आदित्य चोपड़ा: आजाद भारत ने जब संसदीय लोकतन्त्र की प्रणाली को अपनाया तो लक्ष्य बहुत स्पष्ट था कि इसके माध्यम से स्वतन्त्र देश के नागरिक अपने लिए अपनी ऐसी सरकार गठित कर सकें जो उनके ही प्रति उत्तरदायी हो। यह व्यवस्था राष्ट्रपति प्रणाली के लोकतन्त्र में संभव नहीं थी। अतः संसद में लोगों द्वारा चुने गये अपने प्रतिनिधि भेजकर उनमें से ही शासन करने वालों को चुनने की प्रणाली को अपनाया गया और सत्ता चलाने वालों को चुने हुए प्रतिनिधियों के प्रति जवाबदेह बनाया गया और इस प्रकार बनाया गया कि प्रत्येक चुना हुआ प्रतिनिधि सरकार की जवाबदेही तय करने में स्वयं में संप्रभु हो। संसद के जिस सदन में चुनकर वह प्रतिनिधि जाता है उसकी संप्रभुता भी हमारे संविधान निर्माता पुरखों ने इस प्रकार नियत की कि इसके भीतर की कार्यवाही सर्वदा संविधान के दायरे में ही रहे जिसके लिए संसद के दोनों सदनों के सभापतियों को कार्यवाही को सदैव संशय के किसी भी घेरे में आने से रोकने के लिए विशिष्ट कार्यपालक व न्यायिक अधिकार दिये गये।संसद सार्वभौम रहने के साथ जनता के प्रति सीधे जवाबदेह बनी रहे इसी वजह से इसमें चुनकर आने वाले प्रतिनिधियों को भी वे विशेषाधिकार दिये गये जिनके माध्यम से वे अपनी ही सरकार की जिम्मेदारी जनता के प्रति सुनिश्चित करा सकें और बिना किसी भय या लगाव के सीधे अपनी बात कह सकें। इन अधिकारों की व्याख्या सीधे संविधान के अनुच्छेद 105 में की गई और संसद के भीतर संसद सदस्य को पूर्णतः निडर व निर्भय बनाया गया। हालांकि बाद में 80 के दशक में जब दल-बदल विरोधी कानून बना तो सांसदों के कई अधिकारों से परोक्ष रूप से समझौते भी किये गये मगर इसके बावजूद संसद परिधि में सांसदों के वे मूल अधिकार आज भी सुरक्षित हैं जिनकी व्यवस्था अनुच्छेद 105 में की गई है। इनमें सबसे बड़ा अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का ही है जिसके अनुसार संसद के भीतर कोई भी सांसद (सत्ता या विपक्ष का) अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए खुद को मिली सूचनाओं व जानकारियों के आधार पर सरकार या सत्ता से सवाल कर सकता है। इसके समानान्तर इन सवालों की शुचिता बनाये रखने के लिए संविधान ने ही संसद के दोनों सदनों के सभापतियों को भी दोनों सदनों को चलाने के नियम तय करते समय ये अधिकार दिये कि वे पूछे गये सवालों पवित्रता स्वविवेक से निर्दिष्ट नियमावली के तहत माप सकते हैं। परन्तु किसी भी हालत में वे सत्ता या विपक्ष की जिम्मेदारी नहीं निभा सकते, उन्हें हर हालत में निष्पक्ष रहना होगा तटस्थ नहीं क्योंकि सदन चलाते समय वह न्यायाधीश की भूमिका भी निभाते हैं। उनका कोई भी फैसला सभी पक्षों को मान्य होता है, यदि तब भी किसी पक्ष को कोई शिकायत हो तो उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया जा सकता है।आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि भारत 1952 की पहली ही संसद में तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष श्री जी.वी. मावलंकर के विरुद्ध विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव यह जानते हुए ले आया था कि उस समय कांग्रेस के प्रबल बहुमत को देखते हुए उसे किसी भी कीमत पर पारित नहीं कराया जा सकता है। परन्तु वह समय नये भारत के नये सफर का था और तत्कालीन राजनैतिक नेता दुनिया को यह बताना चाहते थे कि भारत ही दुनिया का सबसे बड़ा संसदीय लोकतन्त्र है, अतः वह एेसी स्वस्थ परंपराएं डाल रहे थे कि भारत की आने वाली पीढि़यां उनका अनुसरण करते हुए इस प्रणाली को और मजबूत बनायें। मगर वर्तमान सन्दर्भों में संसद के भीतर जो कुछ भी चल रहा है उसके गफलत में पड़ने के संकेत भी जा रहे हैं जिनका निराकरण किया जाना बहुत जरूरी है क्योंकि इसके साथ भारत की अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा भी जुड़ी हुई है। भारत एेसे जीवन्त लोकतन्त्र का देश माना जाता है जिसकी साख जमाने में हमें पूरी पौनी सदी लगी है। इसकी संसद के सदस्यों की पूरी लोकतान्त्रिक दुनिया में बहुत ऊंचा सम्मान है। यह बेवजह नहीं है कि जब भी कोई विपक्ष का सांसद विदेश दौरे पर जाता है तो वह वहां खड़े होकर अपने विरोधी दल की भारत में बनी सरकार की आलोचना भूलकर भी नहीं करता और केवल सरकार की नीतियों का ही गुणगान करता है क्योंकि विदेशों में न कोई मोदी सरकार होती है या मनमोहन सरकार होती है बल्कि केवल 'भारत' की सरकार होती है।जन- हितकारी बजटराष्ट विकास मे क्षेत्रीय योगदानसमाज का वीभत्स चेहराहमारी संसदीय प्रणाली के भीतर भी यही गुण समाविष्ट है। संसद से बाहर हर सांसद केवल सांसद होता है और वह अपने चुनाव क्षेत्र के लाखों लोगों का प्रतिनििध होता है फिर चाहे वह सत्तारूढ़ दल का हो अथवा विरोधी दल का। विचारणीय प्रश्न यह है कि लोकतन्त्र में हर पांच साल बाद चुनाव होते हैं (जरूरत पड़ने पर मध्यावधि चुनाव भी हो जाते हैं)। अतः राजनैतिक दलों में पाला बदल होता रहता है मगर इस वजह से संसद के नियम कभी नहीं बदलते हैं। इस बारे में हमें स्व. प्रधानमन्त्री भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी की वह उक्ति हमेशा याद रखनी चाहिए कि पाला बदलने से खेल के नियम नहीं बदल जाते हैं। अतः अपने संसदीय लोकतन्त्र को मजबूत बनाने की हर संसद सदस्य की जिम्मेदारी भी होती है और अपने अधिकारों का इस्तेमाल करके वह इस जिम्मेदारी को ही पूरा करता है। जितनी यह प्रणाली मजबूत रहेगी उतना ही इसमें लोगों का विश्वास भी मजबूत रहेगा। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि संसद की इस प्रक्रिया में सरकार का कोई लेनादेना नहीं है क्योंकि सदनों के दोनों सभापतियों की अपनी स्वायत सत्ता होती है।
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