कतारों में जीवन का पाठ
कतार या पंक्ति की बात को ही लें तो हम सभी कहीं न कहीं पंक्तियों या कतार का एक हिस्सा बने हुए होते हैं। कभी हम सबसे आगे खड़े होते हैं, कभी बीच में, कभी पंक्ति के अंत में अपने अवसर का इंतजार कर रहे होते हैं। इस दौरान धैर्य और विवेक की बड़ी अहमियत होती है।
एकता कानूनगो बक्षी: कतार या पंक्ति की बात को ही लें तो हम सभी कहीं न कहीं पंक्तियों या कतार का एक हिस्सा बने हुए होते हैं। कभी हम सबसे आगे खड़े होते हैं, कभी बीच में, कभी पंक्ति के अंत में अपने अवसर का इंतजार कर रहे होते हैं। इस दौरान धैर्य और विवेक की बड़ी अहमियत होती है। शांतचित्त रहकर वास्तविकता के धरातल पर अपने पैर जमाए रखना ही हमारे आनंद और सुखदायी परिणाम को सुनिश्चित करता है। जब हम वास्तविक जीवन में जीते हैं और अपने जैसे ही और लोगों को आसपास पाते हैं तो बड़ा हौसला मिलता है कि हम अकेले तो बिल्कुल नहीं हैं। संघर्ष का वह समय एक दूसरे को सहारा देते हुए ही सहजता से गुजरता चला जाता है।
एक आम इंसान के जीवन में कतार का महत्त्व हमेशा से ही बना रहता है, फिर वह उसके जीवन के शुरुआती पल हों या आखिरी बेला। पंक्तियां जीवन का यथार्थ हैं और उससे जुड़ा अनिश्चित इंतजार आम लोगों के जीवन को परिभाषित करते हुए उसकी दिशा तय करता है।
कभी-कभी जीवन समाप्त हो जाता है और पंक्तियों में ही बनी रह जाती हैं गुजरे हुए व्यक्ति की चिंताएं, उम्मीदें, उसके लक्ष्य। मद्धम गति से अवसर के इंतजार में सरकती उम्मीदें धीरे-धीरे मस्तक पर रेखाओं के रूप मे उभर आती हैं। कोई नहीं जानता कि किसी भू-भाग के नागरिक मूलभूत जरूरतों, मौलिक अधिकारों के लिए कतार में खड़े-खड़े कब अनियंत्रित भीड़ में बदलकर उपद्रवों में रूपांतरित हो जाएंगे और अखबारों की सनसनी खेज खबरों, बहसों की शृंखलाओं का रूप लेकर किसी नए विमर्श में विलीन होने की आशंका के बीच कब जीवन की कतारें तहस-नहस हो जाएंगी!
आम लोगों की कतारों के समांतर एक और कतार होती है प्राथमिकता वाली कतार। कुछ अतिरिक्त भुगतान, पद-प्रतिष्ठा और बाहुबल के उपयोग से कतार में उनके इंतजार की अवधि कम हो जाती है। इस कतार में लगते ही दुर्लभ और सीमित वाले संसाधन भी सहजता से उपलब्ध होने लगते हैं। जैसे-जैसे यह दृश्य-अदृश्य प्राथमिकता की कतार मजबूत और वृहद होती जाती है, वैसे-वैसे आम जनों की कतारों मे अवसरों का इंतजार लंबा होता जाता है।
सभी लोगों को कभी न कभी कतार में लगने का कष्ट उठाना ही पड़ता है। कालेज, बैंक या इस जैसे किसी भी काम के लिए। अगर किसी के परिजन या परिचित खिड़की के पार दफ्तर में होते तो वे अपना काम करवा कर इठलाते हुए निकल जाते। विशिष्ट होने के भ्रम और बोझ से बच कर आम इंसान, एकदम साधारण, भीड़ का हिस्सा बनकर अपने आप को खुद से आजाद करने का सुकून।
दूसरी ओर घंटे भर लाइन में लगने के बाद अगर ठीक किसी का नंबर आ जाए और उसी वक्त दोपहर के भोजन का अवकाश हो जाए बैंक कर्मी के चेहरे पर तनाव की जगह ठहाका फूट जाए तो समझिए आपने काफी हद तक जीवन को जीत लिया। इस तरह की विकट परिस्थतियों मे खुद के लिए धैर्य से बेहतर और क्रोध और तनाव से बुरी कोई चीज नहीं हो सकती।
किसी फिल्म में एक खूबसूरत संवाद था। दृश्य कुछ यों था कि नायक किसी का इंतजार कर रहा होता है और सामने वाला उसका मखौल उड़ाता कहता है, "तुम फिर आ गए," तो नायक मुस्कुराता हुआ उत्तर देता है, "धैर्य मुझमें बहुत है और गुस्सा मुझे आता नहीं है।" समझा जा सकता है कि अगर इस तरह का धीरज किसी में आ जाए तो वह व्यक्ति कितना मजबूत हो सकता है।
ऐसे व्यक्ति के जीवन मे कितनी ही खिड़कियां और दरवाजे बंद हो जाएं उसके हौसले पर कोई आंच नही आ सकती। वह बार-बार प्रयत्न करेगा। खुद के लिए नया रास्ता बनाएगा। जो दरवाजा उसकी कुशलता से मेल खाएगा वह जरूर एक दिन उसके लिए खुल कर उसका स्वागत करेगा। कोशिश करते रहना हमारे हाथ में है और उस प्रक्रिया के दौरान अपने जीवन को संतुष्टि और साहस के साथ जीना भी।
अपने आप को महान, विशिष्ट मान कर हम खुद को मानसिक रूप से बीमार कर लेते हैं। हर चीज पर सबसे पहला हक मेरा होना चाहिए या फिर मैं अपनी पहुंच से सब कुछ पा सकता हूं- यह एक बहुत बड़ा भुलावा है। सुख के लिए संक्षिप्त या अनैतिक रास्तों का चुनाव तात्कालिक रूप से कारगर भले हो जाए, लेकिन वह हमें मजबूत नहीं बनाता। अपनी ही नजरों में हम छोटे और कमजोर होते जाते हैं। मजबूत वे होते हैं जो धैर्य रख कर पहले जरूरतमंद को आगे करते हैं या अनुशासन और धैर्य से अपनी जायज बारी का इंतजार करते हैं।