जनादेश की लूट
‘बिहार का मुस्तकबिल’ में यह सवाल सही उठाया गया है कि कभी पानी पी-पी कर राजद की निंदा करने वाले आज फिर उससे क्यों गलबहियां कर बैठे। यह भी विचारणीय है कि जब भाजपा के साथ सैद्धांतिक मेल नहीं हुआ, तो राजद को वे कितना अपना बना सकेंगे।
Written by जनसत्ता: 'बिहार का मुस्तकबिल' में यह सवाल सही उठाया गया है कि कभी पानी पी-पी कर राजद की निंदा करने वाले आज फिर उससे क्यों गलबहियां कर बैठे। यह भी विचारणीय है कि जब भाजपा के साथ सैद्धांतिक मेल नहीं हुआ, तो राजद को वे कितना अपना बना सकेंगे। एहसान, उपकार और सहयोग की परिभाषा शायद राजनीति शास्त्र के पन्नों पर उद्धृत नहीं है।
सत्ता की भूख और कुर्सी की ललक ऐसी तृष्णा है, जो आज हर दल को अपने आगोश में लिए हुए है। जिन परिस्थितियों में भाजपा ने 2020 में नीतीश को मुख्यमंत्री बनाया, वह अपवाद था। ठीक है कि दोनों हाथों से ताली बजती है और जब दोनों दलों में वैचारिक खटपट शुरू हुई तो इसे दूर करने का प्रयास दोनों ने नहीं किया।
निश्चय ही सभी दलों ने प्राप्त जनादेश का अपनी सुविधा से इस्तेमाल किया है और मतदाता सदा ठगा गया है। संपादकीय में ठीक ही कहा गया है कि तेजस्वी ने जिन शर्तों को नीतीश के समक्ष रखा है, उससे वे मुक्तहस्त होकर कैसे काम कर सकेंगे। लगाम तेजस्वी के हाथ में होगी, जिसमें नीतीश की ना-नुकुर की कोई गुंजाइश भी नहीं होगी। अंतत: हल्के या भारी मन से समर्पण रूपी समन्वय का यह हुनर बिहार के 2025 के चुनाव का मुस्तकबिल तय करेगा।