने पड़े थे। जैसे पैगंबर मोहम्मद पर आपत्तिजनक बयान और अग्निपथ योजना को लेकर भाजपा बैकफुट पर थी। इसके बावजूद उम्मीदवार चयन को लेकर सर्वानुमति बनाने की कोई ठोस पहल नहीं की गई थी। जब द्रौपदी मुर्मू का नाम सामने आया, तो स्पष्ट हो गया कि काफी सोच-विचार कर उनके नाम पर फैसला हुआ है, क्योंकि इसका एक बड़ा महत्व है।
एक अनुसूचित जनजाति की महिला को देश के शीर्ष पद का उम्मीदवार बनाने का मतलब यह कि देश के लोकतंत्र में उपेक्षित और वंचित तबकों को ऊपर उठने का मौका मिल रहा है। हमारे देश में एक बड़ा हिस्सा पिछड़ा रहा है, ऐसे में एक आदिवासी महिला का राष्ट्रपति बनना महत्व रखता है, चाहे वह प्रतीकात्मक ही क्यों न हो। बेशक यह सवाल अपनी जगह है कि रामनाथ कोविंद के राष्ट्रपति बनने से दलितों के जीवन पर कितना फर्क पड़ा या उन्होंने दलितों के लिए क्या किया, लेकिन इसके महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता।
हमारे देश में सात-आठ राज्य ऐसे हैं, जहां अनुसूचित जनजाति के लोग बड़ी संख्या में हैं। देश में आदिवासियों की आबादी 8.6 फीसदी है। द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाए जाने से उनके बीच क्या संदेश जाएगा, यह आगामी चुनावी राजनीति के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। पश्चिमी भारत और हिंदी पट्टी क्षेत्रों में, जहां भाजपा का बहुत बड़ा दांव है, एनडीए के इस फैसले का असर हो सकता है। लेकिन यह इस बात पर निर्भर करता है कि मुर्मू कैसे पेश आती हैं और भाजपा इसका किस तरह फायदा उठाती है।
फिलहाल एनडीए ने अपने उम्मीदवार की जीत और भी सुनिश्चित कर ली है, क्योंकि ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने इस फैसले का स्वागत किया है, क्योंकि द्रौपदी मुर्मू ओडिशा से ही ताल्लुक रखती हैं। चूंकि द्रौपदी मुर्मू झारखंड की राज्यपाल रही हैं और झारखंड अनुसूचित जनजाति बहुल राज्य है, इसलिए हेमंत सोरेन भी उनका समर्थन करने के लिए बाध्य हो जाएंगे। इस तरह से एनडीए ने करीब 60 फीसदी वोट पक्का कर लिया है। लेकिन द्रौपदी मुर्मू का महत्व सिर्फ राष्ट्रपति चुनाव जीतने तक सीमित नहीं है।
आरएसएस ने दशकों से आदिवासी बहुल इलाकों में वनवासी कल्याण आश्रम के जरिये काफी काम किया है। देश में दलित राजनीति सामने आई है, महिला राजनीति भी सामने आ रही है, अल्पसंख्यक राजनीति सामने आई है और अब आदिवासी राजनीति को एक नई बढ़त मिलेगी। आदिवासियों की आकांक्षा को नई बढ़त मिलेगी। इस फैसले से निश्चित रूप से आदिवासियों को महत्व दिया गया है, जिसका असर 2024 के लोकसभा चुनाव में दिखेगा। अब बात करते हैं विपक्ष की, जिसने यशवंत सिन्हा को राष्ट्रपति पद के लिए अपना उम्मीदवार बनाया है।
शुक्र है कि शरद पवार, फारूक अब्दुल्ला और गोपाल कृष्ण गांधी के इनकार करने के बाद अंततः विपक्ष को एक उम्मीदवार मिल गया। अगर यशवंत सिन्हा भी इनकार कर देते, तो विपक्ष की भद पिट जाती। लेकिन यशवंत सिन्हा ने तृणमूल कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया और उन्होंने कहा कि वह विपक्ष की एकजुटता के लिए कोशिश करेंगे। विपक्ष ने जिस तरह से उम्मीदवार का चयन किया है, उससे उसकी लापरवाही, तैयारी की कमी, एकजुटता का अभाव सामने आया है। तीन उम्मीदवारों का इनकार कर देना कोई छोटी बात नहीं है।
एक ऐसा भी जमाना था, जब पूरी तैयारी के साथ राजनीति की जाती थी। बेशक खुलासा नहीं किया जाता था, लेकिन इंदिरा गांधी एक साल पहले ही तय कर लेती थीं कि अगला राष्ट्रपति उम्मीदवार कौन होगा। हालांकि वह काफी कद्दावर नेता थीं, जैसे कि आज नरेंद्र मोदी हैं, लेकिन काफी सोच-विचार कर तैयारी के साथ ही वह उम्मीदवार का चयन करती थीं। गठबंधन की राजनीति में ऐसा कर पाना किसी के लिए भी मुश्किल होता है। लेकिन यह मानते हुए भी, पर्दे के पीछे तैयारी तो होनी ही चाहिए थी।
एक समय था, जब सब कुछ पहले तय हो जाता था और बैठक में बस साझा फैसला घोषित होता था, लेकिन आज विपक्ष बैठक में किसी फैसले पर पहुंचने के लिए सोचना शुरू करता है। जाहिर है, राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष के उम्मीदवार की जीत तो होनी नहीं है, लेकिन इस लड़ाई के जरिये विपक्ष दो दिशा में कदम बढ़ा सकता है। एक तो विपक्ष की एकता की दिशा में बढ़ना और जहां तक हो सके, एकजुट रहकर लड़ना तथा 2024 की तैयारी करना और दूसरा, देश में लोगों के सामने भाजपा के विकल्प के रूप में खुद को पेश करना।
अब सवाल यह उठता है कि विपक्ष सभी पार्टियों को एकजुट करने के लिए किसे अपना वार्ताकार बनाता है, जो सभी पार्टियों के नेताओं से बात करे। यशवंत सिन्हा और कपिल सिब्बल ने कहा है कि वे विपक्ष को एकजुट करने की पहल करेंगे। अगर विपक्ष इसे अवसर मानकर एकजुट होने की कोशिश करे, तभी कुछ हो सकता है, अन्यथा विपक्ष की स्थिति कोई अच्छी नहीं है, जो अभी महाराष्ट्र के ताजा घटनाक्रम में भी दिख रहा है। विपक्ष को एक नए जोश, नई एकता के साथ सामने आना होगा, जो अब तक गायब रही है, क्योंकि वह हर जगह विफल होता जा रहा है।