लोजपा और सियासत: पासवान की पार्टी में टूट से भला भाजपा को क्या फर्क पड़ता है..!
जनता दल से अलग होने के बाद सन 2000 में जब राम विलास पासवान ने लोक जनशक्ति पार्टी बनाई तो उन्हें मालूम था
जनता दल से अलग होने के बाद सन 2000 में जब राम विलास पासवान ने लोक जनशक्ति पार्टी बनाई तो उन्हें मालूम था कि बगैर किसी राष्ट्रीय दल या बड़े गठबंधन के साथ मिले, उन्हें कोई फायदा नहीं होने वाला। पासवान एक ऐसे दौर के नेता रहे जिन्होंने देश में गठबंधन की राजनीति में हमेशा से ही एक अहम भूमिका निभाई।
दलितों, पिछड़ों और अति पिछड़ों के वो एक ऐसे स्थापित नेता रहे जिन्हें अपनी लड़ाई जारी रखने या अपना मकसद पूरा करने के लिए सरकार में बने रहना सबसे जरूरी लगता था और इसीलिए केन्द्र में सरकार चाहे कोई भी रही हो, पासवान उसमें किसी न किसी तरह मंत्री जरूर बन जाते थे।
चुनावी राजनीति और चुनाव से पहले हवा का रुख भांप लेने में माहिर रामविलास पासवान के रिश्ते हर पार्टी के नेताओं से बेहद मधुर रहे और इसी वजह से पिछले तीन दशकों से संसदीय राजनीति में उनकी दखल कभी कम नहीं हुई।
लोजपा का संकट और सियासत
आज जब वो नहीं हैं तो उनकी पार्टी संकट में है। उनके जाते ही उनके भाई पशुपति पारस ने बगावत कर खुद को एलजेपी का अध्यक्ष घोषित कर दिया है। अपने पिता की विरासत को यूं छिनते देखना और पारिवारिक लड़ाई का इस तरह सार्वजनिक होना बेशक चिराग पासवान के लिए काफी तकलीफदेह है।
देश को जब युवा चेहरे और सोच की जरूरत है और पार्टियों को पुरानी सोच और महात्वाकांक्षाओं से भरे नेताओं से उबारने की जरूरत है, तब चिराग के लिए ये मुश्किल वक्त है।
पिछले तकरीबन चार दशकों से पासवान के भाई पशुपति पारस राजनीति में हैं। लगातार विधायक रहे हैं, बिहार सरकार में मंत्री भी रहे हैं। लेकिन ऐसे वक्त में जब पासवान नहीं हैं और केन्द्रीय मंत्रिमंडल में उनकी सीट खाली है, पशुपति पारस को मौका गंवाना ठीक नहीं लग रहा।
पशुपति पारस आज जो हैं, तमाम विवादों और संकटों के बावजूद जिस तरह पिछले चार दशकों से सियासत में अपना पैर जमा रखा है, उसके पीछे उनके असली ताकत तो बड़े भाई रामविलास पासवान ही रहे हैं। उनकी तमाम कमियों के बावजूद पासवान ने बड़े भाई की भूमिका निभाई और पशुपति को सचमुच पशुपति पारस बनाया।
जाहिर है पासवान के जनाधार को पशुपति अपने साथ खड़ा देखना चाहते हैं और उनके नाम पर ही अपनी राजनीति करते रहे हैं। इस मौके पर भी वो रामविलास पासवान को भारत रत्न देने की मांग करके, पासवान के घर 12 जनपथ और पटना में एलजेपी के दफ्तर को भी पासवान के स्मारक के तौर पर बनाने की बात करके वो उनके समर्थकों को साथ रखना चाहते हैं। लेकिन आने वाले वक्त में नए दौर की राजनीति का चेहरा बनने की कोशिश में लगे चिराग अपने चाचा को कैसे चित्त करते हैं, ये देखने वाली बात होगी।
हालांकि एलजेपी जैसी छोटी पार्टी को लेकर भाजपा और एनडीए में कभी कोई खास चिंता नहीं रही, लेकिन पासवान के होते हुए उनके जनाधार और वोटबैंक का फायदा वो जरूर उठाती रही। लेकिन पासवान के जाने के बाद अब भाजपा को कम से कम आज की तारीख में एलजेपी की इस अंदरुनी उठा पटक को लेकर कोई चिंता नहीं है।
न तो बिहार में अभी चुनाव हैं और न ही राष्ट्रीय स्तर पर इस पार्टी का कोई वजूद है। पासवान से रिश्ते की वजह से उन्हें मंत्रिपद बेशक मिलता रहा हो, लेकिन अब पशुपति पारस को अगर ये लगता है कि वो रामविलास पासवान की जगह मंत्रिमंडल में शामिल हो जाएंगे, तो शायद ये उनकी बड़ी भूल साबित होगी।
चिराग पासवान और लोजपा
दरअसल, बिहार चुनाव में जब चिराग पासवान ने बतौर पार्टी अध्यक्ष ये फैसला लिया कि वहां एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़ेंगे तब भी उनके फैसले का पार्टी के भीतर कुछ नेताओं ने विरोध किया था। कई सवाल भी उठे थे और चर्चा तेज हो गई थी कि कहीं एलजेपी एनडीए से अलग तो नहीं हो रहा।
बिहार चुनाव के दौरान अचानक रामविलास पासवान के निधन से आहत चिराग ने फिर भी लड़ाई जारी रखी, लेकिन न तो कोई सिंपैथी वोट मिला, न विधानसभा में जीत मिली। जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान बिहार में एनडीए के साथ लड़ने पर उनके 6 सांसद जीत गए थे।
पशुपति पारस को चिराग की कार्यशैली पसंद नहीं थी और हर पद पर खुद ही बने रहने से उनकी नीयत पर शक था। दूसरी तरफ बिहार में अलग लड़ने से भाजपा और जेडीयू वैसे भी चिराग के खिलाफ था।
पासवान की जगह चिराग को मोदी मंत्रिमंडल में जगह मिलने की संभावना शून्य थी। ऐसे में पशुपति की महात्वाकांक्षाएं प्रबल हुईं और उन्होंने मंत्रिमंडल में सुगबुगाहट को देखते हुए आखिरकार अपनी चाल चल दी।
तो क्या ये मान लेना चाहिए कि चिराग पासवान से पार्टी नहीं संभल पा रही थी, या फिर वो अपने पिता से सियासत के गुणाभाग ठीक से सीख नहीं पाए थे या फिर चाचा पशुपति पारस की मंशा पर संदेह होते हुए भी वो कुछ न कर पाने की स्थिति और मजबूरी में थे?
दरअसल, 2024 के चुनाव से पहले अभी बहुत से राजनीतिक समीकरण बनने बिगड़ने वाले हैं। विपक्षी एकता की कोशिशें तेज़ हो चुकी हैं। यूपी में अखिलेश यादव को केन्द्र में रखकर ताना बाना बुना जाने लगा है। दोनों ही तरफ से बिसात बिछी हुई है, मोहरे सजाए जा रहे हैं।
ऐसे में चिराग पासवान चाचा से यूं ही हार मान जाएंगे और पिता की मेहनत से खड़ी गई पार्टी को यूं ही हाथ से जाने देंगे, ये संभव नहीं लगता। फिलहाल तो दोनों तरफ से मर्यादा में रहकर बयान आ रहे हैं, प्रेस कांफ्रेंस हो रही है लेकिन इसमें संदेह नहीं कि मर्यादाएं जल्दी टूट जाएं और एलजेपी दो धड़ों में बंट जाए।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।