ममता-शरद पवार बनाम सोनिया
ममता बनर्जी अपनी राजनीति का दायरा बढ़ाना चाहती हैं
ममता बनर्जी अपनी राजनीति का दायरा बढ़ाना चाहती हैं। वे स्वयं को क्षेत्रीय दल के बंधन से निकाल कर अखिल भारतीय स्तर पर स्थापित करना चाहती हैं। वैसे भी ममता बनर्जी का स्वभाव और उनकी दृष्टि अखिल भारतीय ही रही है। वे संकुचित क्षेत्रीयता से मुक्त रही हैं। लेकिन तृणमूल के साथ वे अखिल भारतीय राजनीति नहीं कर सकतीं। यही स्थिति शरद पवार की है। परिस्थितियों ने उन्हें नेशनल कांग्रेस पार्टी के नाम से स्वयं को महाराष्ट्र की राजनीति में बंधे रहने के लिए विवश कर दिया है। दृष्टि उनकी भी अखिल भारतीय रही है। ममता और पवार दोनों का मूल कांग्रेस ही है। ममता ने 1997 में और पवार ने 1999 में कांग्रेस को अलविदा कह दी थी। उसका मूल कारण कांग्रेस की राजनीति में ही ढूंढना पड़ेगा।
दरअसल ज्यों-ज्यों सोनिया परिवार का कांग्रेस पर शिकंजा कसता गया, त्यों-त्यों पार्टी की दृष्टि, स्वभाव और राजनीति अखिल भारतीय न रह कर परिवार के हितों तक ही सीमित होने लगी थी। इससे कांग्रेस के भीतर ही छटपटाहट बढ़ने लगी। बहुत से कांग्रेसी क्षत्रपों को भी लगने लगा कि कांग्रेस अब देश के हितों का ध्यान न रख कर केवल सोनिया परिवार के हितों की रक्षा करने वाला एक दबाव समूह बनता जा रहा है। इसी के परिणामस्वरूप कांग्रेस से दूर होने की प्रक्रिया शुरू हुई। उधर सोनिया परिवार और भी तेज़ी से कांग्रेस को अपने परिवार के हितों की रक्षा के लिए कवच की तरह इस्तेमाल करने लगा। स्थितियां यहां तक पहुंच गईं कि सोनिया गांधी भारत की प्रधानमंत्री भी बन सकती हैं, यह ख़तरा भी स्पष्ट दिखाई देने लगा था। उस समय शरद पवार ने मेघालय के पूर्ण संगमा को लेकर मोर्चा खोला था कि वे सोनिया गांधी को भारत का प्रधानमंत्री नहीं बनने देंगे। ख़ैर अनेकानेक कारणों से सोनिया परिवार प्रधानमंत्री के पद पर तो क़ब्ज़ा नहीं कर सका, लेकिन कम्युनिस्टों की रणनीति के चलते सोनिया गांधी के नेतृत्व में अनेक राजनीतिक दलों का एक मोर्चा यूपीए के नाम से जरूर गठित हो गया, जिसके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बने। उस समय कुछ काल के लिए ममता बनर्जी और शरद पवार भी अपने-अपने तात्कालिक राजनीतिक हितों के लिए यूपीए में रहे। लेकिन जब यह स्पष्ट होने लगा कि मनमोहन सिंह तो नाम के प्रधानमंत्री हैं और भारत की सत्ता पर परोक्ष रूप से नियंत्रण सोनिया परिवार का ही हो गया था तो यूपीए के घटकों में भी बेचैनी बढ़नी ही थी। कुछ घटक दल उससे छिटक भी गए।
सोनिया परिवार द्वारा परोक्ष रूप से सत्ता संभाल लेने और उसकी गतिविधियों से आम भारतीयों में भी बेचैनी बढ़ने लगी। हद तो तब हो गई जब यूपीए सरकार ने उच्चतम न्यायालय में शपथ पत्र दाखिल कर दिया कि राम एक काल्पनिक व्यक्ति थे, असल में उनका कोई अस्तित्व नहीं है। तब यह स्पष्ट होने लगा था कि सोनिया परिवार अपने आर्थिक और राजनीतिक हितों के लिए ही भारत की सत्ता का इस्तेमाल नहीं कर रहा है, बल्कि वह भारत के सांस्कृतिक प्रतीकों को भी नष्ट करना चाहता है। सोनिया परिवार के इर्द-गिर्द जिन लोगों का घेरा था, उससे यह शक और भी गहराने लगा था। उसका परिणाम 2014 के लोकसभा चुनाव में स्पष्ट दिखाई देने लगा था। सोनिया परिवार के नेतृत्व में कांग्रेस पूरे देश में केवल 44 सीटें जीत सकी। उस समय कांग्रेस से छिटक कर गए लोगों मसलन ममता बनर्जी, शरद पवार इत्यादि को लगता होगा कि अब सोनिया परिवार स्वयं ही कांग्रेस पर से अपना शिकंजा ढीला कर देगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसके विपरीत सोनिया परिवार ने कांग्रेस पर अपना शिकंजा और कसना शुरू कर दिया। इससे दो प्रकार की प्रतिक्रिया हुई। जो लोग सचमुच कांग्रेस की विचारधारा से जुड़े हुए हैं, उन्होंने पार्टी के भीतर ही जी-23 के नाम से एक समूह बना कर सोनिया परिवार पर दबाव डालना शुरू किया कि वह पार्टी पर से अपनी गेंडुली समाप्त कर पार्टी को एक बार पुनः जि़ंदा होने का अवसर प्रदान करे। लेकिन सोनिया परिवार ने अपनी गेंडुली ढीली करने के बजाय उसे और कसना शुरू कर दिया। कांग्रेस में बहुत से लोग ऐसे हैं जो सोनिया परिवार के सामने केवल इसलिए नतमस्तक होते थे क्योंकि इस परिवार के पास आम कांग्रेसी को जिता कर विधानसभा या लोकसभा पहुंचाने की क्षमता थी। उन्होंने जब देखा कि इस परिवार के पास अब वह जादुई क्षमता नहीं रही, भारत के लोगों ने इस परिवार से वह क्षमता छीन ली है, तो भाग कर अन्य दलों में शामिल होने लगे। लेकिन बहुत से कांग्रेसी ऐसे हैं जो सचमुच विचारधारा के कारण कांग्रेस के भीतर हैं। यह विचारधारा कितनी प्रासंगिक है और कितनी नहीं, यह विवाद का विषय हो सकता है। ऐसे कांग्रेसी अपनी वैचारिक आस्था के कारण पार्टी छोड़ कर दूसरे राजनीतिक दलों में भी नहीं जा सकते हैं।
लेकिन सोनिया परिवार के व्यक्तिगत हितों के लिए संपूर्ण पार्टी के दुरुपयोग को देखते हुए, उनके लिए पार्टी के भीतर रहना भी कठिन होता जा रहा था। ममता बनर्जी ने इस प्रकार के कांग्रेस जनों के लिए अपना दरवाजा यह कह कर खोल दिया है कि तृणमूल कांग्रेस ही वास्तव में कांग्रेस की विरासत की उत्तराधिकारी है। यह सचमुच नया प्रयोग है। सोनिया परिवार की मुख्य चिंता यह है कि बहुत से कांग्रेस जनों ने ममता बनर्जी की इस व्याख्या को स्वीकार भी कर लिया है और पिछले कुछ अरसे से अनेक प्रमुख कांग्रेसी तृणमूल में शामिल भी होना शुरू हो गए हैं। और अब ममता बनर्जी ने शरद पवार को भी अपने इस अभियान से जोड़ लिया है। इन प्रयासों से कांग्रेसी विरासत कितना जि़ंदा होती है, इसका उत्तर तो भविष्य ही देगा, लेकिन सोनिया परिवार का राजनीतिक अस्तित्व संकट में पड़ सकता है, इसमें कोई संशय नहीं है। ममता बैनर्जी का मानना है कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का अब कोई अस्तित्व नहीं है। भाजपा तथा उसके सहयोगी दलों को हराने की क्षमता भी उसमें शेष नहीं रही है। इसीलिए वे संप्रग की ओर से विपक्षी दलों की बुलाई गई बैठक में भी शामिल नहीं हुईं। इसके विपरीत उनका मत है कि तृणमूल कांग्रेस जैसे क्षेत्रीय दल ही भाजपा नीत एनडीए का मुकाबला कर सकते हैं। वास्तव में ममता अपने आपको विपक्ष की सबसे बड़ी नेता के रूप में स्थापित करने में जुटी हैं। इसमें वे शरद पवार से भी सहयोग ले रही हैं। अब देखना यह है कि ये दोनों नेता क्या एनडीए का मुकाबला कर पाते हैं अथवा नहीं? इस तरह पूरे विपक्ष का एक होना फिलहाल मुश्किल लगता है।
कुलदीप चंद अग्निहोत्री
वरिष्ठ स्तंभकार
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