ममता बनर्जीः अर्श से फर्श तक

राजनीति में नेता के ‘फर्श से अर्श’ तक आने-जाने का कोई समय नहीं होता मगर इसके बावजूद राजनीति ‘विज्ञान’ होती है। हकीकत में ये राजनीतिज्ञों के फैसले होते हैं जो उन्हें अर्श या फर्श पर जगह ‘अता’ फरमाते हैं।

Update: 2022-08-08 03:09 GMT

आदित्य चोपड़ा: राजनीति में नेता के 'फर्श से अर्श' तक आने-जाने का कोई समय नहीं होता मगर इसके बावजूद राजनीति 'विज्ञान' होती है। हकीकत में ये राजनीतिज्ञों के फैसले होते हैं जो उन्हें अर्श या फर्श पर जगह 'अता' फरमाते हैं। स्वतन्त्र भारत की राजनीति में अभी तक इसका सबसे बड़ा उदाहरण स्व. इन्दिरा गांधी रही हैं। राजनीतिज्ञ और राजनेता (स्टेट्समैन) में सबसे बड़ा अन्तर यह भी होता है कि राजनेता की जगह आने वाली सदियों तक अर्श (आसमान की बुलन्दी) पर ही रहती है जबकि राजनीतिज्ञ की जगह अदलती-बदलती रहती है। राजनीतिज्ञ सफल या असफल होता रहता है परन्तु राजनेता कभी असफल नहीं रहता। ऐसा ही ताजा उदाहरण प. बंगाल की मुख्यमन्त्री सुश्री ममता बनर्जी का माना जा सकता है। ममता दी सड़क से संघर्ष करते हुए सफल राजनीतिज्ञ बनीं और बुलन्दी तक पहुंची मगर उनके एक फैसले ने उन्हें फर्श पर लाकर पटक दिया। 1984 से कांग्रेस पार्टी से अपने राजनीतिक जीवन की सफल शुरूआत करके उन्होंने अभी तक सफलता-असफलता का स्वाद चखते हुए प. बंगाल की राजनीति में अपनी जगह एक बार 'अर्श' पर बनायी मगर वह वहां टिक नहीं सकीं। इसकी सबसे बड़ी वजह उनकी स्वकेन्द्रित आत्म प्रशंसा की अपनी परिवार मूलक राजनीति है। सफल राजनीतिज्ञ प्रायः 'अपने मुंह मिया मिट्ठू' बनने से बचते हैं और यह कार्य अपने प्रतियोगियों से ही कराना पसन्द करते हैं। ये प्रतियोगी जरूरी नहीं कि विरोधी दलों में ही हों, उनके अपने दल में भी हो सकते हैं। दूसरी सबसे बड़ी बात सफल राजनीतिज्ञों की यह होती है कि वे अपनी रणनीति का खुलासा अपने निकटतम सहयोगी से भी करना पसन्द नहीं करते हैं। वे समय की गतिविधियों के चक्र को समझ कर ऐसा गणित बैठाते हैं कि हर गुत्थी का हल उनके पास ही हो। मगर ममता दी ने उपराष्ट्रपति चुनाव के दौरान जिस फूहड़ और चौराहा छाप राजनीति का प्रदर्शन किया उससे उनकी पूरी साख एक स्वार्थी व सत्ता की लालची राजनीतिज्ञ की बन गई। उनका व्यक्तित्व रातों-रात ही 'पहाड़' से 'राई' में तब्दील हो गया। वह 'जुझारू' से 'मौकापरस्त' बन गईं। इस घटना से उनके हाथ में रखे हुए पात्र का गुण ही विपरीत दिशा में चला गया। इससे पूर्व विपक्षी एकता के मुद्दे पर उन्होंने जिस तरह कसरत करते हुए कांग्रेस व अन्य विपक्षी दलों को 'टंगड़ी' मारी थी उससे उनकी छवि सब कुछ अपने ही मुंह में भर लेने वाले ऐसे स्वार्थी नेता की उभरी थी जिसे अपनी 'परछाई' में ही पूरी धरती नजर आती हो। वह पूरे भारत में फैले विभिन्न विपक्षी दलों की एकछत्र नेता सिर्फ इसलिए बनना चाहती थीं कि उन्होंने पिछले विधानसभा चुनावों में केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा को परास्त किया था। मगर वह भूल गई थीं कि इन चुनावों में वह स्वयं अपना चुनाव नन्दीग्राम विधानसभा सीट से मुख्यमन्त्री रहते हुए ही हार गई थीं। इसके साथ उन्हें यह भी ध्यान रखना चाहिए था कि इससे पहले 2016 के विधानसभा चुनावों में प. बंगाल विधानसभा में भाजपा की सिर्फ दो सीटें थीं जो पिछले चुनावों में बढ़ कर 77 हो गई थीं जबकि कांग्रेस (शून्य) समेत अन्य सभी वामपंथी विपक्षी दलों की सीटे नाम मात्र की ही रह गई थीं। यदि हम इसका गहराई से विश्लेषण करें तो निश्चित रूप से चौकाने वाले नतीजों पर पहुंचेंगे। मगर ममता दी जानती हैं कि उनकी पहचान प. बंगाल से बाहर केवल उन्ही राज्यों में है जहां बांग्लाभाषी लोग रहते हैं। इसका सीधा मतलब यही निकलता है कि उन्हें भारत के लोग देश के प्रधानमन्त्री के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते और वह कांग्रेस की जगह किसी कीमत पर नहीं ले सकतीं क्योंकि कांग्रेस अपने इस पतन के दौर में भी अखिल भारतीय पार्टी है और अपनी नेहरू-गांधी की विरासत की वजह से उसका अस्तित्व भारत के हर राज्य में है।वैचारिक व सैद्धान्तिक आधार पर भाजपा के मुकाबले पर राष्ट्रीय स्तर पर खड़े होने में केवल वही क्षमतावान है। अतः यह सुझाव देना कि किसी क्षेत्रीय दल के नेतृत्व में बनने वाले किसी भी राष्ट्रीय मोर्चे में कांग्रेस को दूसरे पायदान पर रखा जा सकता है लड़ाई से पहले ही मैदान छोड़ने का फार्मूला है। यह किसी पार्टी के पक्ष या विरोध का सवाल नहीं है बल्कि राजनैतिक आवश्यकता औऱ मजबूरी दोनों हैं। ममता दी ने खुद प्रधानमन्त्री प्रत्याशी बनने के लालच में भारतीय लोकतन्त्र में मजबूत विपक्ष की संभावनाओं को उभरने से पहले ही समाप्त कर दिया और उपराष्ट्रपति चुनावों में अपनी रणनीति को फूहड़ तरीके से साफ भी कर दिया। दूसरी तरफ उनकी ही सरकार भ्रष्टाचार की दल-दल में गले-गले फंस गई। उनके सबसे निकटतम मन्त्री रहे पार्थ चटर्जी जिस शिक्षक महाघोटाले में फंसे हैं उससे प. बंगाल की युवा पीढ़ी ही सबसे ज्यादा ममता दी की आलोचक बन कर मुखर हो रही है। अब वह दिन दूर कैसे समझा जा सकता है जब उनकी पार्टी के भीतर ही उनके खिलाफ विद्रोह के स्वर मुखर नहीं होंगे ? ममता दी ने अपनी पार्टी का वारिस अपने ही भतीजे को जिस तरह राजकुमार के तौर पर बना रखा है क्या वह प. बंगाल की राजनीतिक संस्कृति हो सकती है? कृपया मुझे एक भी बंगाली नेता का नाम बताया जाये जिसने कभी अपने पुत्र या पुत्री अथवा निकट सम्बन्धी को अपने जीते जी अपना वारिस बनाया हो। मगर ममता दी तो आसमान में भी एक और बुलन्दी पर अपना आशियाना बनाने चली थीं।  

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