नौकरी बनाम उद्यम

जीवन है तो उतार-चढ़ाव भी होंगे ही, और अक्सर ऐसे कि हमारे होश गुम हो जाएं

Update: 2021-09-22 18:45 GMT

जीवन है तो उतार-चढ़ाव भी होंगे ही, और अक्सर ऐसे कि हमारे होश गुम हो जाएं, समझ ही न आए कि क्या करें, कैसे करें, किधर जाएं। कोरोना का दौर ऐसा ही एक दौर है जब हम कुछ विशेष कर पाने में असमर्थ हैं। कोरोना का दौर एक ऐसी स्थिति है जिसके लिए न तो हम तैयार थे और न ही ऐसा कोई पहले का उदाहरण हमारे पास था जिससे सबक लेकर हम कुछ कारगर तैयारी कर पाते। कोरोना से बचाव के लिए दुनिया का कोई देश, कोई संस्था या कोई व्यक्ति तैयार नहीं था, यहां तक कि चीन भी, जहां से इसका उद्भव हुआ, इसके परिणामों के लिए तैयार नहीं था। कोरोना के कारण विश्व भर में हुए लॉकडाउन का व्यापक असर पड़ा। बड़ी-बड़ी कंपनियों को अपना काम बंद करना पड़ा, कर्मचारियों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा। व्यवसाय बंद हुए तो नौकरियां चली गईं, कमाने वाले हाथ बेरोज़गार हो गए और परिवार के परिवार सड़क पर आ गए। एक दिन पहले तक जो मौसम खुशगवार था, अचानक वो तबाही का मंज़र बन गया। कहते हैं कि गलती वह होती है जो पहली बार हो। पहली बार की गलती हमारा अज्ञान हो सकती है, पर दूसरी बार की गलती हमारा आलस्य है, जो कि अपने आप में एक अपराध है। इसी तरह किसी बड़ी अनपेक्षित घटना के लिए तैयारी न हो पाना क्षमा योग्य हो सकता है, पर उससे सबक न लेना भी हमारे आलस्य का प्रतीक है जो अक्षम्य है। आज हमें यह देखना है कि हमने कोरोना के इस दौर से क्या सीख ली है, ताकि जीवन में ऐसी किसी परिस्थिति या इससे मिलती-जुलती स्थिति होने पर हम अपना बचाव कर सकें। कोरोना के कारण विश्व भर में मंदी का एक ऐसा दौर आया जिसने बहुत से व्यवसाय निगल लिए, नौकरियां खलास कर दीं और दुनिया भर में करोड़ों की संख्या में लोग बेरोज़गार हो गए। यहां एक अंतर मुख्य है जिसकी तरफ अक्सर हमारा ध्यान नहीं गया है।

व्यवसायियों और उद्यमियों ने अपने बिजनेस को डूबता देखकर आवश्यक कदम उठाए, बिजनेस मॉडल में संशोधन किया, बिजनेस मॉडल बदला या बिजनेस ही बदल लिया, पर नौकरी में तो ऐसा संभव था ही नहीं। यदि हमारे पास एक से अधिक हुनर हों तो हो सकता है कि हम नौकरी बदल लें, किसी दूसरी कंपनी में दूसरी तरह की नौकरी ढूंढ़ लें लेकिन हर व्यक्ति के साथ ऐसा संभव नहीं है। एक उद्यमी स्वयं निर्णय लेता है, खुद ही उसे लागू करता है और उसके परिणाम भुगतता है। इस रूप में उद्यमी कदरन स्वतंत्र है। वह अपने निर्णय स्वयं ले सकता है। व्यवसाय छोटे स्तर का हो तो और भी लचीलापन संभव है। फटाफट निर्णय लेना और उसे लागू करना ज्यादा आसान है। नौकरी में ऐसा संभव नहीं है। नौकरी में हम संस्था के हाथ की कठपुतली हैं, अपने नियोक्ता के नियमों से बंधे हुए हैं। यही कारण है कि मैं हमेशा इस बात की वकालत करता हूं कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को उद्यम की राह पकड़नी चाहिए। सवाल यह है कि कोरोना में सिर्फ नौकरियां ही नहीं गईं, व्यवसाय भी बंद हो गए, फिर भी मैं उद्यम की सिफारिश क्यों करता हूं? उद्यम में तो और भी ज्यादा खतरे हैं, पूंजी लगी होती है, कर्मचारियों का ध्यान रखना होता है, उधार फंसा हो सकता है। एकदम से व्यवसाय बदल देना संभव नहीं है। व्यवसाय बंद हो जाए तो कोई और राह आसान नहीं होती।
नौकरीपेशा व्यक्ति तो एक कंपनी छोड़कर दूसरी कंपनी में जा सकता है, व्यवसायी क्या करेगा? उसके लिए तो नौकरी करना भी संभव नहीं है। ये सभी सवाल जायज़ हैं। समझने की बात यह है कि व्यवसाय में बिजनेस मॉडल बदल देने मात्र से भी व्यवसाय की प्रकृति बदल सकती है। नौकरी में व्यक्ति एक ही तरह के हुनर की ओर ध्यान देता है। ज्यादातर नौकरीपेशा लोग एक ही किस्म के हुनर के जानकार होते हैं और उस हुनर की मांग खत्म हो जाने पर उनकी उपयोगिता खत्म हो सकती है। व्यवसायी यदि सयाना हो तो उसके लिए नई राहें खोजना कठिनाई भरा तो हो सकता है, असंभव नहीं होता। व्यवसायी अक्सर बहुमुखी प्रतिभा वाला व्यक्ति होता है और उसे समस्याओं के समाधान ढूंढ़ने की आदत होती है, इसलिए उसके लिए समस्याओं से पार पाना मुश्किल होते हुए भी ऐसा शायद ही होता हो कि वह सड़क पर आ जाए। दो दशक तक नौकरी करने और दो दशक उद्यमी के रूप में मैंने दोनों अनुभव लिए हैं। अपने इसी अनुभव के आधार पर मैं यह कहता हूं कि उद्यम की राह शुरुआत में मुश्किलों से भरी हो सकती है, लेकिन अंततः यह एक बेहतर समाधान है। दरअसल बहुत सी समस्याएं मानसिकता से संबंधित हैं। मैं ऐसे बहुत से लोगों को भी जानता हूं जो नौकरी में रहते हुए झाड़ू लगाने को भी तैयार थे, लेकिन चाय का खोमचा लगाना उन्हें ऐसा लगता था मानो उनकी इज्ज़त नीलाम हो गई। मानसिकता से ही जुड़ा एक और सवाल आय का है। नौकरीपेशा लोगों के लिए बिजनेस में प्रवेश के तीन चरण हो सकते हैं। बिजनेस की शुरुआत पार्ट-टाइम काम के रूप में करना उपयुक्त हो सकता है।
यदि किसी परिवार में पति-पत्नी दोनों नौकरीपेशा हैं तो एक तनख्वाह से घर चलाना और दूसरी तनख्वाह से व्यवसाय में निवेश करना आसान हो जाता है। एक बार जब व्यवसाय से इतनी सी आय होने लगे कि आपके घर का खर्च निकलना शुरू हो गया तो वह स्थिति 'नौकरी से मुक्ति' का चरण है, यानी अब आप नौकरी छोड़ भी दें तो आपको ज्यादा परेशानी नहीं होगी। जब व्यवसाय इतना चल निकले कि आपको व्यवसाय से अपनी तनख्वाह जितना लाभ होने लग जाए तो वह 'इन्कम फ्रीडम' यानी आय की स्वतंत्रता की स्थिति है और जब इतना लाभ होने लग जाए कि आपकी बचत भी बढ़ जाए और कहीं और निवेश के लिए अतिरिक्त धन जमा हो जाए तो वह 'फाइनांशियल फ्रीडम' यानी आर्थिक स्वतंत्रता की स्थिति है। वह आपकी उड़ान की शुरुआत है। उसके बाद का आकाश अंतहीन है और आपकी उन्नति के कई नए रास्ते खुल जाते हैं। यह कतई आवश्यक नहीं है कि आर्थिक स्वतंत्रता के लिए व्यवसाय ही किया जाए। दरअसल नौकरी में रहते हुए अपनी बचत का लाभ उठाकर निवेश करते चलना भी आर्थिक स्वतंत्रता का अच्छा साधन हो सकता है। आप किसी लाभदायक व्यवसाय में या स्टार्टअप में निवेश कर सकते हैं, शेयर मार्केट में निवेश कर सकते हैं, म्युचुअल फंड में निवेश कर सकते हैं, कर्ज पर पैसा दे सकते हैं, कोई अतिरिक्त संपत्ति बनाकर उसे किराए पर उठा सकते हैं, कोई ऐसा व्यवसाय शुरू कर सकते हैं जिसके प्रबंधन के लिए किसी अन्य व्यक्ति को नौकरी पर रख लें या उससे भागीदारी कर लें। तरीके बहुत से हैं, कल्पनाशीलता की आवश्यकता है। लक्ष्य आर्थिक स्वतंत्रता होना चाहिए, रास्ता चाहे कोई भी हो। फिर कोरोना से या किसी अन्य कारण से नौकरी जाने या व्यवसाय बंद होने का डर खुद-ब-खुद खत्म हो जाएगा।
पी. के. खुराना
राजनीतिक रणनीतिकार
ईमेलः indiatotal.features@gmail.com


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