चिकित्सा शिक्षा में गुणवत्ता का अभाव
एमबीबीएस शिक्षा के साथ कई तरह के खिलवाड़ हो रहे हैं। कायदे से मेडिकल कालेज में उन्हीं छात्रों को प्रवेश मिलना चाहिए जो सीटों की संख्या के अनुसार नीट परीक्षा से चयनित हुए हैं।
प्रमोद भार्गव; एमबीबीएस शिक्षा के साथ कई तरह के खिलवाड़ हो रहे हैं। कायदे से मेडिकल कालेज में उन्हीं छात्रों को प्रवेश मिलना चाहिए जो सीटों की संख्या के अनुसार नीट परीक्षा से चयनित हुए हैं। लेकिन आलम है कि जो छात्र दो लाख से भी ऊपर की रैंक में हैं, उसे भी धन के बूते प्रवेश मिल जा रहा है।
देश में चिकित्सकों की कमी के बावजूद चिकित्सा शिक्षा की स्नातकोत्तर कक्षाओं में एक हजार चार सौ छप्पन सीटें खाली रह जाना चिंता की बात है। ये सीटें राष्ट्रीय पात्रता प्रवेश परीक्षा (नीट पीजी) के बाद खाली रही हैं। इसे लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने भी नाराजगी जताते हुए चिकित्सा परामर्श समिति (एमसीसी) को कड़ी फटकार लगाई थी। साथ ही हिदायत दी थी कि एक भी सीट खाली नहीं रहना चाहिए, इसलिए विशेष परामर्श के बाद सीटें भरी जाएं। किंतु अगली सुनवाई में न्यायालय ने केंद्र सरकार और एमसीसी के फैसले को सही मानते हुए कहा कि इसे मनमाना निर्णय नहीं कह सकते, क्योंकि पढ़ाई की गुणवत्ता से समझौता नहीं कर सकते। यदि ऐसा करते हैं तो लोक स्वास्थ्य प्रभावित होगा। अतएव एमसीसी का निर्णय जन-स्वास्थ्य के हित में है। इस परिप्रेक्ष्य में विडंबना यह है कि एक तरफ तो गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की कमी के चलते बड़ी संख्या में सीटें खाली रह गर्इं, तो दूसरी तरफ कई प्रतिभावान छात्र जटिल विषयों में स्नातकोत्तर करना ही नहीं चाहते।
जब कोई एक प्रचलित व्यवस्था संकट में आती है, तो कई संदेहास्पद सवालों का उठना लाजिमी है। चिकित्सा विज्ञान स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में खाली सीटें रह जाने के पीछे एक कारण छात्रों की रुचि नहीं होना भी है। इस परिप्रेक्ष्य में 2015-16 में शल्य चिकित्सा (हृदय) में एक सौ चार, हृदय रोग विशेषज्ञ में पचपन, बाल रोग विशेषज्ञ में सत्तासी, प्लास्टिक सर्जरी में 58, स्नायु-तंत्र विशेषज्ञ में अड़तालीस और स्नायु तंत्र शल्यक्रिया विशेषज्ञों की भी अड़तालीस सीटें खाली रह गर्इं थीं। इस कमी के दो कारण गिनाए गए थे।
एक तो यह कि इन पाठ्यक्रमों की प्रवेश परीक्षा के लिए योग्य अभ्यर्थी पर्याप्त संख्या में नहीं मिले और दूसरा यह कि स्नातकोत्तर के लिए जो योग्य विद्यार्थी मिले भी, उन्होंने इन पाठ्यक्रमों में पढ़ने से मना कर दिया। अब एक हजार चार सौ छप्पन सीटें खाली रहने के पीछे योग्य विद्यार्थियों का उपलब्ध नहीं होना बताया है। आखिर क्या कारण हैं कि चिकित्सा शिक्षा में अनेक सुविधाएं बढ़ जाने के बावजूद गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का संकट गहराता जा रहा है?
चिकित्सा विशेषज्ञों का मानना है कि आज के विद्यार्थी उन पाठ्यक्रमों में अध्ययन करना नहीं चाहते, जिनमें विशेषज्ञता हासिल करने में लंबा समय लगता है। इसके उलट वे ऐसे पाठ्यक्रमों में दक्षता हासिल करना चाहते हैं, जहां जल्दी ही विशेषज्ञता की उपाधि मिल जाए और धन कमाने के अवसर मिल सकें। गुर्दा, नाक, कान, दांत, गला रोग एवं विभिन्न तकनीकी जांच विशेषज्ञ पैंतीस साल की उम्र पर पहुंचने के बाद शल्य क्रिया शुरू कर देते हैं, जबकि हृदय और तांत्रिका-तंत्र विशेषयज्ञों को यह अवसर चालीस-पैंतालीस साल की उम्र के बाद मिल पाता है।
साफ है, दिल और दिमाग का मामला बेहद नाजुक है, इसलिए इनमें लंबा अनुभव भी जरूरी है। लेकिन यह समस्या अनवरत बनी रही तो भविष्य में इन रोगों के उपचार से जुड़े चिकित्सकों की कमी पड़ना तय है। इस व्यवस्था में कमी कहां है, इसे ढूंढ़ना और फिर उसका निराकरण करना तो सरकार और ऐलौपैथी शिक्षा से जुड़े लोगों का काम है। लेकिन फिलहाल इसके कारणों की पृष्ठभूमि में भारतीय चिकित्सा परिषद् को खारिज कर 'राष्ट्रीय चिकित्सा परिषद्' बनाना और चिकित्सा शिक्षा का लगातार मंहगे होते जाना तो नहीं?
एनएमसी का गठन साल 2016 में किया गया था। इसका मकसद चिकित्सा शिक्षा के गिरते स्तर को सुधारना, इस पेशे को भ्रष्ट्राचार मुक्त बनाना और निजी चिकित्सा महाविद्यालयों के अनैतिक गठजोड़ को तोड़ना था। लेकिन जब एनएमसी कानून के रूप में आया तो इसमें एक बड़ा लोचा यह रह गया कि आयुर्वेद, होम्योपैथी और यूनानी चिकित्सक भी सरकारी स्तर पर सेतु पाठ्यक्रम (ब्रिज कोर्स) करके वैधानिक रूप से ऐलौपेथी चिकित्सा करने का हक पा लेते हैं। यह सिलसिला स्वयंसेवी संगठनों के माध्यम से देशभर में चल भी पड़ा।
इस पाठ्यक्रम की पच्चीस हजार रुपए है। हालांकि अभी भी इनमें से ज्यादातर चिकित्सक बेखटके एलौपैथी की दवाएं लिखते हैं, किंतु यह व्यवस्था अभी गैर-कानूनी है और जिले के सरकारी स्वास्थ्य विभाग के कदाचरण पर चलती है। संभव है, इस विरोधाभास को खत्म करने और गैर-कानूनी इलाज को कानूनी बना देने के नजरिए से ही इस कानून में सेतु-पाठ्यक्रम की सुविधा देकर इन्हें ऐलोपैथी चिकित्सा की वैधता प्रदान करना रहा हो? इसीलिए सवाल उठा कि क्या किसी साधारण आटो-टैक्सी लाइसेंसधारी चालक को कुछ समय का प्रशिक्षण देकर हवाई जहाज चलाने की अनुमति दी जा सकती है? दरअसल, उपचार की हरेक पद्धति एक वैज्ञानिक पद्धति है और सैकड़ों साल के प्रयोगों व प्रशिक्षण से वह परिपूर्ण हुई हैं। सबकी पढ़ाई भिन्न हैं। रोग के लक्षणों को जानने के तरीके भिन्न हैं और दवाएं भी भिन्न हैं। ऐसे में चार-छह माह की भिन्न पढ़ाई करके कोई भी वैकल्पिक चिकित्सक ऐलौपैथी का चिकित्सक या विशेषज्ञ कैसे बन सकता है?
एमबीबीएस और इससे जुड़े विषयों में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में प्रवेश की परीक्षा काफी कठिन होती है। एमबीबीएस में कुल सड़सठ हजार दो सौ अठारह सीटें हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के निर्धारित मानक के अनुसार एक हजार की आबादी पर एक चिकित्सक होना चाहिए, जबकि हमारे यहां यह अनुपात 0.62 का है। 2015 में राज्यसभा में तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने बताया था कि देश में चौदह लाख एलोपैथिक चिकित्सकों की कमी है। किंतु अब यह आंकड़ा बीस लाख के पार निकल गया है। इसी तरह देश में चालीस लाख नर्सों की कमी है। सरकारी जिला अस्पतालों से लेकर अन्य सभी स्वास्थ्य केंद्रों पर तकनीशियन की पूर्ति उपकरणों के अनुपात में नहीं हुई।
देखा जाए तो एमबीबीएस शिक्षा के साथ कई तरह के खिलवाड़ हो रहे हैं। कायदे से मेडिकल कालेज में उन्हीं छात्रों को प्रवेश मिलना चाहिए जो सीटों की संख्या के अनुसार नीट परीक्षा से चयनित हुए हैं। लेकिन आलम है कि जो छात्र दो लाख से भी ऊपर की रैंक में हैं, उसे भी धन के बूते प्रवेश मिल जा रहा है। यह स्थिति इसलिए बनी हुई है क्योंकि जो मेधावी छात्र निजी कालेज का शुल्क अदा करने में सक्षम नहीं हैं, वे मजबूरी वश अपनी सीट छोड़ देते हैं। बाद में इसी सीट को निचली श्रेणी में स्थान प्राप्त छात्र खरीद कर प्रवेश पा जाते हैं।
इस सीट की कीमत साठ लाख से एक करोड़ तक होती है। वैसे देश के सरकारी कालेजों की एक साल की फीस महज चार लाख है, जबकि निजी विश्वविद्यालय और महाविद्यालयों में यही शुल्क चौंसठ लाख रुपए है। यही धांधली एनआरआइ और अल्पसंख्यक कोटे के छात्रों के साथ बरती जा रही है। एमडी में प्रवेश के लिए निजी संस्थानों में जो प्रबंधन के अधिकार क्षेत्र और अनुदान आधारित सीटें हैं, उनमें प्रवेश शुल्क की राशि दो करोड़ से पांच करोड़ है।
एक ओर तो हम आरक्षण के नाम पर जाति आधारित योग्यता व अयोग्यता का ढिंढोरा पीटते हैं, वहीं दूसरी तरफ इस कानून के जरिए में निजी महाविद्यालयों को साठ फीसद सीटें प्रबंधन की मनमर्जी से भरने की छूट मिल गई है। अब केवल चालीस फीसदी सीटें ही प्रतियोगी परीक्षा के माध्ययम से भरी जाएंगी। साफ है, प्रबंधन उसके अधिकार क्षेत्र में आई साठ फीसद सीटों की खुल्लम-खुल्ला नीलामी करेगा। नतीजतन इस कानून असर पीजी सीटें खाली रह जाने के रूप में अब साफ दिखने लगा है। यह स्थिति देश की भावी स्वास्थ्य सेवा को संकट में डालने के संकेत हैं। दरअसल चिकित्सा शिक्षा में ऐसे सुधार दिखने चाहिए थे, जो इसमें धन से प्रवेश के रास्तों को बंद करते।