स्वाति मोहन कैलिफोर्निया स्थित नासा की जेट प्रोपेल्शन लैबोरेटरी में काम करती है। जब वह एक साल की थी तब उनके माता-पिता भारत से अमेरिका चले गए थे। स्वाति वाशिंगटन डीसी के नार्दन वर्जीनिया इलाके में पली-बढ़ी। उन्होंने मैकेनिकल और एयरोस्पेस इंजीनियरिंग में कार्नेल विश्वविद्यालय से बी.एस. और एरोनाटिक्स में एमआईटी से पीएचडी की। वे नासा के कई मिशन का हिस्सा रह चुकी हैं। मंगल मिशन 2020 के साथ वे 2013 में इसकी शुरुआत से ही जुड़ी थी। 16 साल की उम्र तक उसका वैज्ञानिक बनने का कोई इरादा नहीं था, बल्कि वे बच्चों की डाक्टर बनना चाहती थी लेकिन जब पहली बार उन्होंने फिजिक्स की क्लास अटैंड की तो उनकी मुलाकात एक ऐसे शख्स से हुई, जिन्होंने अंतरिक्ष में उसकी दिलचस्पी बढ़ा दी।
अंतरिक्ष के रहस्य जानने के लिए मनुष्य हमेशा जिज्ञासु रहा है। वह टीवी पर धारावाहिक स्टार ट्रैक बेहद मन से देखा करती थी। उसे यह जानने में अच्छा लगता था कि पृथ्वी से करोड़ों मील दूर भी कुछ है। जब उसकी अंतरिक्ष में दिलचस्पी बढ़ी तो उनमें ब्रह्मांड खंगालने की धुन सवार हो गई। यह धुन उनकी जिन्दगी की सफलता बन गई।
नासा की कुल वर्कफोर्स में भारतीय मूल के वैज्ञानिकों की हिस्सेदारी 35 फीसदी है। भारतीय मूल की कल्पना चावला को कौन नहीं जानता। वह अंतरिक्ष यात्री और अंतरिक्ष शटल मिशन विशेषज्ञ थी, कल्पना चावला अंतरिक्ष में जाने वाली प्रथम भारतीय महिला भी थी। वे कोलबिंया अंतरिक्ष यान हादसे में मारे गए सात यात्री दल सदस्यों में से एक थी। उनके अलावा अनीता सेनगुप्ता, डा. मैया मेप्ययन, अश्विन आर वसवदादा, डा. कमलेश लुल्ला, शर्मिला भट्टाचार्य, सुनीता विलियम्स, डा. मधुलिका, गुहाथाकुर्ता, डा. सुरेश बी कुलकर्णी और डाक्टर अमिताभ घोष नासा में कार्यरत हैं और विभिन्न परियोजनाओं से जुड़े हुए हैं।
सबसे बड़ी बात यह है कि भले ही भारतीय मूल के लोगों को अमेरिकी नागरिकता मिल चुकी है लेकिन उन्होंने अपनी जड़ों को नहीं भुलाया है। यद्यपि उन्होंने अमेरिका के संविधान और संस्कृति को आत्मसात कर वहां के विकास में अपना योगदान दिया है लेकिन वे अपने गांव की जमीन को नहीं भूले हैं। अप्रवासी भारतीय कहीं भी चले जाएं उनमें अपने गांव, शहर के लिए कुछ न कुछ करने की ललक हमेशा जीवित रही है। ऐसे कई लोगों के नाम लिए जा सकते हैं जो रहते विदेशों में हैं लेकिन उन्होंने भारत में स्कूल-कालेज और कम्प्यूटर केन्द्र खोलने के लिए न केवल जमीनें दान दी बल्कि धन भी दिया। स्वाति मोहन की बिन्दी इस बात का प्रतीक है कि अमेरिका में रह कर भी उन्होंने भारतीयता नहीं छोड़ी। मार्स के करीब पहुंचना शायद कुछ आसान हो लेकिन सबसे मुश्किल होता है यहां रोवर को लैंड कराना। ज्यादातर मिशन इसी स्टेज पर दम तोड़ देते हैं। पर्सिवरेंस रोवर आखिरी प्रति मिनट में 12 हजार मील प्रति घंटे की रफ्तार से शून्य की गति तक पहुंचा, इसके बाद लैंडिंग की। इसकी रफ्तार को शून्य पर लाना और फिर धीरे से लैंड कराना किसी चमत्कार से कम नहीं था। स्वाति मोहन और उनकी टीम ने यह कर दिखाया और दुनिया को उन पर गर्व है।
भारतीय मूल के वैज्ञानिकों ने आधुनिक युग में पूरी दुनिया को मुट्ठी में करने की पहल कर दी है। स्वाति मोहन भारत की युवा पीढ़ी के लिए आदर्श है। भारत में प्रतिभाओं की कमी नहीं जरूरत है उन्हें तराशने की। भारत के विश्वविद्यालयों में नए-नए शोध किए जाने चाहिए ताकि युवा पीढ़ी कुछ नया करके देश के लिए नए आयाम स्थापित कर सके। स्वाति मोहन की बिन्दी प्रेरणा दे रही है कि शिक्षा और शोध गुणवत्ता के लिए काम करने की जरूरत है। अगर ऐसा नहीं किया गया तो हमारी युवा पीढ़ी दुनिया में चल रहे नए अनुसंधानों से अनभिज्ञ रह जाएगी।