पांच राज्यों में क्षेत्रीय दल बने किंगमेकर तो UPA से भी खत्म होगा कांग्रेस का वर्चस्व

पांच राज्यों के चुनाव पर सबकी नजर

Update: 2021-03-25 16:03 GMT

जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं वहां सबसे बड़ा दांव कांग्रेस के साथ लगा हुआ है. कांग्रेस पार्टी में ग्रुप 23 के असंतुष्ट तो गांधी परिवार के खिलाफ बिगुल बजाने का रास्ता देख ही रहे हैं, हाल के ही दिनों में मराठा क्षत्रप एनसीपी के सुप्रीमो शरद पवार की महात्वाकांक्षा भी कुलांचे मार रही है. अगर महाराष्ट्र की राजनीति का गौर से विश्लेषण करें तो शरद पवार यूपीए का चेयरपरसन बनने के लिए मचल रहे हैं. उनकी इस मंशा पर बस मुहर लगनी ही शेष रह गई है जो कुछ दिनों में होने जा रहे 5 राज्यों में विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की सफलता-असफलता पर निर्भर करेगी.


कांग्रेस कम से कम एक स्टेट में भी सत्ता पाने में सफल हो जाती है तो हो सकता है कि इन दोनों संकटों से पार पा जाएं पर ऐसा नहीं होता है तो भारतीय राजनीति में एक नया दौर शुरू होने से कोई रोक नहीं पाएगा. यह दौर क्षेत्रीय दलों के वर्चस्व वाली राजनीति का होगा. हो सकता है कि शरद पवार , ममता बनर्जी या कोई ऐसा ही चेहरा उभर कर आए जो भारतीय जनता पार्टी के विस्तार को रोकने के लिए दूसरी पार्टियों को एक मोर्चे के नीचे लाकर देश के नागरिकों को एक विकल्प दे सके.

पांच राज्यों के चुनाव पर सबकी नजर
5 राज्यों में होने वाले इन चुनावों में जिन क्षेत्रीय पार्टियों पर सबकी नजर है उसमें सबसे महत्वपूर्ण हैं टीएमसी और डीएमके. पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी अगर इन चुनावों में जीत की हैट्रिक लगाने में सफल होती हैं तो निश्चित रूप से विपक्ष की सबसे ताकतवर नेताओं में अपने को स्थापित करेंगी. वैसे भी टीएमसी 2014 के आम चुनावों के बाद देश में बीजेपी और कांग्रेस के बाद तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थीं. 2019 में भी वो चौथी सबसे बड़ी पार्टी थी. दक्षिण की दूसरी पार्टी जिसपर देश भर की निगाहे हैं वो है डीएमके. इस बार डीएमके बिना करुणानिधि के चुनाव लड़ रही है. डीएमके में इस समय स्टालिन का दबदबा है. आम चुनावों में 23 सीटें जीतकर उन्होंने पहले ही अपना रसूख सबको दिखा दिया है. एआईडीएमके के 10 साल शासन को समाप्त कर अगर डीएमके सत्ता में आती है तो निश्चित रूप से इसे स्टालिन का करिष्मा ही माना जाएगा.

इन बड़ी पार्टियों के अलावा असम में बदरुद्दीन अजमल की पार्टी एआईयूडीएएफ , असम गण परिषद और बोडो परिषद की सफलता पर भी राजनीतिक विश्लेषकों की नजर है. अगर बीजेपी और कांग्रेस कमजोर होती है तो इन दलों में से किसी के पास सत्ता की चाभी जा सकती है. पुडुचेरी में भी एनआर कांग्रेस जैसी पार्टी भी सत्ता की दौड़ में आगे चल रही है. केरल में भी यूडीएफ और एलडीएफ दोनों गठबंधन के सहारे हैं.

कांग्रेस के गठबंधन ने कई क्षेत्रीय पार्टियां संकट में फंसीं
आपको याद होगा इन विधानसभा चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश और बिहार में भी विधानसभा चुनाव हुए थे जिसमें कांग्रेस उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बिहार में राष्ट्रीय जनता दल से गठबंधन में चुनाव लड़ रही थी . इन दोनों प्रदेशों का रिजल्ट से कांग्रेस को भारी झटका लगा. इन राज्यों में कांग्रेस के गठबंधन वाली क्षेत्रीय पार्टियां कुछ और सीटें जीत सकती थी पर कांग्रेस के हिस्से वाली सीटों पर उन्हें हार मिली.

बिना कांग्रेस के थर्ड फ्रंट की मांग
देश में कमजोर पड़ते कांग्रेस को देखते हुए क्षेत्रीय दलों ने बिना कांग्रेस और बीजेपी के एक गठबंधन के बारे में कई बार विचार किया. कभी ममता बनर्जी तो कभी तेलंगाना के मुख्यमंत्री ने पहल की. दरअसल कई क्षेत्रीय दल ऐसे हैं जिनकी विचारधारा ना तो कांग्रेस से मिलती है नहीं भारतीय जनता पार्टी से, वह चाहती हैं कि हर राज्य में केवल क्षेत्रीय दलों का ही वर्चस्व हो. इस वक्त कई ऐसे क्षेत्रीय दल हैं जो न तो कांग्रेस के साथ जाना चाहते हैं न कि वह भारतीय जनता पार्टी के साथ खड़ा होना चाहते हैं. इनमें तृणमूल कांग्रेस, शिवसेना और अकाली दल मुख्य हैं. अगर कोई ऐसा थर्ड फ्रंट बनता है जिसका नेतृत्व क्षेत्रीय दल के किसी बड़े नेता के हाथ में होगा तो पूरी उम्मीद की जा सकती है कि कई राज्यों के क्षेत्रीय दल एस थर्ड फ्रंट में शामिल होंगे.


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