कतार में खड़ा आखिरी आदमी
नए युग के मसीहा आज भी कतार में खड़े आखिरी आदमी का दर्द समझने की बात करते हैं। उसकी पीड़ा, उसके जीवन की प्रवंचना और उसके घिसट-घिसट कर उम्र काट देने के अंदाज को बदल देने की बात करते हैं।
सुरेश सेठ; नए युग के मसीहा आज भी कतार में खड़े आखिरी आदमी का दर्द समझने की बात करते हैं। उसकी पीड़ा, उसके जीवन की प्रवंचना और उसके घिसट-घिसट कर उम्र काट देने के अंदाज को बदल देने की बात करते हैं। वे कहते हैं कि चेहरों की खोई हुई मुस्कान लौट आएगी। मगर उनसे कोई पूछे तो कि कतार में खड़े इस देश के आखिरी आदमी के चेहरे से मुस्कान क्यों लुप्त हो गई? फिर किस एक कतार की बात करते हो? यहां तो हर क्षेत्र में कतार-दर-कतार है। टूटती सांसों के पुल पर खड़े जीते लोग हैं और जिधर आंख उठाओ वहां एक नई कतार खड़ी नजर आती है।
उनके अंत में लोगों के झुंड हैं, झुंड केवल एक आदमी नहीं, जो अपने अच्छे दिनों या जीवनोदय का इंतजार कर रहा है। कभी अंत्योदय के नाम से इस एक आदमी को इस कतार में खड़ा किया गया था, आज वह झुंड हो गया। तब सोचा था एक कतार होगी, आगे सरकती-सरकती कभी खत्म हो जाएगी। लेकिन यहां तो हर क्षेत्र में कतार-दर-कतार लगती गई।
यहां कुछ नहीं बदलता। सिवाय भाषणों के तेवरों, दावों और घोषणाओं के। लोग इंतजार करते हैं और रुत पर रुत बदल जाती है। दिन, महीने और महीने साल हो गए, यह कतार आगे नहीं सरकी, बरसों से वहीं खड़ी रही। अब तो क्रांति का सपना देखने वाली आंखें बेनूर हैं।
देश तरक्की करेगा, योजनाबद्ध आर्थिक विकास के रास्ते पर सरपट भागेगा। मगर बारह पंचवर्षीय योजनाओं का कितना लंबा रास्ता था, कि उसे अपने कंधों पर ढोते-ढोते योजना आयोग का कचूमर निकल गया। उसे सफेद हाथी कह कर नकार दिया गया।
कभी समाजवादी व्यवस्था पैदा करने के नाम पर यह क्रांति यात्रा शुरू हुई थी। मगर प्रगति का हर मील पत्थर, भ्रष्टाचारियों की लोभलिप्सा का हाजमा दुरुस्त करता रहा, और अब सत्तर बरस के बाद उपलब्धियों के मूल्यांकन के लिए मील के पत्थरों को गिनने का फैसला हुआ, तो पाया कि मील के पत्थर नदारद हो गए थे।
फसल बचाने के लिए जो बाड़ लगी थी, वही फसल को खा गई। आम आदमी हर कतार से दुत्कार दिए जाने के बाद फुटपाथ पर आ गया। कहां जो हर घर को चिराग देने की बात थी, अब तो गरीब शहरों की अंधेरी बस्तियों को एक चिराग भी नहीं मिला। कतारें टूटती-बनती रहीं, लेकिन एक ही जगह रुकी रहीं।
हमने इन कतारों के सरगना महापुरुषों की झोली में देश की प्रगति के मील पत्थर तलाशने चाहे, लेकिन वहां भी भव्य अट्टालिकाएं और कुछ वातानुकूलित गाड़ियां मिली। कुछ दावे थे और कुछ घोषणाएं, लेकिन ये दावे और घोषणाएं पौन सदी के अंधेरे में गुम हो गई। उस भारी भीड़ के चेहरे पर खोई हुई मुस्कान लौटा नहीं पाई। सफेद हाथी उनके अस्तबल में गुम हो गया, और उसकी जगह उन्हें मिल गया नीति आयोग।
इसने कतार से गुम हो गए लोगों से पूछा, क्या यह किसी पुराने साइनबोर्ड पर लिखी नई इबारत है? बताया गया, नहीं ऐसा नहीं है। इसके द्वारा निर्देशित होने वाला रास्ता अभी बनाया जाएगा। योजनाबद्ध आर्थिक विकास से आपका काया-कल्प करने की योजनावधि क्या होगी, इस पर फैसला भी अभी होना है। फिलहाल आप समाज बदल जाने, युग पलट जाने का सपना देखिए।
समाज बदल जाने और गरीब-अमीर का भेद मिट जाने का सपना तो हम बहुत दिन से देख ही रहे थे। अब तो हमारे फुटपाथों पर भी उनकी भव्य अट्टालिकाएं छाया नहीं करतीं। उनकी नींव के पास कोई पगला राजू अपनी डफली बजाता हुआ दिखाई नहीं देता 'दिल का हाल सुने दिलवाला'। अजी जनाब किसी के पास दिल हो तो उसे अपना हाल सुना दे।
यहां तो उनकी वातानुकूलित गाड़ियां अपने मतवाले राजकुंवरों की सहायता से हमें अपने टूटे हुए फुटपाथों पर कुचल कर निकल गईं, और कानून के हरकारों को उन्हें सजा देने के लिए एक भी चश्मदीद गवाह नहीं मिला। जी हां, सब चश्मदीद गवाह अब मुकरे हुए गवाह या गोले गवाह बन गए। एक झूठे मनरेगा कार्ड के जाली आदेश की तरह वे आंशिक रोजगार तलाशते हुए बरसों के बेकारों का मानदेय हड़प गए, और अब उनकी दुर्दशा पर आंसू बहा रहे हैं।
अब इस दुर्दशा की क्या बात कहें? कभी बिन बादल बरसात हो जाती है, और कभी बरसात के दिनों में आकाश में बादल उमड़-घुमड़ कर आ जाएं, तो मोर, दादुर और पपीहे नहीं नाचते। ये बादल मेघदूत का काम नहीं करते, प्रियतमा की चिट्ठी दूर देश में बिसरे बालम के पास नहीं ले जाते।
इन बादलों का गर्जन-तर्जन तो छतों के टपकने और बिफर कर आती बाढ़ का संदेश देता है। देखो, खुदाई खिदमतगार या सत्ता के दलाल चहक कर नाच रहे हैं। वे तो इन बादलों को मेघदूत बना राजधानी भेज रहे हैं, ताकि सरकार अनुदान घोषणा पर मंजूरी का ठप्पा लगा दे।