जीवनशैली सरल बनाना ही है समाधान; देश की आबोहवा अंतरराष्ट्रीय बैठकों से बेहतर नहीं होने वाली

देश की आबोहवा अंतरराष्ट्रीय बैठकों से बेहतर नहीं होने वाली

Update: 2022-01-21 12:11 GMT

डाॅ. अनिल प्रकाश जोशी। अब पर्यावरण में सबसे ज्यादा घातक श्रेणी में हवा का ही सबसे बड़ा योगदान दिखाई देता है। जिस तरह से परिस्थितियां बदलती जा रही हैं, मानकर चलिए कि यह थमने वाला नहीं है। क्योंकि दुनिया भर में आज डेढ़ अरब से ज्यादा गाड़ियां सड़कों पर उतर चुकी हैं। आश्चर्य की बात है कि दुनिया भर में आज के प्रदूषण में 24 से 30% सिर्फ वाहनों की ही देन है। और ऐसा भी माना जा रहा है कि गाड़ियों में भी कार व बसें 45 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन का कारण बन चुकी हैं।

ऐसे में आने वाले समय में नियत्रंण के अभाव में गाड़ियां ही सबसे बड़ा गड्ढा खोद देंगी। मतलब इसके चपेटे में प्राण वायु ही प्राण लेने को उतारू हो जाएगी। यह सब हमारी जीवन शैली का हिस्सा बन चुका है। हम बेहतर जीवन जीने की परिभाषाएं बदल चुके हैं। ढेर सारी विलासिताएं, सजावट, वेश-भूषा, भोजन को ही प्रतिष्ठा मान चुके हैं। इसका ही सीधा व घातक प्रभाव प्रकृति पर पड़ रहा है। अब देखिए कि लगातार पिछले तीन दशकों में बढ़ते प्रदूषण या तमाम प्रकृति से जुड़ी घटनाओं ने हमें विचलित नहीं किया।
उसका बड़ा कारण यह भी है कि समाज आज के लिए जीना चाहता है। उसने अतीत से न कोई सबक लिया जाना है और ना ही आने वाले समय की बड़ी चिंता करनी है। इस तरह का समाज अपने लिए किसी भी तरह का मजबूत मार्ग प्रशस्त नहीं कर सकता। पर नैतिकता शायद यही सिखाती है कि हम आने वाली पीढ़ी को क्या देने जा रहे हैं। ये भी नहीं समझना चाहते कि वो हमारा ही हिस्सा होंगे। हम किस तरह की बीमार व असहाय पीढ़ी की तैयारी में लगे हैं।
संसाधनों के अभाव में उनके लिए एक नए युद्ध की तैयारी हमारे बीच में गढ़ी जा रही है। हमारा आज का व्यवहार दुनिया को आने वाले समय में अस्त- व्यस्त कर देगा। ग्लास्गो कोप-26 की बैठक को लेकर हमने अपने आप को बड़ा महफूज-सा कर लिया है कि 2070 तक ही हम कार्बन उत्सर्जन को कम कर पाएंगे। देश और दुनिया ने 2050 के वर्ष को आगे खिसका दिया। चीन और अमेरिका ने भी ये ही दोहराया है। ऐसी बैठकों में खींचातानी, एक दूसरे पर आक्षेप या अपने को सहज बनाए रखने के लिए ही बहस की दिशा बदल दी जाती है।
आज जब ये हालात हो चुके तो 2070 किसने देखा। सवाल यह भी पैदा होता है कि अपने देश की हवा, जंगल, मिट्टी पानी का भला क्या अंतराष्ट्रीय बैठकों से बेहतर होगा? इस प्रश्न का उत्तर शायद हमारे बीच में ही है। ग्लास्गो में हिस्सा लेने वाले करीब 100 देश ऐसे थे जिनके पास दुनिया के 80% वनों की पकड़ है। ब्रिटेन ने इस पर लीड लेते हुए यह कहने की कोशिश की है कि हमें आने समय में अगर क्लाइमेट चेंज पर गंभीर होना है तो अपने वनों के संरक्षण को लेकर पहल करनी होगी।
पर यह मात्र कारगर कदम इसलिए नहीं माना जा सकता, क्योंकि जिस गति से हिमखंड गायब हो रहे हैं और लगातार आने वाले त्रासदियांं जिस तरह से हमें घेर रही हैं, ये समाधान अब चमत्कार नहीं ला सकता। अगर कहीं पर कुछ बचाना है तो अपनी जीवनशैली को सरल बनाना होगा। ऊर्जा के अंधाधुंध उपयोगों पर अंकुश लगाना होगा। ये सबसे बड़ा कदम सिद्ध होगा हम आत्म मंथन करते हुए यह पहल करें कि किस तरह से अपनी जीवनशैली को प्रकृति के अनुरूप ढाल सकते हैं।
इससे एक बेहतर जीवन तो जिएंगे ही, साथ में आने वाले पीढ़ी के लिए सुरक्षित पारिस्थितिकी पर्यावरण भी तय कर सकेंगे। कोविड-19 की घटना ने हमें बहुत कुछ सिखाया है लेकिन शायद आज भी हमने कुछ नहीं सीखा। इसका बड़ा कारण यह भी है कि हमारी प्रवृत्ति तत्काल किसी भी बड़ी त्रासदी भूलने की है। चलिए वैक्सीन ने हमें कुछ हद तक बचाया जरूर लेकिन, एक बात तो तय है कि यदि हम सुधरे नहीं तो ये समझ लें कि कोविड जैसे राक्षस लगातार जन्म लेते रहेंगे।
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