प्रशासनिक दक्षता के पर्याय थे कल्याण सिंह, राम काज के अधूरे अध्याय को पूर्णता की ओर मोड़ दिया

वर्ष 1857 में स्वतंत्रता के पहले संग्राम में जो भूमिका नाना साहेब पेशवा की रही या अयोध्या आंदोलन में बैरागी

Update: 2021-08-23 02:34 GMT

मनीष  पांडेय |  वर्ष 1857 में स्वतंत्रता के पहले संग्राम में जो भूमिका नाना साहेब पेशवा की रही या अयोध्या आंदोलन में बैरागी साधुओं ने जिस प्रकार जान हथेली पर रखकर संघर्ष किया, नियति ने रामजन्मभूमि अभियान के लिए कुछ वैसा ही चुनाव कल्याण सिंह का किया। रामजन्मभूमि आंदोलन को निर्णायक गति देने की राह में भारत की सुप्त आत्मा को जगाने में कल्याण सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका रही। यूं तो देश में तमाम राजे-महाराजे और प्रबल प्रतापी नेता हुए, लेकिन समय के साथ इतिहास के पन्नों में कहीं खो गए, परंतु अयोध्या में राम मंदिर की ध्वज पताका के साथ ही कल्याण सिंह की कीर्ति भी सदैव के लिए अक्षुण्ण रहेगी। दरअसल वक्त की सुई जिसे मोती बनाना चाहती है, सीपी में वही स्वाति की बूंद समाती है। संपत्ति, सत्ता मद, हजारों-लाखों की भीड़ के आगे जिन लोगों ने अपना विवेक खोकर भारतीय आत्मा के साथ छल और विश्वासघात किया वे तो इतिहास में गुम हो गए, लेकिन कल्याण सिंह ने रामचरणानुराग को जीवन का ध्येय बनाया तो अमर हो गए। उनका यह कथन सदैव याद रहेगा कि 'जो राम का नहीं, वो काम का नहीं।' उनके भाषणों में एक पंक्ति सदा दोहराई जाती थी कि 'यह राम जी का देश है, अयोध्या राम जी की नगरी है। वहां उनका मंदिर नहीं बनेगा तो क्या सऊदी अरब में बनेगा?'

अयोध्या आंदोलन के दौरान विवादित ढांचे के साथ जो कुछ हुआ, उसकी जिम्मेदारी लेने के लिए कल्याण सिंह पूरी तरह तैयार थे। वह कठिन परिस्थिति में भी उत्तेजित नहीं होते थे। अयोध्या में मुलायम सिंह के अहंकार के प्रदर्शन पर उन्होंने कहा था कि 'इसका हश्र अच्छा नहीं होगा। मंदिर तो बनेगा ही, लेकिन यह सब अहंकारी नेता इतिहास के हाशिये पर भी नहीं दिखेंगे।' ठीक ऐसा ही हुआ। विवादित ढांचा गिरने पर एक पक्ष कहता था कि इसके लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव का अनिर्णय जिम्मेदार था, लेकिन कल्याण सिंह जी का कहना था कि 'यह तो होना ही था। राव या कोई और भावी के नियंता नहीं।' उनकी रहस्यमयी मुस्कान सब कह जाती थी। दरअसल तब अयोध्या में लगातार कारसेवकों का तांता लगने लगा था। जन्मभूमि के इर्दगिर्द कितने एकड़ जमीन कारसेवकों को कारसेवा के लिए दी जाए, इस पर राव निर्णय नहीं कर रहे थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरकार्यवाह रज्जू भैया कारसेवकों के भाव पढ़कर किसी भी आकस्मिकता से बचाव के लिए चाहते थे कि दो एकड़ भूमि पर उन्हें कारसेवा की अनुमति दे दी जाए। वहीं विहिप अध्यक्ष अशोक सिंघल एक नवीन हिंदू ज्वर के उत्कर्ष के वास्तुकार बन गए थे। उधर लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में सोमनाथ से अयोध्या रथयात्र का तूफानी दौरा देश में राम काज की अद्भुत लहर पैदा कर रहा था। इस बीच कांग्रेस दोहरा खेल खेल रही थी। रामजन्मभूमि के विरुद्ध मुस्लिम भावनाएं भड़काते हुए बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी, समाजवादी और वामपंथी दल समाज को तोड़ो और वोट जोड़ो की उसी पुरानी नीति की राह पर थे। ऐसी स्थिति में उत्तर प्रदेश में किसी भी कमजोर मुख्यमंत्री के रहते संपूर्ण रामजन्मभूमि आंदोलन पटरी से उतर सकता था।

तब कल्याण सिंह ने दिल्ली में राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में प्रधानमंत्री राव की उपस्थिति में दो-टूक कहा था कि 'कुछ भी हो जाए मैं कारसेवकों पर गोली नहीं चलाऊंगा। मेरी सरकार राम काज के लिए, रामजन्मभूमि के लिए आई है। मैं उसके विरुद्ध कैसे जाऊंगा? सरकार जाती है तो जाए। मैं जो ठान चुका हूं उससे नहीं डिगूंगा।' वे कभी डिगे भी नहीं। उन्होंने देश के नेताओं को सिखाया कि नेता को प्रशासनिक अधिकारियों पर दोष डालकर बचना नहीं चाहिए। अयोध्या आंदोलन के बाद उनका स्पष्ट बयान था कि 'किसी भी अधिकारी का कोई दोष नहीं, जो भी निर्णय लिए गए वे मेरे थे। कार्रवाई करनी है तो मुझ पर कीजिए।' इस प्रकार कल्याण सिंह ने राम काज के अधूरे अध्याय को पूर्णता की ओर मोड़ दिया और एक नवीन इतिहास के सृजक बन गए।

वह कुल तीन-चार घंटे ही नींद लेते थे। अक्सर कहते थे कि 'सघन थकावट में भी यदि तीन चार मिनट कुर्सी पर ही झपकी ले लूं तो तरोताजा हो जाता हूं।' उनके मुख्यमंत्री रहते समय उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार पर अंकुश था, गुंडागर्दी और नकल पर रोक लग गई थी, पुलिस का राजनीतिकरण खत्म हो गया था, विज्ञान और तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा मिला था, ढांचागत सुविधाओं के लिए विशेष बजट का प्रविधान किया गया था, महिलाओं की सुरक्षा और सभी वर्गो में प्रशासन के प्रति एक विश्वास का भाव जगा था। उनके विरोधी भी उनकी इस प्रतिभा और कठोर अनुशासनप्रियता के प्रशंसक थे।

कल्याण सिंह की सरलता और निश्छलता सबका मन मोह लेती थी। एक बार बेंगलुरु में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक आयोजित हुई थी। सायंकालीन बैठक के बाद मैंने उनसे कहा कि यहां एक स्वदेशी इडली वाला है-मावल्ली टिफिन रूम (एमटीआर)। उसकी इडली नहीं खाए तो बेंगलुरु आना अधूरा है। वह तुरंत राजी हो गए। हम उनके साथ एमटीआर गए। उन्हें देखकर भीड़ जमा हो गई। उन्होंने निश्चिंत भाव से इडली खाई। रेस्तरां के मालिक से भी बात की और तारीफ करते हुए लौटे। एक बार देहरादून में उनकी भव्य शोभा यात्र निकल रही थी। उन्हें पता चला कि मेरी माता जी अस्वस्थ हैं। उन्होंने शोभायात्र बीच में ही रोक दी। मेरे घर गए। माताजी का हाल पूछा। फिर शोभा यात्र शुरू कर दी। हमारे जैसे कार्यकर्ताओं के पास उनके ऐसे सैकड़ों संस्मरण होंगे। उन्होंने अपने जीवन में कभी भी विचारभेद को, मतभेद को मनभेद में नहीं बदलने दिया। कुल मिलाकर कल्याण सिंह जी सबसे बिना पूर्वाग्रह के साथ व्यवहार करने वाले, लेकिन देश और धर्म के प्रति हिमालय के समान दृढ़ रुख अपनाने वाले महानायक थे।


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