लखनऊ : 'रिंग थियेटर' में गूंजती हैं शहीदों की सदाएं, यहां प्रतिबंधित था भारतीयों का जाना
पुराने ‘रिंग थियेटर’ में ऐसी सदाएं आज भी गूंजती हैं, पर उन्हें कोई सुनता नहीं।
लखनऊ का जीपीओ किसी जमाने में मशहूर 'रिंग थियेटर' था। आजादी से पहले इस योरोपियन क्लब में ब्रिटिश अधिकारियों के रंगारंग कार्यक्रम होते थे। उनके लिए यह बहुत सुरक्षित जगह थी, जहां भारतीयों का जाना प्रतिबंधित था। नौ अगस्त, 1925 को उत्तर भारत के क्रांतिकारियों पर काकोरी के निकट सरकारी खजाने की लूट के बाद मुकदमा चलाने के लिए ब्रिटिशों को अदालत की जगह 'रिंग थिएटर' की यह जगह ज्यादा मुफीद लगी और सरकार ने इसे महंगे किराए पर लिया।
काकोरी केस की संपूर्ण कार्यवाही का साक्षी यह परिसर हमें आज भी उन दृश्यों की याद दिलाता है, जब 18 महीने तक चली अदालती कार्यवाही के बाद इस मामले का पटाक्षेप हुआ था। यह पुराना 'रिंग थियेटर' अब प्रधान डाकघर है, जहां उस क्रांतिकारी चेतना का कोई भी निशान शेष नहीं है, जिसे 1921 के असहयोग आंदोलन के बाद देश के जांबाजों की टोली ने अपने बलिदान से इतिहास के सीने पर टांक दिया था।
इस इमारत से सटे सामने के पार्क में 1977 में काकोरी के शहीदों की अर्धशती पर एक स्तंभ बना दिया गया, जिस पर चंद पंक्तियां उस ऐतिहासिक घटनाक्रम की दर्ज हैं। मेरी आंखों में काकोरी अभियुक्तों की लारी बार-बार इस परिसर में आकर रुकती है, जिसमें से वे अपने मजबूत कदमों से उतरते हुए बुलंद आवाज में नारे लगाकर अदालत के भीतर प्रवेश करते हैं और वहां भी उनका जोश थमता नहीं।
'रिंग थियेटर' के भीतर एक ओर ऊंची फीस पाने वाले सरकारी वकील पंडित जगतनारायण मुल्ला खड़े हैं, तो दूसरी तरफ क्रांतिकारियों की ओर से पैरवी करने वाले बैरिस्टर बी. के. चौधरी, मोहनलाल सक्सेना, कृपाशंकर हजेला और चंद्रभानु गुप्त जैसे युवा वकीलों की टोली। अशफाकउल्ला खां ने 500 रुपये रोज पाने वाले सरकार के वकील जगतनारायण पर उसी समय एक तंज भरा शेर पढ़ा, चलो-चलो यारो, रिंग थिएटर दिखाएं तुमको वहां पे लिबरल, जो चंद टुकड़ों पे सीमोजर (सोने-चांदी के टुकड़े) के नया तमाशा दिखा रहे हैं।
यह शेर उनकी लंबी गजल का हिस्सा है, जिसे मजिस्ट्रेट ऐनुद्दीन की अदालत में उन्होंने सुनाई थी। उनका बहुत साहसिक कारनामा था यह। हिंदी और उर्दू कविता की आलोचना ने अशफाक के इस कृतित्व की ओर कभी नहीं देखा। रामप्रसाद बिस्मिल के पीछे जब सब आत्माएं वंदेमातरम गाती चलती थीं, उस दृश्य में एक अलौकिक छटा थी, जिसका वर्णन करने के लिए तुलसीदास के शब्दों में यही कहना पड़ता है कि गिरा अनयन, नयन बिनु बानी।
धन्य हैं वे आंखें, जिन्होंने जी-भरके उनकी मस्तानी अदा को निरखा। उनके मोटर से उतरते ही भारत माता की जय, भारतीय प्रजातंत्र की जय आदि के उद्घोष से वायुमंडल पवित्र हो जाता था। उनको देखने और मधुर गीत सुनने के लिए हजारों की भीड़ इकट्ठी होती थी। अधिकारियों के हृदय इस नाद को सुनकर दहल उठते थे। यहां कोई प्रेस रिपोर्टर ठीक-ठाक नहीं दीख पड़ता था। यदि कभी कोई अच्छा रिपोर्टर आ भी गया, तो पुलिस के मारे बिचारे की आफत थी।
हां, इंडियन डेली टेलीग्राफ ने कुछ मनोयोग के साथ इस ओर काम किया। शाम को जब इन लोगों की मोटर-लारी निकलती, तो सड़क के दोनों ओर जनता काफी तादाद में गाना सुनने को खड़ी रहती थी। उनके गानों का वहां इतना आदर हुआ कि एक पैसे से लेकर दो-दो आने में उनके एक-एक गाने की प्रति बिकती दीख पड़ती थी। और फिर छह अप्रैल, 1927 का वह लम्हा आ गया, जब मुकदमे का फैसला होने वाला था।
एक दिन पहले क्रांतिकारियों ने लखनऊ जेल की 11 नंबर बैरक में सामूहिक भोज के साथ अपनी सजाओं पर एक नाटक भी खेला था। कैसा अनोखा मंजर जब मृत्यु और सजाएं कुछ कदम की दूरी पर थीं, लेकिन विप्लवी उसे धता बताकर हंसी-ठिठोली का खेल खेलने में संलिप्त थे। अगले रोज सब क्रांतिकारी बहुत सवेरे जग गए। सबने कसरत की और स्नान किया। फिर विचार आया कि आज सब एक साथ खाना खाएं।
जेलर रायबहादुर चंपालाल के यहां से एक बड़ी थाली मंगवाई गई और उसके चारों ओर सभी बैठ गए। कुछ खड़े भी रहे। आनुष्ठानिक तरीके से थाली में से एक-एक, दो-दो कौर खाए और हंसते हुए वे उठ खड़े हुए। आज उन्होंने अच्छे कपड़े पहने थे। ठाकुर रोशनसिंह ने आगे बढ़कर इत्र की एक शीशी निकाली और सभी के वस्त्रों पर थोड़ा-थोड़ा लगाया। इसके बाद बेड़ियां पहनाई जाने लगीं। क्रांतिकारी रोज की भांति पहरे के बीच अदालत रवाना हुए।
लारी चलते ही क्रांतिकारी गीतों का समां बंध गया, पर आज मन की हिलोरों ने गानों में अजीब लय भर दी थी। काजी नजरुल इस्लाम का वह गाना भी गाया गया, जिसकी पंक्तियां थीं, शाकल परा छल मोदेर ऐ शाकल परा छल। यानी हमारा बेड़ियां पहनना छल मात्र है, ये बेड़ियां छल मात्र हैं। इसके बाद उन्होंने भीड़ के बीच देशभक्ति से भरे गगनभेदी नारे लगाए। 'रिंग थियेटर' में आज सवेरे से बहुत भीड़ थी। पुलिस के अलावा अनेक योरोपियन सार्जेंट पूरी सतर्कता से चहलकदमी कर रहे थे।
सब ओर हलचल थी। जज के अदालत में आते ही एकबारगी सन्नाटा छा गया। उसने जो फैसला सुनाया, उसमें बिस्मिल, अशफाकउल्ला, रोशन सिंह और राजेंद्र लाहिड़ी को फांसी तथा अन्य क्रांतिकारियों को लंबी सजाएं दी गईं। सभी ने आगे बढ़कर बिस्मिल, राजेंद्र बाबू और रोशन सिंह के चरण स्पर्श किए। जोशीले नारों के साथ बिस्मिल ने आगे बढ़कर गाया, हैफ जिस पे हम तैयार थे, मर जाने को, दूर तक यादे-वतन आई थी समझाने को। पुराने 'रिंग थियेटर' में ऐसी सदाएं आज भी गूंजती हैं, पर उन्हें कोई सुनता नहीं।
सोर्स: अमर उजाला