अंध-राष्ट्रवाद की भूलभुलैया

देश की सीमाओं की रक्षा करना सरकार का एक महत्वपूर्ण दायित्व होता है।

Update: 2021-02-23 08:50 GMT

देश की सीमाओं की रक्षा करना सरकार का एक महत्वपूर्ण दायित्व होता है। अक्सर सरकार की लोकप्रियता के भिन्न पैमानों में एक यह भी होता है कि उसने सीमाओं की रक्षा किस हद तक की है। यह अलग बात है कि जमीन पर सीमा निर्धारण से लेकर उसकी हिफाजत के तौर-तरीकों तक की समझ विकसित करने में सरकारें ही जनता की 'मदद' करती हैं। कई बार यह मदद एक ऐसे दुश्चक्र का निर्माण कर देती है, जिसमें फंसकर सरकारें सीमा से जुडे़ दूसरे महत्वपूर्ण दायित्व को नजरंदाज करने लगती हैं। वे भूल जाती हैं कि जितना महत्वपूर्ण सीमाओं की रक्षा है, उससे कम अपने पड़ोसियों के साथ चल रहे सीमा विवादों का हल ढूंढ़ना नहीं है।

एक राष्ट्र-राज्य के रूप में भारत के सामने सीमा चुनौतियां दो कालखंडों में आईं। पहली तो उपनिवेश के रूप में मिली, जब दिल्ली पर काबिज एक तत्कालीन विश्व ताकत ने आस-पास के कमजोर शासकों से अपने अंतरराष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर सीमा-समझौते किए। इनमें दो सबसे महत्वपूर्ण थे। पहले के अंतर्गत अफगानिस्तान और भारत के बीच डूरंड लाइन खींची गई और दूसरा, तिब्बत व भारत के मध्य की मैकमोहन लाइन से जुड़ा है। इस लाइन ने उत्तर-पश्चिम से लेकर उत्तर-पूर्व तक फैले हिमालय पर्वत की शृंखलाओं के 3,000 किलोमीटर से भी अधिक क्षेत्र में फैली सीमाएं निर्धारित की।
देश के विभाजन के बाद पहले पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश के साथ सीमाएं तय करने की जरूरत पड़ी। पाकिस्तान बन जाने के बाद डूरंड लाइन तो भारत के लिए अप्रासंगिक हो गई है, पर इस तथ्य को रेखांकित करना जरूरी है कि म्यांमार को छोड़कर अपने हर पड़ोसी से, जिनसे थल सीमा मिलती है, हमारे विवाद हैं। आजादी के बाद की हमारी सरकारों के लिए क्या यह नहीं कहा जाना चाहिए कि उन्होंने देश की अखंडता की तो बखूबी रक्षा की, पर पड़ोसियों के साथ सीमा विवादों को हल करने में बुरी तरह से असफल रही हैं। गलवान में झड़प के बाद छह से सात महीनों तक देश के साथ पूरा विश्व दम साधे किसी अनहोनी की आशंका में डूबा था। शून्य से काफी नीचे हाड़ कंपाती ठंड में पचास हजार से अधिक भारतीय सैनिक लगभग इतने ही चीनी सैनिकों की आंखों में आंखें डालकर महीनों खडे़ रहे। असावधानी से भी चली एक गोली दो परमाणु बम संपन्न और दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाले इन पड़ोसियों के साथ हमारी दुनिया को महाविनाश की विभीषिका में झोंक सकती थी।
गनीमत ही कही जा सकती है कि दोनों पक्षों ने कुछ पीछे हटने का फैसला किया। पर एक रिटायर्ड फौजी अफसर के अनुसार, अगर यह समझौता सिर्फ एक छोटे से क्षेत्र के लिए है, तो इसका कोई अर्थ नहीं। यह सार्थक तभी होगा, जब इसे विस्तार देते हुए पूरी भारत-चीन सीमा तक ले जाया जाए।
भारत-चीन सीमा विवाद के हल की कामना करने से पहले हमें उसे समझना होगा। इस विवाद की जड़ में मैकमोहन लाइन है, जो 1914 में भारत-तिब्बत (और चीन) के प्रतिनिधियों के बीच शिमला में हुए एक समझौते के फलस्वरूप अस्तित्व में आई थी। इस सीमा-रेखा की भारतीय और चीनी समझ में अंतर के फलस्वरूप ही विवाद होते हैं और यही बिगड़ने पर संघर्षों का रूप ले लेते हैं। मैकमोहन लाइन को पवित्र मानने के पहले हमें दो तथ्यों को ध्यान में रखना होगा। पहला तो यह कि समझौता दो असमान शक्तियों के बीच हुआ था। मेज पर एक तरफ तत्कालीन विश्व की सबसे ताकतवर ब्रिटिश हुकूमत बैठी थी, जो भारत का प्रतिनिधित्व कर रही थी, तो दूसरी तरफ, हर तरह से कमजोर तिब्बत था।
एक तीसरा पक्ष भी था, जो दूसरे की ही तरह कमजोर था और यह चीन था, जिसका प्रतिनिधि वार्तालाप के दौरान बिना दस्तखत किए ही भाग गया। इस समझौते को चीन ने आजाद होने के बाद कभी मंजूर नहीं किया और हमेशा एक ताकतवर द्वारा हाथ मरोड़कर कराया गया माना।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि 1949 के बाद दोनों देश मैकमोहन लाइन पर लचीला रुख अपनाकर कई बार स्थाई समझौते तक पहुंच चुके हैं और हर बार अंध-राष्ट्रवाद की आंधी चलाकर नासमझ राजनीतिक शक्तियों ने इसे असंभव बना दिया। साल 1959 में चीनी प्रधानमंत्री चाउ एनलाई की दिल्ली यात्रा के विवरण उपलब्ध हैं। इनके मुताबिक, वह नई दिल्ली में एक प्रस्ताव के साथ निर्णय लेने वाले केंद्रीय मंत्रियों की कोठियों पर भटकते रहे।
एक महत्वपूर्ण मंत्री ने तो उनसे मिलने से ही इनकार कर दिया। दूसरे ताकतवर मंत्री ने प्रधानमंत्री नेहरू को शौचालय के अंदर से ही जवाब दे दिया कि उन्हें चाउ एनलाई का प्रस्ताव स्वीकार नहीं करना चाहिए। क्या देश की जनता को यह जानकर धक्का नहीं लगेगा कि आज जिस आधार पर भारतीय और चीनी सेनाओं ने अपने को पीछे किया है, वह तो वही है, जिसका प्रस्ताव 1959 में चीन ने दिया था? एक कार्यक्रम में लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) एच एस पनाग ने इस तथ्य को उजागर किया है।
पनाग के अनुसार, सेना मुख्यालय में टंगे नक्शों में इस इलाके को 'चीन द्वारा दावा किया गया क्षेत्र' दर्शाया गया है। इसी इंटरव्यू में उन्होंने यह भी कहा कि भारत सामरिक रूप से इतना मजबूत तो है कि चीन को किसी बड़ी विजय से रोक सके, मगर यह दावा कि वह एक साथ दो मोर्चों (पाकिस्तान व चीन) पर लड़ सकता है, वास्तविकता से दूर है।
जिस कार्यक्रम में जनरल पनाग यह बता रहे थे, उसमें रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल डी एस हुड्डा भी मौजूद थे और उनकी खामोशी इन दावों पर मुहर लगा रही थी। राष्ट्रप्रेम एक उदात्त भावना है, पर अंध-राष्ट्रवाद हमें आत्महत्या के लिए प्रेरित कर सकता है। जब जवाहरलाल नेहरू ने आक्साई चिन के लिए कहा कि वहां तो घास का एक तिनका भी नहीं उगता, तो उन्हें कांग्रेस के ही एक सांसद का व्यंग्य सुनना पड़ा था।
1962 की शर्मनाक हार का देश के मनोबल पर क्या असर पड़ा, हमें कभी भूलना नहीं चाहिए। इतिहास दोहराने के बजाय, सरकार को युद्ध के लिए कूद पड़ने को मजबूर करने के बजाय यह याद दिलाते रहना होगा कि उसके लिए जितना जरूरी सीमाओं की हिफाजत करना है, उससे कम जरूरी सीमा विवादों को हल करना नहीं है। थोड़ा लचीला रुख अपनाकर इसे हासिल किया जा सकता है, पर इसके लिए जनता को अंध-राष्ट्रवाद की भूलभुलैया से बाहर निकालना होगा।


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