By: divyahimachal
सत्ता में अभिशप्त होता आ रहा प्रदेश का सबसे बड़ा जिला कांगड़ा और इसके अधिकांश नेताओं के लिए अब खुद को साबित करने की नौबत आ गई है। हम इसे केवल एक पार्टी तक नहीं देख सकते, बल्कि यह मर्ज इस घर की दीवारों पर पूरी सियासत के लिए चस्पां है। दोषारोपण कांगड़ा पर भी है और यहां की जनता पर भी कि उसे नेता और विधायक में फर्क न•ार नहीं आता। भले ही हर सरकार में सबसे अधिक विधायक बनाने की निपुणता में कांगड़ा मेहनत कर लेता है, लेकिन सत्ता का नेता बनाने में यह जिला पूरी तरह पिछड़ा हुआ है। अन्य जिला विधायक से कहीं अधिक नेता बना रहे हैं। मंडी ने जयराम ठाकुर को नेता बनाया तो पिछले विधानसभा चुनाव में पूरा जिला भाजपा के पक्ष में खड़ा हो गया। हमीरपुर ने लगातार तीसरी बार और शिमला ने बार नेता बनाकर मुख्यमंत्री का पद सौंप दिया। कांगड़ा ने सबसे अधिक विधायक सौंपे न कि नेता बनाकर किसी को मुख्यमंत्री बनाने का श्रम किया। यह समझने की जरूरत है कि पिछली बार अगर प्रेम कुमार धूमल को सुजानपुर की जनता नेता के रूप में चुन लेती, तो राज्य की राजनीति का शृंगार क्या होता। प्रदेश की राजनीति अब इस कोशिश में है कि कांगड़ा में भले ही विधायक बढ़ जाएं, लेकिन किसी को नेता न बनने दिया जाए। इसके लिए अतीत से लेकर वर्तमान की साजिशें मशरूफ रही हैं। एक समय ऐसा भी आया जब कांगड़ा को तोडऩे के लिए विधायकों को मोहरा बना दिया, जबकि उन चेहरों को लगा कि वे इस बहाने नेता बन जाएंगे।
आज देहरा को जिला बनाने वाले रमेश धवाला कहां हैं। नूरपुर का झंडा उठाने वाले राकेश पठानिया कहां हैं। पालमपुर का ताज पहनकर कांगड़ा के टुकड़ों में राज करने वाले रविंद्र सिंह रवि कहां हैं। क्या ये लोग सत्ता की भागीदारी में नेता बन पाए या खुद को सहेज पाए। हैरानी यह कि आज तक जो कांगड़ा का नेता साबित होकर, सियासत का वजनदार चेहरा माना गया, वह शांता कुमार भी पालमपुर की गलियों में नगर निगम या विधायक के चयन में ही हार गए। ऐसा नहीं है कि कांगड़ा में नेता नहीं हो सकते थे, लेकिन कई सत्ता के चमचे और कई व्यक्तिगत उत्कंठा के सदके खत्म हो गए। विडंबना ऐसी हो गई कि कांगड़ा की संपूर्णता में कोई विधायक या मंत्री बनकर भी साबित नहीं हुआ। यह ऐसा जिला है जहां केंद्रीय विश्वविद्यालय को बांट कर हमीरपुर संसदीय क्षेत्र में कोई ‘नेता’ बनता गया। अगर ऐसा न होता, तो सबसे पहले प्रदेश की फोरलेन इसे जोड़ती, बीबीएन की तरह औद्योगिक नगर यहां होता, अब तक गगल एयरपोर्ट का विस्तार हो गया होता या आजादी से पहले की रेल पटरी अब तक ब्रॉडगेज हो गई होती। विडंबना यह है कि अब फिर कांगड़ा के विधायक खुद में ‘नेता’ नहीं ढूंढ रहे, बल्कि विधायकों के रूप में एक-दूसरे को गिरा रहे हैं।
सोशल मीडिया पर सुजानपुर के विधायक राजिंद्र राणा की अभिव्यक्ति पर धर्मशाला के विधायक सुधीर शर्मा की दाद पर खुजली अगर कांगड़ा को ही होने लगेगी, तो यह समझ लेना होगा कि यहां ‘नेता’ होने के लिए अभी सदियां लगेंगी। जिस तरह लगभग फटकार देते हुए मंत्री चंद्र कुमार ने एक छोटा सा पटाखा फोड़ा, उसके मायनों में वह कम से कम कांगड़ा का नेता होने का भ्रम नहीं पाल सकते। यह इसलिए भी क्योंकि चंद्र कुमार घर के चिराग यानी पूर्व सीपीएस नीरज भारती ने ही यह दिखा दिया कि कांगड़ा का नेता बनने के लिए उन्हें विधायकों पर तंज कसने के बजाय जिला के सुशासन, विकास और अनुशासन पर कहीं अधिक ध्यान देना होगा। आश्चर्य है कि जिला के एकमात्र मंत्री केवल बेटे द्वारा दी गई नसीहत को ‘बाप और बेटे के बीच जूते की पैमाइश’ तक ही देख रहे हैं, जबकि नीरज भारती के कम से कम इस बयान को कांगड़ा समझ जरूर रहा है। नसीहत भाजपा के हलके से भी आ रही है। पूर्व मंत्री एवं विधायक विपिन सिंह परमार, विधायक पवन काजल और पार्टी के महामंत्री त्रिलोक कपूर के हालिया बयानों का निष्कर्ष, कांगड़ा में ‘नेता’ खोज रहा है। कांगड़ा अगर अपने भीतर से विधायकों के बजाय एक अकेले नेता को बुलंद कर पाता है, तो सत्ता के भीतर आइंदा कभी भी नाइंसाफी नहीं होगी।