इंसान की कीमत
कहने को यह बहुत पुराना और घिसा-पिटा विषय लगता है, लेकिन जिस महिला या उसके परिवार को इसका सामना करना पड़ता है, उन्हीं को इसकी पीड़ा समझ में आती है। दरअसल, हमारी प्रवृत्ति है
Written by जनसत्ता: कहने को यह बहुत पुराना और घिसा-पिटा विषय लगता है, लेकिन जिस महिला या उसके परिवार को इसका सामना करना पड़ता है, उन्हीं को इसकी पीड़ा समझ में आती है। दरअसल, हमारी प्रवृत्ति है कि अगर बुरा हमारे साथ नहीं हो तो हमें सब अच्छा और सही लगता है। यहां तक कि दूसरे के साथ होने वाली घटनाएं भी हमारे लिए बड़ी बात नहीं होती। लोगों के सामने चंद पैसों के लिए किसी की जान ले ली जाए और उसे प्रताड़ित किया जाए या फिर अपमानित भी, तो समाज उसे देख कर अनदेखा करता है और कई बार तो वही समाज के लोग भी ताना कसने में या अपमान करने में पीछे नहीं हटते।
कई लोगों का मानना होता है कि गांव में साक्षरता की कमी होने से ये सारी कुरीतियां बस गांव में होती हैं, जबकि अगर वे अपने कीमती वक्त में से बस दो मिनट निकालकर इन विषयों पर सोचें और जानने की कोशिश करें, तब शायद उन्हें समझ आएगा कि समाज में शादी के लिए सब लड़कों की कीमत तय है, चाहे वह गांव का हो या शहर।
यह अजीब लगता है, मगर 'कीमत' शब्द सही प्रयोग है। शहर में और खासकर पढ़े-लिखे लड़के जैसे डाक्टर, इंजीनियर या कोई पदाधिकारी (सरकारी नौकरी) की कीमत लगती है। सुनकर शायद लोग अचंभित न हों, अगर कोई थोड़ा भी इन विषयों पर सक्रिय है। डाक्टर की कीमत करोड़ों में हो सकती है और वह भी तब जब लड़की भी डाक्टर हो। इसी तरह इंजीनियर, सरकारी नौकरी और अच्छे व्यवसाय वालों की भी तय कीमत होती है।यह गांव नहीं, शहर की बात है और अगर गांव की स्थिति समझने की कोशिश की जाए तो ऐसे समझ सकते हैं कि वहां बिना पढ़े-लिखे और कुछ काम तक न करने वाले लड़कों की कीमत भी पांच से सात लाख रुपए होती है। क्या इसे इंसान की खरीद-बिक्री के तौर पर नहीं देखा जा सकता है?
अंदाजा लगाया जा सकता है कि इतने पैसे जमा करने में एक साधारण परिवार में बेटी के पिता का जूता घिस जाता है। ऊपर से महंगाई और बच्चों को अपने पैर पर खड़े करने का खर्चा अलग। सरकार अपनी ओर से कई कानून और नियम बना चुकी है, फिर भी यह सब बड़े स्तर पर हो रहा है। दरअसल, दहेज प्रथा खत्म तब तक नहीं होगी, जब तक हम और आप सक्रिय न हों और प्रण न ले लें कि कम से कम हम अपने घर में ऐसी कुरीतियां नहीं होने देंगे।