प्रेम की गंगा बहाते चलो

हम सबका मन कहीं न कहीं किसी सपने को टटोलता रहता है। कुछ लोग सिर्फ अपनी आकांक्षा का पीछा करते हुए कांपते और हांफते रहते हैं, मगर कुछ लोग दूसरों के सपने साकार करने में मददगार बनते हैं।

Update: 2022-08-31 05:37 GMT

पूनम पांडे: हम सबका मन कहीं न कहीं किसी सपने को टटोलता रहता है। कुछ लोग सिर्फ अपनी आकांक्षा का पीछा करते हुए कांपते और हांफते रहते हैं, मगर कुछ लोग दूसरों के सपने साकार करने में मददगार बनते हैं। इस तरह अपना होना सार्थक करते हैं। दरअसल, दूसरों के लिए उपयोगी बनना मतलब समूल सृष्टि के हित में सहयोग देने जैसा है। पर न जाने क्यों, यह परोपकारी भाव लुप्त-सा होता जा रहा है। अगर कहीं है भी तो पूरे आडंबर और अहंकार के साथ। कुछ लोगों को अपना एक मिनट भी कहीं देना गंवारा नहीं है।

दरअसल, हम अक्सर यह सोचते हैं कि मददगार स्वभाव के चलते दूसरों के लिए सुविधा का कारण बन रहे हैं, जबकि सच यह है कि मददगार होने से हमारा मन-मस्तिष्क कई गुना ज्यादा क्रियाशील हो जाता है और उसकी कार्यक्षमता भी बढ़ती है। ऐसे में जो लोग खुदगर्जी का रास्ता अपना कर मदद करने से बचते हैं, उनके लिए यह चौंकाने वाली खबर है कि मददगार स्वभाव वालों को उनकी तुलना में न केवल अच्छी सेहत, समृद्धि और लंबी उम्र मिलती है, बल्कि ऐसे लोग समाज में अत्यंत लोकप्रिय होते हैं।

ऐसे हजारों शोध हुए हैं, जिनके आधार पर यह निष्कर्ष निकला है कि मदद करने वाले लोग हमेशा दूर से ही नजर आ जाते हैं। उनकी भी अपनी परेशानी होती होगी, पर उसके बावजूद मदद मांगने वाले को उनका चमकदार चेहरा, आत्मविश्वास, सकारात्मक ऊर्जा, हंसमुख व्यक्तित्व ही दिखता है। माता का मुख बच्चे के लिए हमेशा करुणा से भरा नजर आता है। आप ऐसे लोगों से कुछ जानकारी लेना चाहें, तो बगैर किसी देरी के आपकी मदद करेंगे। होना भी यही चाहिए। बस अपने लिए काम करना, अपने लिए ही कमाना और खाना, अपने तक सीमित होकर रह जाने वाली सोच मानवीय नहीं, बल्कि पाशविक है। यह आपको निराशावादी और आपकी ऊर्जा को नकारात्मक बना रही है।

किसी बुजुर्ग को सड़क पार करा देना, किसी के मन की पूरी बात सुन लेना, किसी तनहा आदमी का हालचाल जान लेना, किसी के लिए बस में सीट छोड़ देना, किसी रोते हुए को हंसाना, किसी भूखे को दो रोटी खिला देना, किसी बीमार के लिए प्रार्थना करना, किसी का भी बुरा नहीं सोचना, यह सब मददगार होने की पहली सीढ़ी है। इनमें कोई रुपए-पैसे खर्च नहीं होते। आज के समय की सबसे बड़ी जरूरत है, संवाद बनाए रखना, क्योंकि कहीं न कहीं हम सब अपनी किसी खोल में सिमट कर रह गए हैं। इस तरह हम अपनी मानवीय संवेदनाओं को खो रहे हैं। क्यों न थोड़े से मददगार बन जाएं और मनुष्य होने की आबोहवा, उसके अहसास, महक को जिंदा रखें।

सहायक बनना अपनी संस्कृति, संस्कार की झलक पेश करता है। बहुत बार मदद करने की आदत जीवन के मुहावरे को बदल देती। एक दार्शनिक ने कहा है कि 'जो साथ रहने का आनंद नहीं उठा सकता, वह समाज के साथ सामंजस्य नहीं बिठा सकता।' हमारा यह मन एक उपवन है। सोचिए, क्या उपवन में मात्र सुगंधित पुष्प होते हैं। अगर उसमें सिर्फ फूल होंगे, तो वह अधूरा रहेगा। वहां पेड़, पौधे, लताएं, कांटेदार झाड़ियां, कीट-पतंग,पशु-पक्षी सभी होने चाहिए। शीतल मंद हवा भी सरसराती रहे, तो क्या बात है। आनंद दुगुना हो जाएगा। बस यही फलसफा हमारे साथ लागू होता है।

हमारी बनावट पंचतत्व का संगम है- पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल, आकाश से बना। जब ये शक्तिशाली पांचो तत्व एक-दूसरे की मदद कर रहे हैं, तो हम तो बस सासों के पुतले हैं। यानी थोड़ी नरमी, थोड़ी गर्मी, जरा-सा तरावट और कभी-कभी सुखावट किसी न किसी को बगैर नफा-नुकसान सोचे, बांट दी जाए। इसका संदर्भ बाबा फरीद के एक प्रसंग से लिया जा सकता है। बाबा फरीद सबको राह दिखाते हुए वृद्ध होते चले गए और जीवन फिर भी साधारण ही रहा। जो कुछ भी मिलता जरूरतमंदों में बांट दिया करते थे।

वे आनंद में मगन होकर नाचते और कहीं कुछ स्वादिष्ट मिल गया, तो सबसे साझा करने के बाद चटखारे लेकर खाते भी थे। एक शिष्य ने इसका रहस्य जानना चाहा, तो उन्होंने कहा कि जैसे दिन के सारे प्रहर एक समान नहीं होते, उसी तरह मैं भी कभी शांत, तो कभी चंचल हूं। एक जैसी तो समंदर की लहर भी नहीं होती, कभी हौले-हौले तो कभी तीव्र। फिर मैं कैसे एक समान अवस्था में रह सकता हूं। मैं नियति के चलन के साथ सहयोग कर रहा हूं।

जब सबको यह बात अच्छी तरह मालूम है कि यह जीवन सांसों की माला है, तो जरूरी नहीं कि हमेशा मतलबी और स्वार्थी स्वभाव के साथ ही जीवन की रागिनी को गाया जाए। कभी-कभी कुछ अनपेक्षित भी हो जाए, तो इसे जीवन का आनंद समझना चाहिए। देखिए न, मदद का भाव लिए वृक्ष, नदियां, झरने, बादल कितने गरिमामय लगते हैं।


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