महाराष्ट्र पटकथा के शेष प्रश्न
भारतीय राजनीति के इतिहास में उद्धव ठाकरे के इस अवसान को अलग अंदाज में याद किया जाएगा
शशि शेखर
भारतीय राजनीति के इतिहास में उद्धव ठाकरे के इस अवसान को अलग अंदाज में याद किया जाएगा। भला कौन सोच सकता था कि उद्धव को उन्हीं के अलंबरदार उनके पिता बाला साहब ठाकरे के नाम पर छोड़ देंगे? सवाल उठता है, आखिर कोई मुख्यमंत्री इतना गाफिल कैसे हो सकता है कि सिपहसालार उसके पांव के नीचे बिछा कालीन खींच रहे थे और उसे भनक तक न थी!
मामला महज व्यक्तिगत वफादारी का नहीं है। बाला साहब ठाकरे के साये में पले-पनपे शिव सैनिक मौजूदा परिस्थितियों से समझौता नहीं कर पा रहे थे। जिस तरह दो मंत्रियों को ईडी ने गिरफ्तार किया और तमाम विधायकों-मंत्रियों पर केंद्रीय एजेंसियों की नजर थी, वह उनमें कंपकंपी पैदा करने के लिए काफी था। उद्धव चाहते, तो ममता बनर्जी की तरह न केवल अपने लोगों को जोडे़ रख सकते थे, बल्कि टूटकर दूसरे खेमे में गए अपने पुराने साथियों को भी लौटाकर अपने साथ लाने में कामयाबी हासिल कर सकते थे। कुछ साथियों की करनी, कुछ बिगड़ी सेहत और कुछ नरम स्वभाव के चलते वह ऐसा न कर सके। उनके कार्यकर्ता मन मसोसते हुए बाला साहब ठाकरे को याद करते थे। वे विपरीत परिस्थितियों में अपना और अपने कार्यकर्ताओं का मनोबल बनाए रखना जानते थे। इसके साथ सरकार पर शरद पवार का हद से ज्यादा नियंत्रण भी शिव सैनिकों को नागवार गुजर रहा था। उन्हें लगता था कि जिस उग्र शैली की राजनीति के लिए वे विख्यात थे, उसे यह समझौतावादी रवैया लील रहा है।
एकनाथ शिंदे और उनके साथ जा खडे़ हुए तमाम बागी ऐसे हैं, जिन्हें अपना भविष्य दो वजहों से अंधकारमय नजर आता था। पहली थी, उद्धव की लचर सियासी और प्रशासनिक शैली। दूसरी, परिवारवाद। शिंदे तो 2019 में भी खुद को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार माने बैठे थे। शिवसेना को 1995 में जब पहली बार सरकार बनाने का मौका मिला था, तब बाला साहब ठाकरे ने फैसला किया था कि मैं मुख्यमंत्री नहीं बनूंगा। उन्होंने खुद को पार्टी का सुप्रीमो और नियामक बनाए रखते हुए मनोहर जोशी को मुख्यमंत्री बनाया था। जोशी के बाद यह अवसर नारायण राणे को दिया गया। एकनाथ शिंदे खुद को इस सिलसिले की अगली कड़ी समझ रहे थे, पर उनका सपना टूट गया।
जब उद्धव ठाकरे ने खुद मुख्यमंत्री बनने का फैसला किया, तब इसे शिवसेना का आमूल-चूल 'शिफ्ट' माना गया था। सयानों ने तभी कहा था कि उद्धव ने गलत निर्णय किया है। एनसीपी और कांग्रेस की बैसाखी पर खडे़ सियासी सूरमा बाला साहब की शैली में कैसे काम कर सकते थे? यही नहीं, जब भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें पिछले विधानसभा चुनाव के बाद से धकियाना शुरू किया, तभी खुसफुसाहट शुरू हो गई थी कि उद्धव में भाजपा से लोहा लेने का साहस नहीं। 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान भी उन्हें सलाह दी गई थी कि वह अपने दम पर चुनाव लड़ें, पर 'मातोश्री' की मंडली यह कठोर फैसला न कर सकी। उसके बाद होने वाला विधानसभा चुनाव भी वह भाजपा के साथ लडे़। नतीजे चौंकाने वाले रहे। भाजपा को 105, तो उन्हें सिर्फ 56 सीटें मिलीं।
स्पष्ट था, शिवसेना अब 'भाऊ' की भूमिका में नहीं रह गई है।
उस समय भाजपा से अलग होते वक्त अगर उद्धव ठाकरे ने शिंदे या किसी अन्य शिव सैनिक को मुख्यमंत्री बना दिया होता, तो शायद यह पहाड़ उन पर न टूटता। वह शरद पवार से नियंत्रित होने के बजाय खुद नियंता होते। अब उनकी पार्टी, पद और प्रतिष्ठा संकट में है।
नाराज शिवसेना अब कानून, कागज और सड़क की लड़ाई का दम भर रही है। उसके प्रखर नेता संजय राउत विधायकों को धमकाने के अंदाज में कह रहे हैं कि आपको आना तो मुंबई ही पडे़गा। वह कह रहे हैं कि अगर आग लगी, तो उसे बुझाना मुश्किल पड़ जाएगा। यह महानगर सेना का गढ़ रहा है और माना जाता है कि नेता कुछ भी करें, पर कार्यकर्ता मातोश्री के साथ हैं। उद्धव की कोशिश भी यही है कि पद भले ही गंवाना पड़े, पर पार्टी से प्रभुत्व नहीं खत्म होना चाहिए। शिंदे और उनके साथी क्या बिना तैयारी के यह रार मोल ले बैठे हैं? बाला साहब के नाम पर नई शिवसेना के गठन की उनकी घोषणा को शिव सैनिकों ने तमाम विधायकों के यहां तोड़फोड़ करके चुनौती दे दी है।
तय है, महाराष्ट्र की राजनीति की पटकथा के कुछ पन्ने पलटे जाने शेष हैं।
इधर कुछ सालों से सभी परिवारवादी पार्टियों का ऐसा ही हश्र सामने आ रहा है। इसकी वजह स्पष्ट है। शिंदे और उनके सहयोगियों के मन में यह दर्द जरूर रहा होगा कि बाला साहब की विरासत उद्धव ने हथिया ली और आगे इस पर आदित्य का हक होगा। ऐसे में, हम कहां जाएंगे? संयोग देखिए। महाविकास अघाड़ी में शामिल तीनों दल परिवारों द्वारा ही संचालित होते हैं। एनसीपी के अगुआ शरद पवार हैं, पर उनके घर से भी बरतनों के खड़कने की आवाज आती रही। अब बची कांग्रेस, तो उसके बारे में भी हम सब जानते हैं।
क्या परिवारों द्वारा संचालित होने वाले दलों की दोपहर ढल रही है?
इस सवाल के जवाब के लिए हमें गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों का इंतजार करना होगा। वहां भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की सीधी टक्कर है, पर आम आदमी पार्टी भी पूरी तरह जी-जान लगाए हुए है। झाड़ू के निशान वाले इस दल ने पंजाब में जिस तरह कांग्रेस और अकाली दल पर झाड़ू लगाई, उसके बाद बहुत से लोग अरविंद केजरीवाल को लेकर भी मनसूबे बनाने लगे हैं। यदि केजरीवाल गुजरात और हिमाचल में कुछ सीटें ले जाते हैं, तो राष्ट्रीय पटल पर उभरने की उनकी आकांक्षाएं आकार लेने लगेंगी।
पिछले दस वर्षों में भारतीय राजनीति ने बड़ी तेजी से अपना चोला बदला है। अब उन्हीं दलों के साथ लोग खड़े होते हैं, जिनका नेता मजबूती से संघर्ष या काम करता हुआ दिखाई दे। तमिलनाडु में स्टालिन संघर्षरत थे। बिहार में तेजस्वी यादव ने बेहतरीन सियासी लड़ाई लड़ी। स्टालिन को सत्ता हासिल हुई और तेजस्वी कुछ सीटों से चूककर भी बिहार में मजबूत नेता के तौर पर उभरे हैं। इसके विपरीत कर्नाटक में जनता दल (सेक्युलर) के एच डी कुमारस्वामी सत्ता पाने के बावजूद ढलान पर जा खड़े हुए। तब से अब तक जनता दल (एस) को कर्नाटक में लगातार गिरावट का सामना करना पड़ा है। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव भी अपना रुतबा कायम रखने में कामयाब नहीं रहे हैं। उनकी पार्टी के तमाम दिग्गज अलग-अलग मंचों से ऐसी बातें कहते हैं, जो उन्हें कमजोर करती हैं। भारतीय जनता पार्टी ने भी कुछ महीने पहले हुए विधानसभा चुनाव में पांच में से चार राज्य जीतकर दो संदेश दिए, राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर उसके पास नरेंद्र मोदी जैसा प्रखर नेता और जबरदस्त संगठन है। इसके अलावा, भाजपा के मुख्यमंत्री लगातार काम करते दिखाई पड़ते हैं।
महाराष्ट्र का राजनीतिक ऊंट आज नहीं तो कल किसी न किसी करवट बैठ जाएगा, पर सियासी फिजां में एक और सवाल तैर रहा है, कहीं अगला नंबर झारखंड का तो नहीं? द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी का एक परोक्ष संदेश यह भी है।