बाद में आधुनिक रूप में मनाई जाने वाली शिवरात्रि के पीछे का तर्क राजा सूरज सेन के जीवन से भी जुड़ा हुआ है, जब उन्होंने परिवार के सदस्यों की मृत्यु के बाद राज छोड़ दिया था तथा राजा माधव राय को राज समर्पित करके सेवादार बन गए थे। तो वे शिवरात्रि के दिन सभी देवताओं को आमंत्रित कर मंडी में मेहमान बनाते थे जिसमें शैव मत का प्रतिनिधित्व बाबा भूतनाथ, लोक देवता का प्रतिनिधित्व बड़ा देव कमरूनाग व वैष्णव मत का प्रतिनिधित्व राज देवता माधव राय जी करते थे। सभी देव कतार में व्यवस्थित रूप से उत्सव को आज भी सुसज्जित करते हैं। इसमें वरिष्ठता का ध्यान रखा जाता है। वरिष्ठ देव अग्र बैठते हैं। वरिष्ठता का अनुमान पालकी के पुरानी या नया होने से लगाया जाता है। देव मिलन आकर्षण का केन्द्र रहता है। नृत्य करते हुए पालकी पर झुककर कनिष्ठ देवता वरिष्ठ देवता के साथ अभिवादन करते हैं जिससे समस्त माहौल देवमय हो उठता है। जनपद का सबसे बड़ा देव कमरूनाग जी को माना जाता है। उनके न आने तक शिवरात्रि पर्व प्रारंभ नहीं किया जाता है। मंडी में शिवरात्रि कोई दस-बीस साल पहले से नहीं मनाई जाती, बल्कि यह महोत्सव प्राचीन काल से ही मनाया जाता रहा है। इसके पीछे लोगों द्वारा कई तर्क वर्तमान समय में दिए जाते हैं। इस बात को लेकर अभी तक इतिहासकार, देव गुरु और कारदार एकमत नहीं हैं कि शिवरात्रि महोत्सव की शुरुआत आखिर मंडी में कैसे हुई थी। प्राचीन समय में प्रत्येक राज काल में इसका स्वरूप बदलता रहा जो कि आज भी आंशिक रूप से परिवर्तित होकर मंडी की शान बनाए हुए है।
वर्तमान में भी इसके स्वरूप में कई बदलाव हुए हैं जिससे समझना मुश्किल हो जाता है कि आखिर इसकी शुरुआत कहां से हुई। इस विषय में कुछ लोगों का मानना है कि 1788 में मंडी रियासत के राजा ईश्वरी सेन को कांगड़ा के महाराजा संसार चंद की कैद से रिहा किया था और लंबी कैद से यह रिहाई शिवरात्रि पर्व के आसपास हुई थी, जिसमें राजा मंडी यानी स्वदेश लौटे थे। इसी खुशी में स्थानीय लोग अपने देवताओं के साथ राजा की हाजिरी भरने मंडी नगर में पहुंच गए थे और राजा की रिहाई और शिवरात्रि का लोगों ने मंडी में एक साथ जश्न के रूप में मनाया था। इसी जश्न के साथ मंडी शिवरात्रि की शुरुआत हो गई, ऐसा लोग कहते हैं। इसके अलावा कुछ लोगों का मानना है कि साल में एक बार शिवरात्रि पर पूरे मंडी के लोग मंडी में राजा से मिलने पहुंचते थे। यहीं पर ही वो राजा को पूरे साल का लेखा-जोखा दिया करते थे और शिवरात्रि भी मनाते थे। ये परंपरा धीरे-धीरे आगे बढ़ती रही और आज ये अंतरराष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्सव के नाम से जानी जाती है। शिवरात्रि महोत्सव का मंडी रियासत के राज परिवार के साथ गहरा नाता है। 18वीं सदी में राजा सूरज सेन ने माधव राय को राजपाठ सौंप दिया था और खुद सेवक बन गए थे। माधव राय जी को विष्णु भगवान का रूप माना जाता है। मंडी के राज देव माधव राय जी की पालकी जब तक नहीं निकलती, तब तक शिवरात्रि महोत्सव की शुरुआत नहीं होती है। माधव राय मंदिर से भूतनाथ मंदिर तक माधव राय की भव्य जलेब यानी पालकी निकाली जाती है। भूतनाथ मंदिर में शिव भगवान को शिवरात्रि का न्योता दिया जाता है।
राजा माधोराय जी की जलेब में चुनिंदा देवी-देवताओं के रथों के अलावा होमगार्ड के साथ पुलिस बैंड, घुड़सवार और स्कूली बच्चों की परेड भी शामिल होती है जिसे देखने के लिए मंडी स्थिर-सा हो जाता है, मानो देव संस्कृति को देखने के लिए कदम रुक-से जाते हंै। देव कमरुनाग जी क्षेत्र के सबसे बड़े देव हैं। उनके मंडी आने पर ही शिवरात्रि महोत्सव के सारे काम शुरू होते हैं। कमरूनाग ही शिवरात्रि महोत्सव में सबसे पहले पधारते हैं। देवताओं की अनुमति के बाद शुरू होती है शिवरात्रि। पहले इसे राज परिवार सम्पन्न करवाता था। वर्तमान समय में इसे सम्पन्न करवाने की जिम्मेवारी मंडी जिला प्रशासन के पास है। शिवरात्रि महोत्सव को लेकर एक मान्यता यह भी है कि यह एक ऐसा महोत्सव है जिसमें शैव, वैष्णव और लोक देवता का संगम होता है। बाबा भूतनाथ, देव कमरूनाग जी व राज माधव राय, इन तीनों की अनुमति के बाद ही मंडी का शिवरात्रि महोत्सव शुरू होता है। इस मेले में सामान्यतः 200 से अधिक देवता मेले की शोभा बढ़ाते हैं जिनसे आशीर्वाद लेने के लिए बड़ा जनसैलाब मंडी के पड्डल मैदान में उमड़ता है। पूरा हफ्ता देवता एक-दूसरे से मिलते हैं। सबसे खास बात यह है कि सभी देवताओं को राज माधो राय के दरबार में हाजिरी भरनी ही पड़ती है। दूर-दूर से आए देवता अपने तय स्थानों पर बैठते हैं। शिवरात्रि महोत्सव में तीन बार देवता की जलेब निकाली जाती है तथा पूरा हफ्ता सांस्कृतिक संध्याओं, लोक नृत्यों का आयोजन किया जाता है ताकि संस्कृति व विरासत को युवा भी जान सकंे तथा संस्कृति का हस्तांतरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हो सके।
प्रो. मनोज डोगरा
लेखक हमीरपुर से हैं