भावनाओं के बहाव में न बनें कानून: वैवाहिक दुष्कर्म को आपराधिक कृत्य बनाने से पूर्व गहन सामाजिक शोध की आवश्यकता
पिछले दिनों देश के दो राज्यों की अदालतों के दो अलग-अलग निर्णयों ने विवाह-दुष्कर्म के मुद्दे पर बहस को पुन
भूपेंद्र सिंह| पिछले दिनों देश के दो राज्यों की अदालतों के दो अलग-अलग निर्णयों ने विवाह-दुष्कर्म के मुद्दे पर बहस को पुन: छेड़ दिया। इस बहस की शुरुआत निर्भया कांड के बाद जस्टिस जेएस वर्मा कमेटी की 'वैवाहिक दुष्कर्म' को आपराधिक बनाने की सिफारिश' से शुरू हुई थी। एक ओर मुंबई की अदालत ने पत्नी की इच्छा के विरुद्ध उससे दैहिक संबंध बनाने को अपराध नहीं माना। दूसरी ओर केरल उच्च न्यायालय ने इससे इतर विवाह विच्छेद के संबंध में दिए गए अपने निर्णय में कहा कि पत्नी के शरीर को पति द्वारा अपनी संपत्ति समझना और उसकी इच्छा के विरुद्ध संबंध स्थापित करना वैवाहिक दुष्कर्म है। उसने यह भी टिप्पणी दी कि अब समय आ गया है कि देश में विवाह कानून फिर से बनाया जाए। गौरतलब है कि जुलाई 2019 में उच्चतम न्यायालय ने 'दांपत्य जीवन में दुष्कर्म के लिए प्राथमिकी दर्ज करने और इसे तलाक का एक आधार बनाने का केंद्र को निर्देश देने के लिए' दायर याचिका पर विचार करने से इन्कार कर दिया था।
कुछ वर्ष पहले दिल्ली उच्च न्यायालय में वैवाहिक दुष्कर्म को आपराधिक बनाने संबंधी जनहित याचिकाओं के संदर्भ में केंद्र ने अपना पक्ष रखते हुए कहा था कि अगर ऐसा किया जाता है तो 'विवाह संस्था ढह जाएगी।' केंद्र की इस दलील को स्त्री विरोधी और पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था का पोषण करने वाली कहा गया, परंतु सिर्फ यह मान लेना उचित नहीं कि जब तमाम देश वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध की श्रेणी में सम्मिलित कर सकते हैं तो फिर भारत क्यों नहीं? क्या कानून का निर्माण अन्य देशों की नकल कर किया जाना तार्किक है? 'भारतीय राज्यव्यवस्था स्त्री गरिमा और उसके हितों से सरोकार नहीं रखती, इसलिए वह वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध घोषित नहीं करना चाहती।' ऐसी दलील देने वाले उन तथ्यों को नकार देते हैं, जिन पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। भारतीय कानून व्यवस्था सदैव से स्त्री अधिकारों की संरक्षणकर्ता रही है। अन्यथा 498 ए और घरेलू हिंसा संरक्षण अधिनियम अस्तित्व में नहीं होते। कानून निर्माण की पृष्ठभूमि समाज विशेष की सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के अनुरूप होती है। विकसित और विकासशील देशों में दहेज निरोधक अधिनियम नहीं हैं, क्योंकि वहां की सामाजिक व्यवस्था में दहेज की प्रथा ही नहीं है।
वैवाहिक दुष्कर्म को आपराधिक बनाने से पूर्व एक गहन सामाजिक शोध की आवश्यकता है। इस दिशा में सिर्फ भावनाओं के वशीभूत होकर आगे बढ़ना खतरनाक हो सकता है। इसमें किंचित भी संदेह नहीं कि स्त्री का उसकी देह पर एकाधिकार है और इस एकाधिकार पर कुठाराघात करने का अधिकार किसी को भी नहीं है। फिर चाहे वह पति ही क्यों न हो। पत्नी की इच्छा के विरुद्ध उससे दैहिक संबंधों की स्थापना घोर अमानवीय कृत्य है, परंतु क्या इसका समाधान वाकई कानून बनाने से निकल सकता है? अगर ऐसा होता तो दुनिया भर में जितनी सामाजिक समस्याएं हैं, वे समूल नष्ट हो चुकी होतीं। जहां तक वैवाहिक दुष्कर्म का प्रश्न है, यह पुरुषत्व का भाव है जो स्त्री को हीन समझता है और बलपूर्वक संबंधों की स्थापना कर अपने अहम् की तुष्टि करता है, परंतु क्या यह भाव कानून के डर से समाप्त हो सकता है? क्या हम यह मान लें कि यही स्त्री की नियति है कि वह शोषित होती रहे? क्या उसे यह अधिकार नहीं कि वह अपने दैहिक शोषण के विरुद्ध शिकायत कर सके? ऐसे प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं, परंतु उनके उत्तर को समझना किसी चुनौती से कम नहीं। अत्यंत नितांत क्षणों में घटित घटना को सिर्फ पत्नी की शिकायत पर सत्य मान लेना स्त्री को वह सर्वोच्च अधिकार देना है, जहां उसका कथन ही अंतिम सत्य है। क्या यह उचित होगा? आमतौर पर यही माना जाता है कि पत्नी कभी भी अपनी मर्यादा को सामाजिक रूप से छिन्न-भिन्न करने के लिए झूठ नहीं बोलेगी। फिर हमें यह भी मानना ही होगा कि स्त्री क्रोध, ईष्र्या और घृणा जैसे भावों से मुक्त है, पर क्या यह सत्य है?
पूर्वाग्रहों से ग्रसित कोई भी समाज समानता के धरातल पर खड़ा नहीं हो सकता। यह ध्यान रहे कि न्यायालय के समक्ष ऐसे कई मामले आए हैं, जहां मायके पक्ष के दबाव में महिलाओं ने पतियों के विरुद्ध 498 ए के मिथ्या आरोप लगाकर प्रताड़ित किया। वैवाहिक दुष्कर्म के संबंध में अगर पत्नी मिथ्या आरोप लगाती है तो क्या पुरुष के लिए कोई दरवाजा ऐसा खुला होगा, जहां वह अपना पक्ष रख सके? इस प्रश्न के पीछे महिलाओं के संरक्षण के लिए पूर्व में बना घरेर्लू ंहसा से संरक्षण कानून है, जो एकतरफा दृष्टिकोण रखता है। जिन देशों में वैवाहिक दुष्कर्म को अपराधिक माना जाता है, उन्हीं देशों में यह भी माना जाता है कि पुरुष भी अपनी पत्नी या महिला मित्र के द्वारा घरेलू हिंसा के शिकार होते हैं और इसीलिए उन्हें भी महिलाओं के समान घरेलू हिंसा से संरक्षण प्राप्त है। इसके विपरीत भारतीय कानून व्यवस्था पुरुषों को उनके विरुद्ध किसी भी प्रकार की घरेलू हिंसा से संरक्षण नहीं देती। इस विचार से कि स्त्री ही सदैव शोषित होती है और पुरुष सदैव शोषक, ऐसी विचार भूमि तैयार हो रही है, जहां पुरुष इस डर से विवाह करने से बचने लगेंगे कि महिलाओं के हितों का संरक्षण करने वाली व्यवस्थाओं ने उनके हितों को विस्मृत कर दिया है।
दिल्ली की एक अदालत ने 2016 में कहा था कि 'महिलाओं की सुरक्षा के लिए कानून बनाए जा रहे हैं और उनमें से कुछ का दुरुपयोग हो सकता है, लेकिन कोई भी किसी पुरुष के सम्मान और गरिमा की बात नहीं करता।' ऐसे में यह जरूरी है कि भविष्य में कोई भी कानून लिंगभेद की जड़ों को मजबूत न करे। तभी वह अपने अपेक्षित उद्देश्य में सफल हो सकेगा।