हाशिए की मुश्किलें
यूं तो साहित्य की समाज में उपस्थिति नजर नहीं आती पर रहती जरूर है
अतिथि संपादक : चंद्ररेखा ढडवाल, मो. : 9418111108
हिमाचल की हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में -3
विमर्श के बिंदु
1. कविता के बीच हिमाचली संवेदना
2. क्या सोशल मीडिया ने कवि को अनुभवहीन साबित किया
3. भूमंडलीकरण से कहीं दूर पर्वत की ढलान पर कविता
4. हिमाचली कविता में स्त्री
5. कविता का उपभोग ज्यादा, साधना कम
6. हिमाचल की कविता और कवि का राज्याश्रित होना
7. कवि धैर्य का सोशल मीडिया द्वारा खंडित होना
8. कवि के हिस्से का तूफान, कितना बाकी है
9. हिमाचली कवयित्रियों का काल तथा स्त्री विमर्श
10. प्रदेश में समकालीन सृजन की विधा में कविता
11. कवि हृदय का हकीकत से संघर्ष
12. अनुभव तथा ख्याति के बीच कविता का संसर्ग
13. हिमाचली पाठ्यक्रम के कवि और कविता
14. हिमाचली कविता का सांगोपांग वर्णन
15. प्रदेश के साहित्यिक उत्थान में कविता संबोधन
16. हिमाचली साहित्य में भाषाई प्रयोग (काव्य भाषा के प्रयोग)
17. गीत कविताओं में बहती पर्वतीय आजादी
अनूप सेठी, मो.-9820696684
यूं तो साहित्य की समाज में उपस्थिति नजर नहीं आती पर रहती जरूर है, भले ही अगोचर हो। इसी तरह, दूसरी तमाम चीजों की तरह साहित्य की भी अपनी सत्ता होती है। यह आम आदमी को नहीं दिखती। इसकी ज़द में केवल वही व्यक्ति आता है जो साहित्य कर्म में लगा हो। साहित्य के भी सत्ता केंद्र बनते हैं, जिनके केंद्र में साहित्यकार होते हैं, लेकिन वे ताकत अन्य कई प्रकार के उपक्रमों से पाते हैं। जैसे विश्वविद्यालय, प्रकाशन गृह, पत्रिकाएं, पुरस्कार, सरकारी योजनाएं आदि। इसी तरह जैसे पहले इलाहाबाद एक बड़ा केंद्र था, फिर दिल्ली पहले साहित्य का केंद्र बना और फिर साहित्य का गढ़ बन गया। चूंकि साहित्य के पाठक ज्यादा नहीं हैं, इसलिए वे साहित्य की सत्ता का कारक नहीं बन पाते हैं। इसके अलावा हिंदी में लोकप्रियता को श्रेष्ठ साहित्य का विलोम मान लिया जाता है। इसलिए और भी लोकतांत्रिकीकरण नहीं हो पाता है। ऐसे परिदृश्य में साहित्य के केंद्र और परिधियां बनती हैं। जो लेखक केंद्र से जितना दूर है, यानी परिधि पर है या परिधि से बाहर है या हाशिए पर है, उसके लिए साहित्य में अपनी उपस्थिति दर्ज कराना उतना ही कठिन है। हालांकि यह छल-छद्म सरीखा विभाजन है। साहित्य कर्म में इसकी उतनी भूमिका नहीं है।
इसी तरह साहित्य की मुख्यधारा होती है। मुख्यधारा के लेखन की प्रवृत्तियों के आधार पर लेखन की श्रेणियां बनती हैं। यहां भी मुख्यधारा और गौण धारा जैसा विभाजन हो जाता है। मुख्यधारा का संबंध ज्य़ादातर अपने समकाल से होता है। कोई भी दौर अपने वक्त के बड़े मसलों पर फोकस करता है या कहें कि हर दौर की अपनी बहसें चलती हैं, उसी से मुख्यधारा बनती है। यह मुख्यधारा अपनी साहित्य परंपरा का हिस्सा ही होती है। मुझे लगता है कि साहित्य के बड़े केंद्रों से दूर बैठा व्यक्ति कई स्तरों पर जूझता है। वह उत्साह बढ़ाने वाले बाहरी माहौल के लिए तरसता है। वैसे यह कमी बड़े केंद्रों में भी बनी रहती है। वहां भी कई ऐसे कोने अंतरे होते हैं जहां कई साहित्य कर्मी दुबके रहते हैं।
निजी तैयारी का माहौल, मौका और साधन जुटाना भी आसान नहीं है। यूं देखा जाए तो आज के दौर में हिमाचल प्रदेश तमाम साधनों की दृृष्टि से मुख्यधारा के समकक्ष ही है। फिर भी जो गतिविधि शिमला और मंडी में चलती है, और कुछ सालों से कुल्लू में चल रही है, वह कांगड़ा, ऊना, सोलन, हमीरपुर या बिलासपुर में नहीं है। यूं हर शहर में देखें तो कवियों-कहानीकारों की संख्या कम न होगी; भाषा अकादमी के रजिस्टर में भी संख्या भरपूर होगी। हमारे प्रदेश के उन्हीं लेखकों की आवाज वृहत्तर हिंदी समाज तक पहुंच सकी है, जो अपने युगबोध के प्रति सजग रहे हैं; जिनकी रचनाओं में समकाल के साथ मुठभेड़ है; अपनी बात को सलीके से कहने की बेचैनी है; जिन्होंने अपनी भाषा को मांजने के गहन प्रयास किए हैं। यूं सत्ता केंद्रों में जगह-जगह लटकी खूंटियों के सहारे किंचित जगह पाने वाले भी बहुतेरे हैं, पर उनका लेखन मुख्यधारा में शामिल हो सकने की गवाही नहीं देता है। ऐसे लेखकों की भी कमी नहीं है जो साहित्य कर्म से शौक की तरह जुड़े होते हैं। वे अपने रचे हुए आनंद संसार में विचरण करते रहते हैं। परिधि पर रह रहे लेखकों की कई शिकायतें होंगी। सत्ता केंद्रों और मुख्यधारा की मौजूदगी के बावजूद कहीं कोई अदालत नहीं है, जहां पीडि़त या दरकिनार पड़ा साहित्यकार न्याय की मांग कर सके। उसकी शिकायतें हो सकती हैं, बहुत सी जायज़ भी हो सकती हैं। लेकिन उसे खुद ही उनका हल ढूंढना होता है। इसके उलट साहित्य कर्मी से अपेक्षाएं कहीं ज्य़ादा होती हैं।
वह अपेक्षाओं पर खरा उतरेगा, तभी उसकी बात दूर तक पहुंचेगी। इस बिंदु पर आकर हम कह सकते हैं कि इस पृष्ठभूमि में साहित्य कर्मी का आंतरिक संघर्ष ही उसे रास्ता दिखा सकता है। संघर्ष में सफलता उसकी आंतरिक तैयारी पर निर्भर करती है। बने-बनाए ढांचे से साहित्यकार नहीं बनते। हर एक को अपना रास्ता खुद बनाना पड़ता है। मेरा मानना है कि इस तैयारी में उसे अपनी परंपरा को आत्मसात करना पड़ता है; अपने समकाल को समझने की हरचंद कोशिश करनी पड़ती है। बने-बनाए ढांचे और सांचे उसकी इस यात्रा को भरमाते हैं, रोकते हैं, उसे पीछे खींचते हैं। इस आंतरिक तैयारी में हर लेखक को अपनी भाषा पर मेहनत करनी पड़ती है। यह आसान नहीं है। भाषा सिर्फ शब्दावली और व्याकरण और वाक्य रचना नहीं है। अभी हाल में असगर वजाहत ने स्वयं प्रकाश के संदर्भ में 'जिं़दा भाषा का मर्म समझाया था। हर लेखक को अपनी जिं़दा भाषा अर्जित करनी होती है। वह सारी परिधियों, हाशियों, सत्ता केंद्रों, गढ़ों, मठों और मठाधीशों को पार करते हुए अपनी उपस्थिति दर्ज करवा ही लेती है। उसे कोई रोक नहीं सकता।