काशी विश्वनाथ कॉरिडोर : पीएम मोदी के इस दांव से विरोधी दल मानसिक रूप से पस्त
पीएम मोदी के इस दांव से विरोधी दल मानसिक रूप से पस्त
शंभूनाथ शुक्ल।
राजनीति बच्चों का खेल नहीं है, इसको पार पाने के लिए लोगों के दिलों पर राज करना पड़ता है. इसके लिए दो ही रास्ते हैं, या तो वोटरों तक सीधी पहुंच हो या उनकी भावनाओं की नब्ज की पहचान हो. प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर भाई मोदी (NARENDRA MODI) जनता की नब्ज पकड़ने में कामयाब रहे हैं. वे जानते हैं कि विशाल जनसंख्या वाले क्षेत्र में बहुसंख्यक हिंदुओं के दिलों में कैसे उतरा जाता है. इस कला में वे इतने माहिर हैं कि जब तक उनका प्रतिद्वंद्वी उनके दांव को समझ पाता है, वे उस मोर्चे को फ़तेह कर अगली जीत की दिशा में चल देते हैं.
इसकी वजह है, उनका निरंतर राजनीति के मैदान में दांव-पेच सीखने हेतु जुटे रहना. दिव्य काशी, भव्य काशी के निहितार्थ जब तक उनके प्रतिद्वंदी पकड़ पाते तब तक उन्होंने काशी के ज़रिए पंजाब से बंगाल और सुदूर कांची से कश्मीर तक अपना संदेश पहुंचा दिया. इशारों इशारों में उन्होंने बता दिया, कि पिछले लगभग एक हज़ार साल पहले से शुरू हुए काशी विश्वनाथ मंदिर के विध्वंस के कलंक को समाप्त कर काशी का पुनः पुराना दिव्य स्वरूप प्रदान करने में वे सफल रहे हैं.
यादवों के गढ़ में सेंध
काशी के ज़रिये न सिर्फ़ उन्होंने विरोधी राजनीतिक दलों को मानसिक रूप से पस्त किया, बल्कि उन्हें विवश कर दिया कि वे भी उनके द्वारा बनाये गए रास्ते पर चलें. उत्तर प्रदेश में बीजेपी (BJP) की मुख्य प्रतिद्वंद्वी समाजवादी पार्टी (SP) है. अब जब उन्होंने काशी विश्वनाथ कॉरिडोर बना दिया तो संकेत साफ़ है कि उन्होंने काशी की एक बड़ी बिरादरी यादवों को साध लिया है. जबकि यह बिरादरी ही समाजवादी पार्टी का बेस वोटर है. काशी भले देश विदेश से आए स्कालरों की नगरी हो, हिंदू धर्म के विभिन्न संप्रदायों को मानने वाले वहां रहते हों लेकिन दो जातियों का वहां बहुमत है. एक तो बनारसी साड़ी बुनने वाला जुलाहा समुदाय, जिसमें अधिकांश मुस्लिम हैं और दूसरा काशी के दूधिये अर्थात् अधिकांशतः यादव. काशी के कोतवाल कहे जाने वाले विश्वनाथ महादेव के प्रति इन यादवों की अगाध श्रद्धा है. दूसरी तरफ़ मुस्लिम बुनकर भी चाहे कितने अपने धर्म के प्रति कट्टर हों, महादेव का नाम उन्हें प्रभावित करता है. यूं ही नहीं सुप्रसिद्ध शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ान विश्वनाथ मंदिर के प्रांगण में तन्मय होकर शहनाई की धुनें निकालते थे.
मोदी के हाथ में प्रचार की कमान
ऐसी काशी को भव्य स्वरूप प्रदान कर उन्होंने सभी विरोधियों को चित कर दिया. उत्तर प्रदेश में कुल तीन महीने बाद नई सरकार आ जाएगी, यानी हर हाल में आने वाले ढाई महीनों में वोटिंग प्रक्रिया पूरी हो जाएगी. अब बीजेपी विरोधी राजनीतिक दल जब तक उनके इस दांव की काट तलाशेंगे वे किसी अगले धोबी पाट के लिए निकल पड़ेंगे. पिछले दो महीने से समाजवादी पार्टी की विजय रथ यात्राएं पूर्वी, मध्य यूपी तथा बुंदेलखंड में धूम मचाये हैं. पार्टी मुखिया अखिलेश यादव को जैसा जन समर्थन मिल रहा था, उससे प्रदेश की योगी आदित्य नाथ सरकार परेशान तो थी ही. वह लाख अपनी जीत के दावे करे लेकिन प्रदेश के मतदाताओं में उन्हें लेकर कोई उत्साह नहीं दिख रहा था. यह ठीक है कि उत्तर प्रदेश में योगी सरकार क्राइम कंट्रोल में सफल रही. लेकिन कोविड में सरकारी इंतज़ामों की अफ़रा-तफ़री, अफ़सरशाही की बेलगाम चाल व उनके मंत्री, विधायकों का नाकारापन उनके लिए परेशानी का सबब बना हुआ था. उसके ऊपर किसान आंदोलन, जिसने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों में जड़ें जमा चुकी बीजेपी में दरारें स्पष्ट दिखने लगी थीं. और उत्तर प्रदेश में बीजेपी के पराभव की आशंका से 2024 के लोकसभा चुनाव भी घिरे हुए थे.
किसान आंदोलन के फलित भी पक्ष में
ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिसंबर से ही प्रदेश में सघन चुनावी माहौल बनाने को उतर पड़े. हालांकि अभी चुनाव की अधिकृत घोषणा भले न हुई हो लेकिन किसी भी दिन मतदान की तारीख़ें घोषित हो सकती हैं इसलिए उसके पहले ही धड़ाधड़ नई परियोजनाओं के शिलान्यास और पूरे हो चुके निर्माण कार्यों के लोकार्पण को गति दी गई. अफ़सरों की कोताही से जो काम लटके थे, उन्हें चुनाव के पहले पूरे कर लेने के आदेश दिए गए. किसान आंदोलन को समाप्त करने के लिए उन किसान क़ानूनों को वापस लिया गया, जो प्रधानमंत्री के लिए नाक का सवाल बन गए थे. यही नहीं उनकी अन्य मांगों की पूर्ति हेतु कमेटी बनाए जाने का वायदा भी किया गया.नतीजा वेस्ट यूपी के ख़फ़ा जाट अब मोदी की तारीफ़ कर रहे हैं. इसमें कोई शक नहीं कि किसान आंदोलन को लेफ़्ट (LEFT) दलों समेत कांग्रेस (CONGRESS) का भी सपोर्ट था. किंतु जिस तरह वह अंजाम तक पहुंचा, उसने काफ़ी हद तक मोदी की बीजेपी को मदद पहुंचा दी.
राहुल भी बताने लगे ख़ुद को हिंदू
दो दिन पहले राहुल गांधी (RAHUL GANDHI) ने जयपुर में कहा कि देश में इस समय हिंदुत्त्ववादियों का राज हिंदुओं का नहीं. हमें इन हिंदुत्त्ववादियों को हटा कर हिंदुओं का राज लाना होगा. महंगाई हटाओ रैली को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि वे स्वयं हिंदू हैं हिंदुत्त्ववादी नहीं. लेकिन शायद कांग्रेस का यह सुप्रीम नेता समझ नहीं पाया कि सार्वजनिक तौर पर ख़ुद को यूं हिंदू बता कर वे जाने-अनजाने बीजेपी की ही मदद कर रहे हैं. नरेंद्र मोदी की सफलता का राज यही है कि उन्होंने सभी राजनीतिक दलों के नेताओं को विवश कर दिया है, कि वे अपनी धार्मिक पहचान घोषित करें. याद करें, कि प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू अंदरखाने भले हिंदू मान्यताओं और आचार-विचार का पालन करते रहे हों किंतु उन्होंने इस तरह किसी जन सभा में स्वयं को कभी धार्मिक हिंदू नहीं कहा. जबकि उनकी चौथी पीढ़ी को आज यह पहचान बतानी पड़ रही है. नरेंद्र मोदी ने बड़े ही सधे अंदाज़ में न सिर्फ़ अपने को हिंदू कहा बल्कि खुल कर हिंदू कर्मकांड और हिंदू श्रद्धा को पुनर्जीवित कर दिया है.
जातीय नायकों के बूते सबको पाले में लाने की कोशिश
अब एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में यह सही है अथवा ग़लत, इसकी विवेचना में न जाएं मगर देश की विशाल हिंदू जनता के मन में यह बोध पैदा हो गया है, कि मोदी के रहते हिंदुओं का नुक़सान नहीं हो सकता. किसी भी राजनीतिक दल के शीर्ष नेतृत्त्व के लिए इससे बढ़ कर भला और कोई सफलता क्या होगी! मोदी आज एक विशाल संख्या के वोटरों में अपनी गहरी पैठ बना चुके हैं. यद्यपि यह भी सच है कि कई छोटे-छोटे जातीय संगठन अपनी माँगों के लिए उनके विरुद्ध भी हैं. पर जैसे ही सोमवार को काशी कॉरिडोर का उद्घाटन करते हुए उन्होंने राजा सुहेलदेव का नाम लिया, वैसे ही उन्होंने संकेत दे दिया कि भले वे सुदूर गुजरात के मूल निवासी हों लेकिन अवध साम्राज्य के राजभरों को वे भूले नहीं हैं. भारत की यही विशेषता है कि यहां पर हर बिरादरी के अपने लोक देवता और लोकनायक हैं. इतिहास की गर्त में समा चुके इन लोकनायकों को ढूंढ़े जाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. लेकिन मज़ेदार बात यह है कि इन लोकनायकों का कोई कॉमन शत्रु नहीं बल्कि अतीत में वे परस्पर एक-दूसरे के शत्रु रहे हैं.
ऐसे में आज भले वे बीजेपी को लाभ पहुंचा दें परंतु देर सबेर संभव है कि फिर इन बिरादरियों के मध्य परस्पर तनाव बढ़े, हित टकराएं तब क्या होगा? किंतु राजनेता तात्कालिक लाभ चाहता है और यही उसकी जीत है कितनी बार वह कुर्सी पर दिखा. अलबत्ता राजनीतिक सिद्धांतकारों और उस राजनीतिक दलों की वैचारिकी देखने वालों के लिए यह सोचनीय बात है. फ़िलहाल तो पहले मारे सो मीर की लाइन पर चलते हुए मोदी ने अपने रथ को आगे की दिशा में बढ़ा दिया है. अब उनके प्रतिद्वंद्वी सोचें, कि कैसे वे मैदान में डटे रहें.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. ऑर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)