अब चुनावी मुद्दा नहीं मजदूर
भारतीय जनतांत्रिक राजनीति में मजदूर शक्ति एक वर्ग एवं कोटि के रूप में लंबे समय तक प्रभावी रही है
बद्री नारायण , निदेशक, जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान
भारतीय जनतांत्रिक राजनीति में मजदूर शक्ति एक वर्ग एवं कोटि के रूप में लंबे समय तक प्रभावी रही है। मजदूर आंदोलन से उभरे अनेक नेताओं ने एक जमाने में हमारी राजनीति को नेतृत्व एवं दिशा दी थी। राष्ट्रपति, केंद्रीय मंत्री, अनेक राज्यों के मुख्यमंत्री एवं अनेक दलों के संचालक नेता मजदूर आंदोलनों से उभरे थे। वी वी गिरी, दत्तोपंत ठेंगड़ी, जॉर्ज फर्नांडिस, बाल ठाकरे, बी टी रणदिवे, बिंदेश्वरी दुबे जैसे व्यक्तित्व मजदूर आंदोलनों से ही उभरे माने जाते हैं। मजदूर शक्ति एक जमाने में रेलवे, बैंक, फैक्टरियों एवं औद्योगिक कारखानों की संचालक शक्ति मानी जाती रही है। इसी शक्ति का एहसास करते हुए हिंदी के प्रसिद्ध कवि शैलेंद्र ने हर जोर-जुल्म के टक्कर में, हड़ताल हमारा नारा है जैसी शक्तिवान कविता लिखी थी और कानपुर के कवि शील ने मजदूर शक्ति के ही आधार पर 'नया जमाना बनाने' का सपना 1970 के दशक में देखा था। लेकिन आज मजदूर शक्ति, मजदूर राजनीति भारतीय जनतांत्रिक राजनीति के हाशिये पर आ खड़ी हुई है। पश्चिम बंगाल की राजनीति में श्रमिक राजनीति सर्वाधिक प्रभावी रही है, लेकिन वहां भी अब उसकी धमक न के बराबर सुनाई पड़ती है।
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव चल रहा है। यह चुनाव गाजियाबाद एवं आगरा से होते हुए अपने तृतीय चरण में जिस कानपुर में आ पहुंचा है, वह एक जमाने में श्रमिक राजनीति के प्रभाव का क्षेत्र था। लाल इमली एवं चमड़ा व्यवसाय से जुड़ी अनेक फैक्टरियां एवं उनमें काम करने वाले श्रमिक इस क्षेत्र की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। आगरा और गाजियाबाद तो आज भी श्रमिकों के महत्वपूर्ण केंद्र हैं, किंतु इन सभी केंद्रों एवं क्षेत्रों की चुनावी राजनीति में आज 'मजदूर' शब्द शायद ही आपको सुनने को मिले। मजदूर की जगह जातियां यहां चुनाव विमर्श के केंद्र में आ गई हैं। दलित, पिछड़ी जातियां, ऊंची जातियां यहां के चुनावों की व्यूह रचना एवं चुनावों को देखने, समझने का माध्यम बन चुकी हैं।
भारतीय राजनीति में मजदूर कोटि के हाशिये पर जाने का कारण क्या है? क्या श्रमिक संख्या कम हो गई है? अगर आंकड़े देखें, तो श्रमिक संख्या कम नहीं हुई है। विश्व बैंक के एक आंकड़े के अनुसार, 2020 में भारत में श्रमिकों की संख्या 47,16,88,990 थी। मगर एक फर्क आया है, जहां 1990 के दशक से पहले ज्यादातर श्रम शक्ति उत्पादक फैक्टरी, सार्वजनिक उपक्रमों, औद्योगिक कारखानों, रेलवे इत्यादि में काम करती थी, वहीं आज हमारे देश की ज्यादातर श्रमिक शक्ति औपचारिक सेक्टर में कार्यरत है। 2018-19 के आर्थिक सर्वे के अनुसार, हमारे देश की 93 प्रतिशत श्रम शक्ति असंगठित क्षेत्र में कार्यरत है। नीति आयोग के आंकड़े के अनुसार, इनकी संख्या 85 प्रतिशत एवं राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के अनुसार, असंगठित क्षेत्र में कार्यरत श्रमिकों की संख्या 90 प्रतिशत मानी गई है।
इस परिवर्तन के दो परिणाम हुए। एक तो 1990 के दशक से पहले श्रमिक बड़ी संख्या में किसी फैक्टरी, किसी उद्योग में एक साथ काम करते थे, ऐसे में, उनका संगठित होना एवं संगठित होकर अपनी आवाज उठाना उनके लिए आसान था। दूसरे, हमारी ज्यादातर श्रम शक्ति के असंगठित क्षेत्र में होने से उनके संगठित होने की क्षमता कम हो गई है। तीसरे, सरकारी उद्योगों, बड़ी निजी कंपनियों में श्रम नियमों में आए अनेक परिवर्तनों ने श्रमिक राजनीति पर प्रभाव डाला है। सरकारी एवं निजी उद्यमों, कॉरपोरेट्स एवं फैक्टरियों में उदार अर्थव्यवस्था के आने के बाद से अनुबंध नौकरी की प्रथा ने भी श्रमिक वर्ग में निहित दबाव, शक्ति एवं संवाद की क्षमता को कमजोर किया है।
भारत में मजदूरों की राजनीति के कमजोर होने का एक और कारण यह माना जाता है कि इनके बीच प्रभावी अनेक ट्रेड यूनियनों की राजनीति ने मजदूरों की शक्ति को गहरे आर्थिकवाद के प्रभाव में लाकर खड़ा कर दिया। इसमें मजदूर अपनी वेतन वृद्धि, पेंशन, डीए जैसे सवालों पर आंदोलित तो होता था, लेकिन समाज के अन्य वर्गों के साथ उसका साझा रिश्ता नहीं बन पाता था। समाज के अन्य प्रश्नों पर वह प्राय: चुप रह जाता था। फलत: उसके भीतर राजनीतिक चेतना कुंद होते हुए मात्र अति आर्थिकवाद की शिकार होकर रह गई। फलत: समाज शक्ति से मजदूर शक्ति का रिश्ता कमजोर हो गया। अब इसमें कोई दोराय नहीं है कि संगठित क्षेत्र के विस्तार ने भारत में श्रमि शक्ति एवं उसकी आवाज के मूल्य को कमजोर किया है। भारत में बाजारवाद के आक्रामक होने के बाद से श्रमिक शक्ति अपने भीतर निहित संवाद व संघर्ष की क्षमता लगातार खोती गई है।
यह ठीक है कि आज भी श्रमिकों के संगठन सक्रिय हैं। एटक, इंटक, सीटू एवं हिंद मजदूर सभा (एचएमएस) श्रमिकों के प्रश्नों को उठा रहे हैं, लेकिन भारतीय राजनीति में आज इनकी शक्ति उतनी प्रभावी नहीं रह गई है। 1990 के बाद से सत्ता एवं सरकारों में भी उनकी धमक कम हो गई है। इसका असर भारतीय राजनीति में उनकी भूमिका के निर्धारण पर भी पड़ा है। राजनीतिक दलों द्वारा चुनावों में मजदूर नेताओं की टिकट, मंत्रालयों में जगह इत्यादि अनेक प्रकार की हिस्सेदारी कम हुई है। अब तो जनतांत्रिक राजनीति में कुछ गिने-चुने नेता ही प्रभावी रूप से दिखाई पड़ते हैं, जो मजदूर आंदोलनों से उभरे हैं। हाल के वर्षों में न तो कोई बड़ा मजदूर आंदोलन हुआ दिखता है और न किसी राजनीतिक पार्टी का मजदूर संगठन अपनी आवाज उठाने के लिए मजबूत स्थिति में है। मजदूर आज ऐसा वर्ग नहीं है, जिसके लिए राजनीतिक पार्टियां सजग और सक्रिय हों। गौर कीजिए, मजदूर या मजदूरी के मुद्दे पर आज कोई राजनीतिक दल वोट नहीं मांग रहा है। स्वयं मजदूरों के लिए मजदूर अधिकार व सुविधा जैसे मुद्दे महत्वपूर्ण नहीं रह गए हैैं।
भारतीय जनतंत्र में उसकी वोट शक्ति अब मजदूर शक्ति का प्रतिनिधित्व नहीं करती, वरन वह जाति, धर्म एवं क्षेत्रीय अस्मिताओं का प्रतिनिधित्व करती दिखाई पड़ती है। 1990 के बाद उभरे अनेक अस्मितापरक विमर्शों यथा दलित विमर्श, स्त्री विमर्श इत्यादि के उभरने से भी भारत में मजदूर एवं गरीब केंद्रित विमर्श विभाजित हुआ है। अत: भारत में मजदूर शक्ति अपनी धारणा और यथार्थ, दोनों स्तरों पर शक्तिहीन हुई है। फलत: भारतीय जनतांत्रिक एवं चुनावी विमर्शों में भी वह लगातार हाशिये की ओर बढ़ती गई है। देखना है, क्या आने वाले दिनों में असंगठित क्षेत्र में कार्यरत भारतीय समाज की श्रम शक्ति अपने मत के मूल्य को जातिगत एवं धार्मिक मूल्य से ज्यादा श्रमिक मूल्य के रूप में बदल पाएगी?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)