अवसाद के पांव
इसके बावजूद हम आए दिन आत्महत्या की खबरें सुनते-देखते या पढ़ते रहते हैं। हमारे संविधान मे आत्महत्या करने वालों पर भी सख्त कानून रहा। समाज में भी आत्महत्या को कायरता, कमजोरी, हिम्मत और साहस न होने जैसी बात के तौर पर देखा जाता है।
Written by जनसत्ता: इसके बावजूद हम आए दिन आत्महत्या की खबरें सुनते-देखते या पढ़ते रहते हैं। हमारे संविधान मे आत्महत्या करने वालों पर भी सख्त कानून रहा। समाज में भी आत्महत्या को कायरता, कमजोरी, हिम्मत और साहस न होने जैसी बात के तौर पर देखा जाता है। जबकि वास्तव में यह अपने जिंदगी से हताश, निराश हुए व्यक्ति द्वारा उठाया गया कदम होता है। डब्लूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार हर वर्ष दुनिया भर मे आठ लाख लोग आत्महत्या करते हैं और जिनमें से सिर्फ भारत के इक्कीस फीसद लोग होते हैं।
इसमे पंद्रह से उनतीस वर्ष के युवा अधिक होते हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि अपने सपनों की पोटली लेकर निकले युवा विकास, पैसा, पद, प्रतिष्ठा की चाह में हताश होकर खुद को सबसे अलग करते हैं और फिर जिंदगी की जंग में बहुत कम उम्र में ही हार मान लेते हैं। वे नहीं समझ पाते हैं कि पैसा, पद, प्रतिष्ठा जरूरी है, लेकिन जिंदगी हर हाल में इससे भी ज्यादा जरूरी है।
आत्महत्या करने वाली महिलाओं के मुकाबले पुरुषों की संख्या ज्यादा होती है। मानसिक बीमारी और अवसाद आत्महत्या का एक प्रमुख कारण है, लेकिन इसके इलाज के लिए न तो कोई कारगर व्यवस्था है और न ही कोई सहानुभूति भाव है। आत्महत्या की प्रवृत्ति को रोकने मे केंद्र और राज्य को मिल कर देश के हर हिस्से में और खासकर मध्यम वर्गों के लोगों को मानसिक बीमारी और अवसाद पर बात करना गलत या जादू-टोना समझ कर बच्चों को आत्महत्या करने पर मजबूर न करने की समझ पैदा करना भी सरकार की जिम्मेदारी है।
हालांकि सरकार की ओर से जागरूकता अभियान चलाने की शुरुआत हुई है, लेकिन इतना करने से ही नहीं होगा। सभी छोटे-बड़े अस्पतालों, शिक्षण संस्थानों और अन्य आवश्यक स्थलों पर मानसिक चिकित्सकों की कारगर नियुक्ति भी आवश्यक है। आवश्यकता किसी भी व्यक्ति को अकेलेपन के जंजाल से बचाने और उसका साथी बन उसके भीतर की उलझन को सुलझाने की होती है।
भारत ज्ञान विज्ञान समिति और हिमाचल इलेक्शन वाच नामक संस्थाओं के अध्ययन में हिमाचल प्रदेश के मौजूदा विधानसभा चुनावों से संबंधित अत्यन्त दिलचस्प, पर बहुत चिंताजनक आंकड़े सामने आए हैं। चुनाव में किस्मत आजामा रहे चार सौ बारह उम्मीवारों द्वारा आवेदनों के साथ दाखिल किए गए शपथ पत्रों से पता लगा है कि इनमें से चौरानबे उम्मीदवार आपराधिक छवि वाले हैं।
हद तो यह है कि इनमें से पचास पर गंभीर आपराधिक प्रकरण दर्ज हैं। हालांकि राजनीति से अपराध और भ्रष्टाचार को समाप्त करने की चर्चा हर एक चुनाव के समय की जाती है। विभिन्न राजनीतिक दलों, चुनाव आयोग और सरकार द्वारा अनेक प्रकार के सुधारों के वादे और दावे किए जाते हैं, लेकिन हकीकत यह है कि आपराधिक पृष्ठभूमि से जुड़े उम्मीवारों की संख्या हर आने वाले चुनाव में बढ़ती जाती है।
सरकारी रिकार्ड में यह सब दर्ज है। इसका मतलब यह है कि सब कुछ खुल्लमखुल्ला हो रहा है, फिर भी सारे पक्ष इस विषय में खामोश हैं। इस खामोशी का सबसे बड़ा कारण तो यही है कि कोई सुधारना नहीं चाहता। बहरहाल देश में इस 'अप्रिय प्रगति' को रोकने के लिए कड़े प्रतिबंध लागू किए जाने चाहिए।