कीर्तिशेष महाकवि मौजानंद जी
मौजानंदी जी महाकवि को आज कौन नहीं जानता। साहित्य की गोष्ठी हो या कविता पाठ का कार्यक्रम
मौजानंदी जी महाकवि को आज कौन नहीं जानता। साहित्य की गोष्ठी हो या कविता पाठ का कार्यक्रम, मौजानंद जी अपनी-अपनी मौज में गुल-गुल गाते मिल जाएंगे। कम समय में ही उन्होंने जो ख्याति पाई है, वह बिरलों के भाग्य में ही होती है। साठ साल की आयु से शुरू हुआ लेखन अल्पसमय में ही परिपक्व हो गया है। लोग उन्हें अब तो महाकवि की उपाधि भी मानद् रूप से प्रदान कर चुके हैं। घुटनों तक लंबे मोजे पहनकर जब वे साहित्य की चर्चा करते हैं तो लोगों के हाथों के तोते उड़ जाते हैं। उनकी धीर गंभीर मुद्रा में साहित्य खिलता भी खूब है। कविता उनकी रग-रग में रच-बस गई है। सब कुछ ठीक है, लेकिन एक रंज मुझे उनका पड़ौसी होने का जीवनभर सालता रहेगा। काश! मैं उनके ठीक सामने वाले मकान में नहीं रहा होता, लेकिन मकान मेरा पुश्तैनी है और उसे मैं छोड़ भी नहीं सकता। यदि मैं थोड़ा भी सक्षम होता तो सबसे पहले अपना नया मकान उनके निवास से बीस किलोमीटर की दूरी पर बनवाता, लेकिन होनी बलवान होती है और उसे टालना आदमी के वश की बात भी नहीं है। महाकवि मौजानंद कोई बुरे आदमी नहीं हैं, बस वे कवि हैं-यही त्रासद है।