कोरोना के मुआवजे में कई चुनौतियां, सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सामाजिक सुरक्षा के प्रति सरकारों की जवाबदेही बढ़ेगी

आपदा प्रबंधन कानून 2005 के तहत बाढ़, सुनामी, सूखा, भूकंप, भूस्खलन और चक्रवात जैसी 12 आपदाओं से तबाही के मामलों में राहत कार्य व मुआवजे का कानून है

Update: 2021-09-16 08:29 GMT

विराग गुप्ता। आपदा प्रबंधन कानून 2005 के तहत बाढ़, सुनामी, सूखा, भूकंप, भूस्खलन और चक्रवात जैसी 12 आपदाओं से तबाही के मामलों में राहत कार्य व मुआवजे का कानून है। 2015 में गृह मंत्रालय ने इस कानून के तहत आपदा से मरने वालों के परिवारजनों को 4 लाख रुपए के मुआवजे का नियम बनाया था।

सुप्रीम कोर्ट के सम्मुख याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि मार्च 2020 में कोरोना को आपदा के तौर पर नोटिफाई किया गया था। इसलिए इससे हुई मौत के सभी मामलों में 4 लाख का मुआवजा मिले। सरकार ने जवाब में कहा कि यह कानून प्राकृतिक व अन्य आपदाओं के लिए है, कोरोना का मामला अलग है।
सरकार ने दावा किया कि कोरोना से निपटने में टीकाकरण, दवा, अस्पताल, नि:शुल्क राशन, अनाथ बच्चों का संरक्षण, प्रवासी श्रमिकों के कल्याण, ब्याज में राहत, प्रधानमंत्री ग्राम कल्याण पैकेज, फ्रंट लाइन वर्कर्स के लिए स्वास्थ्य बीमा जैसी मद पर बड़े पैमाने पर राहत कार्य किए गए हैं। इसलिए कोरोना से जुड़े मामलों में अलग से मुआवजा देने की कानूनी बाध्यता नहीं है।
दावों को खारिज करते हुए ढाई महीने पहले सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को दो आदेश दिए थे। पहला, कोरोना से हुई मौतों का विवरण मृत्यु प्रमाणपत्र में जरूरी तौर पर दर्ज करने की सरल प्रक्रिया बने। दूसरा, आपदा प्रबंधन कानून के तहत कोरोना से हुई मौतों के मामलों में पीड़ित परिवारों को मुआवजे के लिए दिशानिर्देश जारी किए जाएं।
फैसले पर पूरी तरह से अमल न होने पर याचिकाकर्ता ने अवमानना की अर्जी लगाई, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार नहीं किया। कोर्ट ने सरकार से कहा कि देश में तीसरी लहर की आहट है, इसलिए फैसले पर जल्द अमल हो। सरकारी शपथ पत्र से असहमति जताते हुए कोर्ट ने कहा कि कोरोना से पीड़ित किसी व्यक्ति ने यदि आत्महत्या की है तो उन मामलों में भी मुआवजे पर विचार करना चाहिए।
संवैधानिक दृष्टि से तर्कसंगत होने के बावजूद, फैसले के अमल में 4 अड़चनें और चुनौतियां आ सकती हैं। पहला, सरकारी आंकड़ों के अनुसार कोरोना से करीब 4 लाख लोगों की मौत हुई। ऐसे सभी लोगों को मुआवजा देना पड़ा तो सरकार के ऊपर करीब 20 हजार करोड़ का वित्तीय बोझ पड़ सकता है।
केंद्र ने मुआवजे के लिए राज्यों को दिशानिर्देश जारी भी किए तो इस मद पर रकम का जुगाड़ कौन करेगा? दूसरा, कोरोना काल में लाखों लोगों की मौत के बाद उनका अंतिम संस्कार भी हो चुका है। गरीब लोग जिन्हें सही मायने में मुआवजे की जरूरत है, वे गाइडलाइन्स की कानूनी बारीकियों के कारण शायद ही सही दावा पेश कर सकें। केंद्र व राज्य सरकारों के नए आदेश के बाद मुआवजा मिलने की उम्मीद पर मृत्यु प्रमाणपत्र में बदलाव का गोरखधंधा शुरू हो गया, तो भ्रष्टाचार बढ़ेगा।
तीसरा, कोरोना को महामारी और आपदा के तौर पर नोटिफाई करने के कारण ही सरकार को लॉकडाउन व जनता कर्फ्यू लगाने की कानूनी ताकत मिली। लॉकडाउन में कई लोग भुखमरी व बेरोजगारी का शिकार होकर मौत का शिकार हो गए। आपदा कानून के तहत उन मृतक लोगों के परिजनों ने यदि मुआवजे की मांग की तो सरकार और सुप्रीम कोर्ट कैसे इनकार करेंगे? चौथा, अनेक राज्य सरकारों द्वारा कोरोना से हुई मौतों पर मुआवजा दिया जा रहा है।
फ्रंटलाइन वर्कर्स की कोरोना से मौत होने पर 50 लाख रुपए के बीमा के लिए केंद्र सरकार ने योजना शुरू की है। सरकारी कर्मचारियों के परिजनों को अनुकंपा नियुक्ति भी मिल रही है। मुआवजे का लाभ सिर्फ वंचित वर्ग तक पहुंचे, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट को न्यायिक आदेश पारित करने के साथ, राज्य सरकारों को भी प्रशासन चौकस करना होगा।
अनेक चुनौतियों के बावजूद फैसला कई लिहाज से मील का पत्थर साबित हो सकता है। पहला, किसी कानून के तहत अधिकार हासिल करने वाली सरकार को उस कानून के तहत जवाबदेही लेना भी जरूरी है। दूसरा, अकाल व प्लेग जैसी महामारियों से निपटने के लिए अंग्रेजों ने 1897 में जो कानून बनाया था, अब वह अप्रासंगिक हो गया है।
नए जमाने की महामारियों से निपटने के लिए युक्तिसंगत कानून बनाने के लिए सरकार व संसद को पहल करनी चाहिए। तीसरा सबसे महत्वपूर्ण पहलू है, जनता की सामाजिक सुरक्षा के लिए राज्य व केंद्र सरकार की जवाबदेही निर्धारित होना। इसके लिए जजों ने अनुच्छेद 21 में किए गए जीवन के अधिकार को संविधान की समवर्ती सूची के आइटम 23 से जोड़ा है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला देश का कानून माना जाता है। इस लिहाज से यह फैसला, कल्याणकारी राज्य के स्वप्न को साकार करने की दिशा में ऐतिहासिक भूमिका निभा सकता है।


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