Jharkhand Politics: स्थानीयता नीति बन गई हेमंत सोरेन के गले की हड्डी, कभी हां तो कभी ना से बढ़ी टेंशन
झारखंड में स्थानीयता नीति का सवाल मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के गले की हड्डी बन गया है
झारखंड में स्थानीयता नीति का सवाल मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के गले की हड्डी बन गया है. भाषा नीति पर पहले से ही संकट में फंसी सरकार के सामने अब स्थानीयता नीति तय करने के लिए 1932 के खतियान का सवाल सर पर खतरे की तरह मंडरा रहा है. झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) और कांग्रेस-राजद गठबंधन की सरकार के मुखिया हैं हेमंत सोरेन. कांग्रेस कोटे के मंत्री बन्ना गुप्ता लगातार भाषा नीति पर सरकार के खिलाफ हमला कर रहे हैं. सरकारी नौकरियों में भोजपुरी, मगही, अंगिका और मैथिली को शामिल नहीं करने को लेकर सरकार के प्रति उनका गुस्सा उफान पर है. उन्होंने तो यहां तक धमकी दे डाली है कि भाषा की अस्मिता के लिए उन्हें मंत्री पद से सौ बार इस्तीफा देना पड़े तो वह इसके लिए तैयार हैं. सच्चाई यह है कि वे जमशेदपुर के जिस इलाके से चुन कर आते हैं, वहां बिहार के लोगों की खासा आबादी है. वे इस्तीफा देंगे या नहीं, यह तो दूर की बात है, पर सरकार की भाषा नीति की आलोचना करना उनके लिए मजबूरी है. बहरहाल, यह तो मानना ही पड़ेगा कि जहां बिहार की चार भाषाओं को नौकरी की अर्हता से हेमंत सोरेन के एक मंत्री जगरनाथ महतो के दबाव पर हटाना पड़ा, वहीं उनकी ही सरकार का एक मंत्री इसकी जरूरत को लेकर सरकार की नीतियों का मुखर आलोचक बन गया है.
स्थानीयता नीति 1932 के आधार पर बनाने की मांग
भाषा नीति पर सरकार को अपने फैसले बदलने को मजबूर करने वाला आदिवासी-मूलवासी समाज और इसके प्रतिनिधि इतने उत्साहित हैं कि अब उन्होंने झारखंड का स्थानीय निवासी होने के लिए 1932 के खतियान को आधार बनाने के लिए हेमंत सोरेन पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है. जिस झारखंड मुक्ति मोर्चा की सरकार झारखंड में हैं, उसके ही एक विधायक लोबिन हेम्ब्रम ने तो 5 अप्रैल से इस मांग को लेकर झारखंड के हर जिले में जनजागरूकता के लिए यात्रा शुरू करने की घोषणा की है. उनका कहना है कि झारखंड मुक्ति मोर्चा ने हर बार विधानसभा चुनाव के दौरान यह बात दोहराई है कि सरकार बनने पर स्थानीयता नीति 1932 के खतियान के आधार पर बनाएंगे.
बाबूलाल मरांडी ने भी 1932 को बनाया था आधार
झारखंड में भाजपा के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने भी 1932 के आधार पर स्थानीयता नीति बनाई थी. उसके बाद राज्यभर में भारी खूनखराबा हुआ. बाबूलाल मरांडी की कुर्सी तो चली ही गई, सुप्रीम कोर्ट ने उस नीति में खामियां गिना कर निरस्त कर दिया. उसके बाद जो भी मुख्यमंत्री बना, उनमें रघुवर दास को छोड़ कर हर किसी ने इस संवेदनशील मुद्दे पर चुप्पी साधना ही बेहतर समझा. रघुवर दास की सरकार पूर्ण बहुमत की थी, इसलिए उन्होंने स्थानीयता नीति बनाने की जोखिम उठाया और इसे कुछ को छोड़ अधिकतर लोगों ने स्वीकार भी कर लिया था. झारखंड मुक्ति मोर्चा के लोग रघुवर की स्थानीयता नीति का विरोध जरूर कर रहे थे. वे आदिवासी-मूलवासी लोगों को इसके खिलाफ जगाते रहे. इसका परिणाम यह हुआ कि झारखंड मुक्ति मोर्चा को सरकार बनाने का मौका लोगों ने दे दिया. महीने भर में नियोजन के लिए भाषा का पैमाना दो बार पलट कर अंततः हेमंत ने आदिवासी-मूलवासी समाज को शांत करने की कोशिश की. लेकिन उनका यह दांव भी उल्टा पड़ गया. अपनी कामयाबी से उत्साहित आदिवासी समाज अब उनसे स्थानीयता नीति भी बनाने की मांग करने लगा है. वह भी 1932 के खतियान के आधार पर.
सोरेन की स्थानीयता नीति पर कभी हां, कभी ना
हेमंत सोरेन शायद 1932 के आदार पर स्थानीयता नीति के खतरे को भांप रहे हैं. शायद यही वजह है कि इस बार विधानसभा में उन्होंने साफ कह दिया कि 1932 के आधार पर स्थानीयता नीति नहीं बनाई जा सकती. इसलिए कि कोर्ट में इसके निरस्त होने के खतरे हैं. उल्टे उन्होंने नियोजन नीति की बात की. आदिवासी संगठनों का कहना है कि स्थानीयता नीति बनाए बगैर नियोजन नीति का कोई औचित्य ही नहीं है. पहले तो सरकार को यह तय करना होगा कि स्थानीय यानी झारखंड का निवासी कौन है. उसके बाद ही नियोजन नीति की बात आएगी. इस बीच सदन में झारखंड मुक्ति मोर्चा के विधायक लोबिन हेम्ब्रम ने कहा कि पार्टी ने चुनाव से पहले इसका वादा किया था. अब इससे मुकरने पर हम लोगों को क्या जवाब देंगे. उन्होंने मीडिया के सामने घोषणा कर दी क 5 अप्रैल से वह झारखंड के हर जिले में जाकर 1932 के खतियान को आधार बना कर स्थानीयता नीति बनाने के लिए आंदोलन करने के लिए जागरूक करेंगे.
तीन दिन में ही बयान से पलट गए हेमंत सोरेन
हेमंत इसके बाद बैकफुट पर आ गए हैं. वह तीन दिन पहले दिए अपने बयान से पलट गए. उन्होंने कहा कि 1932 के खतियान का हम सम्मान करते हैं. झारखंडियों की भावना के अनुरूप ही नियोजन नीति बनाई जाएगी. दरअसल उन्होंने तीन दिन पहले विधानसभा में कहा कि झारखंड में अब तक 5 सर्वे हुए हैं. गजट भी प्रकाशित हुआ. दिक्कत यह है कि किस सर्वे को स्थानीयता नीति का आधार बनाया जाए. इसलिए यह उतना आसान काम नहीं है, जितना लोग समझ रहे हैं. इस पर व्यापक विमर्श और सहमति बनाने की जरूरत है. सरकार सभी वैधानिक पहलुओं का अध्ययन कर और जनभावनाओं को देखते हुए कोई निर्णय लेगी. उन्होंने इसके खतरे की ओर भी इशारा यह कर किया कि आग लगाना आसाना है, पर आग बुझाना मुश्किल.
भाषा नीति पर भी पलटी मारी थी हेमंत सोरेन ने
हेमंत सोरेन पर पलटी मार होने का आरोप लगने लगा है. उनके आलोचक बताते हैं कि सरकारी नौकरियों में भाषा की अनिवार्यता-अर्हता के सवाल पर उन्होंने पलटी मारी थी. भाषा नीति पर जारी आदेश उन्होंने दो महीने में ही पलट दिया था. 24 दिसंबर 2021 को जारी जनजातीय और क्षेत्रीय भाषाओं की लिस्ट में बिहार में बोली जाने वाली भोजपुरी, मगही, अंगिका और मैथिली कुछ जिलों में शामिल थी. लेकिन राज्य के शिक्षा मंत्री जगरनाथ महतो और झामुमो विधायक मथुरा महतो के दबाव में 18 फरवरी 2022 को जारी सूची में इन भाषाओं को हटा दिया गया. इस बार स्थानीयता के सवाल पर हेमंत ने तीन दिनों में ही अपना बयान बदल दिया है.
रघुवर दास की स्थानीयता नीति में क्या था
रघुवर दास के नेततृत्व वाली सरकार ने 2016 में स्थानीयता नीति लागू की थी. इसमें प्रावधान था कि जो लोग कम से कम 30 साल से झारखंड में रह रहे हैं, वे स्थानीय माने जाएंगे. यानी 1985 या उससे पहले से रहने वाले झारखंडी कहलाएंगे. जिनका या जिनके पूर्वज का खतियान में नाम है, वे झारखंडी होंगे. झारखंड में जिसका जन्म हुआ हो और मैट्रिक तक की जिसने पढ़ाई की हो, वह झारखंड का निवासी माना जायेगा. भूमिहीन लोगों को ग्रामसभा द्वारा उनके निवास को प्रमाणित करने पर झारखंडी माना जाएगा. तृतीय और चतुर्थ ग्रेड की नौकरियों में 2026 तक स्थानीय लोगों को अवसर मिलेगा.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
ब्लॉगर के बारे में
ओमप्रकाश अश्क
प्रभात खबर, हिंदुस्तान और राष्ट्रीय सहारा में संपादक रहे. खांटी भोजपुरी अंचल सीवान के मूल निवासी अश्क जी को बिहार, बंगाल, असम और झारखंड के अखबारों में चार दशक तक हिंदी पत्रकारिता के बाद भी भोजपुरी के मिठास ने बांधे रखा. अब रांची में रह कर लेखन सृजन कर रहे हैं.