असंतोष का अर्थ
मगर अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी इसे लेकर सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया है। कुछ दिनों पहले सड़क एवं परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने कहा था कि देश तो संपन्न है, मगर यहां के लोग गरीब हैं।
Written by जनसत्ता; मगर अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी इसे लेकर सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया है। कुछ दिनों पहले सड़क एवं परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने कहा था कि देश तो संपन्न है, मगर यहां के लोग गरीब हैं। तब उन्होंने भी आर्थिक विषमता पर अंगुली उठाई थी।
अब संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने भी इन स्थितियों के लिए सरकार को सीधे जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कि हमें दुख होना चाहिए कि बीस करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं और तेईस करोड़ लोग प्रतिदिन पौने चार सौ रुपए से भी कम कमा रहे हैं। गरीबी हमारे सामने राक्षस जैसी चुनौती है। नागरिक कलह और खराब स्तर की शिक्षा गरीबी के दो प्रमुख कारण हैं। देश में चार करोड़ बेरोजगार हैं।
सिर्फ शहरों में नौकरियों की सोच ने गांवों को खाली और शहरों में जीवन को नर्क बना दिया है। स्थानीय स्तर पर रोजगार की व्यवस्था करना जरूरी है। वे स्वदेशी जागरण मंच के एक कार्यक्रम में बोल रहे थे। संघ सरकार्यवाह की यह तल्ख टिप्पणी निस्संदेह सरकार के लिए चिंता पैदा करने वाली है। मगर देखने की बात है कि वह इन समस्याओं से पार पाने के लिए क्या कदम उठाती है।
दरअसल, आर्थिक मोर्चे पर सरकार के सामने चुनौतियां चौतरफा हैं। वह एक तरफ संभालने का प्रयास करती है, तो बाकी दिशाओं में असंतुलन बढ़ जाता है। पिछले कुछ दिनों से अर्थव्यवस्था, महंगाई, बेरोजगारी, आयात-निर्यात, औद्योगिक उत्पादन, विदेशी मुद्रा भंडार के खाली होते जाने आदि को लेकर लगातार बुरी खबरें आ रही हैं। कोरोना के बाद सरकार आर्थिक कमजोरी के लिए बंदी को जिम्मेदार ठहराने का प्रयास करती और जल्दी ही बेहतर स्थिति बनने का भरोसा दिलाती रही, जबकि तमाम अर्थशास्त्री कोरोना से पहले ही बिगड़ती अर्थव्यवस्था को लेकर चेतावनी देने लगे थे।
कोरोना से पहले ही वाहन उद्योग चरमरा गया था और विदेशी कंपनियों ने अपना कारोबार समेटना शुरू कर दिया था। इस तरह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर बुरा प्रभाव कोरोना से पहले शुरू हो गया था। सरकार दावे करती रही कि निर्यात बढ़ा है, मगर हकीकत इसके उलट थी। इसका सीधा असर औद्योगिक उत्पादन पर पड़ा और उसका प्रभाव रोजगार पर दिखने लगा। कोरोना काल की बंदी ने सूक्ष्म, मंझोले और छोटे उद्योगों की कमर तोड़ दी। कुटीर उद्योग संभल नहीं पाया। इस तरह जिस क्षेत्र में सबसे अधिक रोजगार पैदा होते थे, उसके दरवाजे बंद हो गए।
सरकार का जोर भारी उद्योगों को बढ़ावा देने पर अधिक रहा है। मगर वहां हाथ से काम करने वालों के लिए अवसर काफी कम होते हैं, जिससे रोजगार के मोर्चे पर कामयाबी नहीं मिल पाई। जिस देश में गरीबी और बेरोजगारी पर काबू पाने के लिए व्यावहारिक नीतियां अपनाने के बजाय कर उगाही पर जोर अधिक दिया जाता है, वहां अर्थव्यवस्था कभी टिकाऊ पैमाने तक नहीं पहुंच पाती।
विचित्र है कि सरकार गरीबों को मुफ्त अनाज देकर गरीबी से लड़ने का दम भरती रही है, जबकि उन्हें वास्तव में रोजगार की जरूरत है। इसी तरह जीएसटी संग्रह को आर्थिक मजबूती का पैमाना बताती रही है। इस तरह सरकार का राजस्व घाटा पूरा नहीं हो सकता। ऐसा नहीं माना जा सकता कि वित्तमंत्री इस सच्चाई से वाकिफ नहीं, मगर वे असल मुद्दों से ध्यान भटकाने का प्रयास ही अधिक करती देखी जाती हैं।