पेट्रोल-डीजल के कम दाम

केन्द्र सरकार ने पेट्रोल व डीजल तथा ईंधन गैस की कीमतों में कमी करके जिस तरह आम जनता को राहत देने की कोशिश की है उसका बिना किसी राजनीति के स्वागत किया जाना चाहिए और इसके प्रभाव से सकल महंगाई पर पड़ने वाले प्रभाव का विश्लेषण किया जाना चाहिए ।

Update: 2022-05-23 03:29 GMT

आदित्य चोपड़ा: केन्द्र सरकार ने पेट्रोल व डीजल तथा ईंधन गैस की कीमतों में कमी करके जिस तरह आम जनता को राहत देने की कोशिश की है उसका बिना किसी राजनीति के स्वागत किया जाना चाहिए और इसके प्रभाव से सकल महंगाई पर पड़ने वाले प्रभाव का विश्लेषण किया जाना चाहिए । लेकिन इसके साथ यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि कोई भी सरकार जनता को राहत तभी दे सकती है जब उसके खजाने में पर्याप्त धनराशि हो और लोकतन्त्र में यह धनराशि आम जनता से सरकार बहुत ही न्यायप्रिय तरीके से वसूल कर सकती है। परन्तु लोकतन्त्र में सरकार का मूलमन्त्र 'लोक कल्याण' ही होता है जिसका अर्थ समाज के गरीब व वंचित वर्ग के लोगों की आर्थिक सम्पन्नता होता है। यह काम भी सरकार तभी कर सकती है जब समाज के सम्पन्न वर्ग के लोगों से कर रूप में राजस्व वसूल करके सरकार विभिन्न वर्ग के लोगों की आर्थिक मदद करे। परन्तु इसे अर्थव्यवस्था का समाजवादी स्वरूप मान लिया जाता है जिसकी बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत गुंजाइश नाममात्र की रह जाती है। परन्तु सवाल यह है कि यदि सरकार को हम लोकतन्त्र में लोगों की सरकार क्यों कहते हैं तो उसे लोकमूलक नीतियों के सहारे ही प्रशासन की व्यवस्था चलानी चाहिए और यह व्यवस्था मांग करती है कि समाज के बहुसंख्य गरीबों के हितों का ध्यान सबसे पहले किसी भी सरकार को करना चाहिए। इसी वजह से महात्मा गांधी ने आजादी से पहले ही अपने पत्र 'हरिजन' में लिख दिया था कि 'लोकतन्त्र में सरकार तभी सरकार होती है जब वह अपने लोगों की दैनिक जरूरतों की आपूर्ति करने की गारंटी ले। इसमें असफल रहने पर उसे अराजकतावादियों का जमघट ही कहा जायेगा।' यही वजह रही कि स्वतन्त्रता के बाद भारत ने लोक कल्याणकारी सरकार की परिकल्पना को संविधानतः स्वीकार किया समाज के गरीबों को आर्थिक रूप से मदद करना इसका सिद्धान्त पं. जवाहर लाल नेहरू के समय से ही बना। परन्तु नेहरू जी के समय में भारत खेतों की मिट्टी में लथपथ रहते हुए मशीनों की गड़गड़ाहट करता हुआ औद्योगीकरण की तरफ बढ़ रहा था। देश में पेट्रोल- डीजल की खपत नाममात्र की थी। कल्पना कीजिये 1947 में भारत में ट्रेक्टरों की संख्या केवल पांच लाख थी और घरेलू कारें रखने की हिम्मत भी तब देश की कुल आबादी 33 करोड़ में से मात्र आधा प्रतिशत लोगों की ही थी। परन्तु भारत में जो औद्योगीकरण का पहिया नेहरू काल से घूमना शुरू हुआ उसने 1970 तक आते-आते ही भारत में पेट्रोल व डीजल की खपत में कई गुणा वृद्धि कर डाली।कल्पना कीजिये उस समय पेट्रोल के दाम 86 पैसे से एक रुपये 15 पैसे कर दिये जाने पर ही पूरे भारत में त्राहि-त्राहि मच गई थी। जबकि आज मोदी सरकार द्वारा इसके दाम में 9.50 रु की कमी किये जाने की भी विपक्षी पार्टियां आलोचना कर रही हैं। इसका सीधा मतलब निकलता है कि आज भारत में पेट्रोल व डीजल की खपत आसमान छू रही है और इसकी आपूर्ति सरकार को 80 प्रतिशत आयात करके ही करनी पड़ती है। नेहरू व इंदिरा काल में पेट्रोल व डीजल पर सब्सिडी दी जाती थी जिससे इसकी खपत को बढ़ावा मिल सके और अर्थव्यवस्था का आधुनिकीकरण हो सके तथा यह अधिक किफायती बन सके। मगर 1995 के आते-आते बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का दौर शुरू होने पर वित्तीय संशोधनों के बाद देश में दुपहिया से लेकर मोटरकारों के उत्पादन व बिक्री में गजब की तूफानी तेजी आयी जिसकी वजह से 1996 में आज के विपक्षी कांग्रेसी नेता श्री पी. चिदम्बरम् ने ही पहली बार पेट्रोल के दामों को सीधे अन्तर्राष्ट्रीय बाजार से जोड़ने की प्रक्रिया शुरू की। उस समय व केन्द्र की देवगौड़ा व गुजराल सरकार के वित्त मन्त्री थे। इसके बाद धीरे-धीरे डीजल पर भी यह नियम लागू हुआ। पहले कुल आयातित डीजल का 40 प्रतिशत हिस्सा स्वयं सरकार ही खपत करती थी। अतः बाजार मूलक अर्थव्यवस्था ने पेट्रोल-डीजल को सीधे अन्तर्राष्ट्रीय बाजार भावों से जोड़ने की तार्किकता सिद्ध की क्योंकि भारत में अभी साइकिल की जगह मोटर-साइकिल ने ले ली और इसके वित्त पोषण की व्यवस्था बैंकों व वित्तीय संस्थानों ने संभाल ली। लोगों की सम्पन्नता का रास्ता जिस तरह प्रशस्त हुआ उसने बाजार मूलक अर्थव्यवस्था की उपयोगिता स्वयं सिद्ध कर डाली। कल तक विलासिता की चीज समझी जाने वाली मोटर कार या मोटर- साइकिल आज की जरूरत की वस्तु में तबदील हो गई लेकिन इससे सरकार की जिम्मेदारी भी बढ़ गई और इस पर दबाव बनने लगा कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के भाव तेज होने पर वह इस पर लगने वाले उत्पाद शुल्क व आयात शुल्क को घटाये। इस मामले में मोदी सरकार का रिकार्ड गांधीवाद के अनुरूप रहा। इसकी कुछ विद्वान तीखी आलोचना कर सकते हैं मगर हकीकत को नहीं झुठला सकते। कोरोना काल से लेकर उससे पहले से ही गरीब व वंचित लोगों के लिए मोदी सरकार ने जिस प्रकार विभिन्न भोजन, अन्न, स्वास्थ्य व आवास योजनाएं शुरू कीं वे सब कल्याणकारी राज के ही नियामक हैं। मगर इन परियोजनाओं को चलाने के लिए राजस्व की जरूरत होती है जिसकी भरपाई के लिए सरकार ने ऐसे जरिये निकाले जिससे गरीबी की सीमा रेखा से नीचे रहने वाले लोग अलग रहें। जाहिर है कि पेट्रोल-डीजल पर उत्पाद शुल्क लगाना ऐसा ही कदम था। अतः सरकार ने अब इन शुल्कों में कमी करके राहत देने का काम किया है। इससे अर्थव्यवस्था के विविध अंगों पर भी प्रभाव पड़ेगा और बढ़ती महंगाई पर अंकुश लगेगा। माल के परिवहन पर कम खर्च आयेगा खास कर नकद फसलों से लेकर डेयरी उत्पादों पर प्रभाव पड़ेगा और ग्रामीण अर्थव्यवस्था खुलकर सांस ले सकेगी। गांवों-कस्बे में रहने वाले गरीब लोगों को ईंधन गैस सिलेंडर भी 200 रुपए कम दाम पर मिलेगा।  

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