इस घटना में पांच पुलिस कर्मियों के शहीद होने के अलावा 14 जख्मी भी हुए जिनमें तीन की हालत बहुत नाजुक बनी हुई है। चालू वर्ष में माओवादियों का यह पहला हमला है जबकि पिछले वर्ष इसी महीने में उन्होंने एक हमला किया था जिसमें कई पुलिस कर्मी मारे गये थे। यह भी सोचने वाली बात है कि जब देश के पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं और राज्य के मुख्यमन्त्री श्री भूपेश बघेल अपनी पार्टी कांग्रेस के चुनाव प्रचार के लिए अधिकतम समय इन राज्यों में बिता रहे हैं तो माओवादियों ने बम विस्फोट करके उन्हें ही परोक्ष रूप से चुनौती दी है।
मगर भूपेश बघेल ऐसे नेता हैं जिन्होंने नवम्बर 2018 में कुर्सी पर बैठने के बाद माओवाद की समस्या का जड़ से हल करने का प्रयास किया है। यह भी अब कोई रहस्य नहीं रहा है कि माओवादियों को राजनीतिक संरक्षण भी छत्तीसगढ़ में मिल रहा है और चुनावों में इनकी भूमिका को कम करके नहीं आंका जाता। इसकी वजह यह है कि ये माओवादी अपने प्रभावित इलाकों में मतदान को प्रभावित करते हैं। हालांकि हकीकत यह है कि नक्सलवाद की समस्या अब मुख्य रूप से केवल छत्तीसगढ़ में ही बची है और इससे लगते आंध्र प्रदेश व ओडिशा में इनका प्रभाव न्यूनतम रह गया है। प. बंगाल का जंगल महल इलाका अब माओवाद प्रभावित नहीं रहा है। यह सब इन राज्यों की सरकारों के अथक प्रयासों से ही संभव हो सका है।
मगर छत्तीसगढ़ ऐसा राज्य है जिसमें खनिज सम्पदा का अकूत भंडार है और निजीकरण के चलते यहां के स्थानीय निवासियों खास कर युवा वर्ग में अपने शोषण होने की भावना भर चुकी है जिसकी वजह से माओवाद के रक्त रंजित सिद्धान्तों के प्रति इस वर्ग को भटकाने में सफलता मिलती रही है परन्तु अब इसमें कमी आ रही है जिसकी वजह यह है कि कार्पोरेट क्षेत्र को भी स्थानीय लोगों की विकास में भागीदारी की महत्ता का भान हुआ है और उन्होंने विभिन्न परियोजनाओं में स्थानीय निवासियों को वरीयता देने की नीति लागू की है परन्तु अभी इस क्षेत्र में बहुत कुछ किया जाना है जिससे आदिवासियों में अपनी जमीन छिन जाने का भाव समाप्त हो सके और उन्हें उन्हीं की जमीन पर आजीविका का साधन सुलभ कराया जा सके परन्तु नक्सलवादी छत्तीसगढ़ में पूर्व में विकास कार्यों में अवरोध इस प्रकार करते रहे हैं कि स्थानीय युवा वर्ग में असन्तोष की ज्वाला कम न हो सके। इस काम में भी राज्य सरकारों ने कुछ हद तक सफलता विशेष रणनीति अपना कर प्राप्त की है, विशेषकर छत्तीसगढ़ में माओवादियों के विरुद्ध गठित सुरक्षा दस्तों में स्थानीय युवाओं को भी भर्ती करके उन्हें लोकतन्त्र की सुरक्षा का सिपाही बनने को प्रेरित किया है।
इस नीति के परिणाम सुखद निकले हैं। दरअसल कथित माओवादी इलाकों में अशिक्षा और बेरोजगारी की वजह से भी नक्सलवाद फैला है। इस तरफ जिस गति से कार्य स्वतन्त्रता के बाद से होना चाहिए था वह नहीं हुआ जबकि संविधान की अनुसूची पांच व छह में ऐसे इलाकों के विकास के लिए सीधे राज्यपालों को ही अधिकृत किया गया है परन्तु देखने में यह आ रहा है कि राज्यपाल राजनीतिक गतिविधियों में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं और संविधान प्रदत्त अपने जन विकास के अधिकारों को भूल जाते हैं।
लोकतन्त्र में बन्दूक से समस्याओं का हल करने की सोच ही स्वयं में संविधान विरोधी व राष्ट्रविरोधी सोच होती है। इस सोच के न पनपने की परिस्थियां पैदा करना चुनी हुई सरकारों का ही दायित्व होता है। कुछ वर्ष पहले संसद में जब माओवादी की समस्या पर बहस हुई थी तो लोकसभा में मौजूद ओडिशा के पूर्व मुख्यमन्त्री श्री हेमानन्द विस्वाल ने सुझाव दिया था कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के युवाओं की फौज में भर्ती की जानी चाहिए और अलग से एक रेजीमेंट का गठन किया जाना चाहिए जिससे इन क्षेत्रों में बोरोजगारी की समस्या भी सुलझे और युवा वर्ग के जोश का भी देश हित में लाभ हो। ऐसे सकारात्मक सुझाव और भी आते रहते हैं। जिनकी तरफ ध्यान देने से इस समस्या को समूल नष्ट करने के उपाय खोजे जा सकते हैं।