'जन धन'- जन-गण-मन का आधार

सामाजिक-आर्थिक रूप से उपेक्षित वर्गों को औपचारिक वित्तीय प्रणाली में लाकर विकास का सहभागी बनाना राष्ट्रीय प्राथमिकता बनी है

Update: 2021-08-28 15:08 GMT

संतोष कुमार वरिष्ठ पत्रकार।

सामाजिक-आर्थिक रूप से उपेक्षित वर्गों को औपचारिक वित्तीय प्रणाली में लाकर विकास का सहभागी बनाना राष्ट्रीय प्राथमिकता बनी है तो जनधन, सामाजिक सुरक्षा, मुद्रा और स्टैंड अप इंडिया जैसी 54 मंत्रालयों/विभागों की 318 योजनाओं में ई-गवर्नेंस के मॉडल को सुशासन का सशक्त माध्यम बना दिया है. 28 अगस्त को 'जन धन' योजना के सात साल पूरे हो रहे हैं, ऐसे में जानते हैं कि कैसे बिचौलियों और भ्रष्टाचार से मुक्त हर पात्र व वंचित को मिल रहा है 'जनधन-आधार-मोबाइल (JAM)' ट्रिनिटी से सीधा लाभ…

हर शुरुआत का अपना एक इतिहास होता है. अब महिला उद्यमी के तौर पर स्थापित पुष्पा बनसोडे के चेहरे के भाव उसी इतिहास को समेटे हुए है. वे कहती हैं, "मैं अपने परिवार की पहली सदस्य हूं जो कोई कारोबार करना चाहती थी. उसके लिए पैसे की जरूरत थी और फिर मुझे मुद्रा योजना से ऋण मिला, जिसका ब्याज कम और फायदा अधिक है. आज मेरे पास खुद की फैक्ट्री है और मेरी पीढ़ियों में जो आज तक किसी ने करके नहीं दिखाया, वो आज मैंने करके दिखाया है."
उम्मीदों को साकार करती कहानी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में नोएडा सेक्टर- 16 के पास एक बस्ती में रहने वालीं गुड्डी की भी है जो कहती हैं, "पति और मैं, दोनों मजदूर हैं. घरों से कचरा उठाकर जो पैसा मिलता है, उसी से रोटी पानी चलता है. कोरोना के लॉकडाउन में सबकुछ बंद था. आय का कोई साधन नहीं दिख रहा था, तभी मैंने सुना कि जनधन के बैंक खाते में पैसे आए हैं. उस दौरान तीन बार 500-500 रुपये आए, जिससे बड़ी राहत मिली. ऊपर से राशन भी मुफ्त में मिलने लगा. अगर यह नहीं मिलता तो क्या करती, बच्चों का पेट कैसे भरती."
उत्तर प्रदेश शाहजहांपुर के रहने वाले संजीव भी ऐसे ही लोगों में शामिल हैं. रोजी-रोटी की तलाश में दिल्ली के दल्लूपुरा इलाके में संजीव अपनी पत्नी आरती और 3 बच्चों के साथ रह रहे हैं. लॉकडाउन के वक्त जब सब कुछ छूट गया, आरती के जनधन खाते में किस्तों में आए 1500 रुपये ने मुश्किल वक्त में उनके परिवार को राहत दी. संजीव कहते हैं- "अब तो गांव के राशन कार्ड पर ही यहां भी राशन मिल रहा है. हम जैसे गरीबों की इतनी फिक्र इससे पहले भला कोई सरकार कहां करती थी."
लॉकडाउन हो या अनलॉक, ऐसी कहानियां मीडिया के विभिन्न मंचों पर सहज उपलब्ध है. सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय यानी देश के संसाधनों पर अब सबका हक सुनिश्चित करने की पहल हो रही है तो यह भी जानना जरूरी है कि इसकी शुरुआत कहां से हुई थी. जिस बैंकिंग प्रणाली से गांव के गरीब लोग दूर रहते थे या कहें कि उन तक इस सुविधा की पहुंच ही नहीं थी, अब वे सभी विकास की यात्रा के सहभागी बन रहे हैं.
67 साल तक 50 फीसदी से अधिक आबादी थी बैंकों से दूर
आजादी के 67 साल तक 50 फीसदी से अधिक लोगों की बैंकिंग व्यवस्था तक पहुंच भी नहीं थी. लेकिन मिशन मोड में शून्य बैलेंस पर लोगों के बैंक खाते खोलने की शुरुआत ने क्रांति ला दी. इस समय 42 करोड़ से अधिक देशवासियों के पास जनधन खाते हैं, जिनमें से करीब 55 फीसदी महिला खाताधारक हैं और करीबन डेढ़ लाख करोड़ रुपये से अधिक इन बैंक खातों में जमा है, जो यह दिखाता है कि बैंकिंग सुविधा ने लोगों के मन में सुरक्षा और बचत का भाव पैदा किया है.
कोई भी देश व्यवस्था से चलता है, संस्थानों से आगे बढ़ता है और यह काम दो-चार महीने या दो-चार साल में नहीं बनती, बल्कि वर्षों के सतत विकास का परिणाम होता है. लेकिन आजादी के बाद लंबे समय तक देश की बड़ी आबादी अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा का हिस्सा तक नहीं बन पाया था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में दुनिया के सबसे बड़े जन आर्थिक भागीदारी के कार्यक्रम के तौर पर 'जनधन' योजना की घोषणा की और महज 12 दिन बाद ही 'सुखस्य मूलं धर्म, धर्मस्य मूलं अर्थ: अर्थस्य मूलं राज्यं' श्लोक के साथ इसे जमीन पर उतार दिया था.
जिसका मतलब है- सुख के मूल में धर्म है, धर्म के मूल में अर्थ यानी धन है और इसमें राज्य की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है. इसका मूल में कम से कम देश के हर परिवार तक और उसके बाद सभी व्यक्तियों तक बैंकिंग सेवाएं उपलब्ध कराने का संदेश भी निहित था.
देश के आर्थिक संसाधन पर सबका हक हो और यह गरीबों के काम आए, इसकी शुरुआत इसी जनधन योजना से होती है. जिसने सबको साथ लेकर चलते हुए वित्तीय समावेशन की अवधारणा को नया स्वरूप दिया. लेकिन आर्थिक शब्दावली से अनजान गांव-गरीब लोगों के मन में यह कौतूहल हो सकता है कि जो समावेशन उनका स्वभाव बन गया है, आखिर वह है क्या और इसकी सुध आजादी के इतने लंबे समय बाद मौजूदा केंद्र सरकार ने क्यों ली? लेकिन उससे पहले समझना होगा कि गरीबी है क्या?
गरीबी उन्मूलन: नारा बनाम हकीकत
गरीबी यानी ऐसी स्थिति जब किसी व्यक्ति के पास सामान्य तौर से या सामाजिक रूप से मान्य मात्रा में मुद्रा या भौतिक वस्तुओं का स्वामित्व नही हो. किसी भी राष्ट्र की प्रगति की कसौटी इसमें नहीं है कि उन लोगों को समृद्ध बनाया जाए जो पहले से ही समृद्ध हैं, बल्कि इसमें है कि जिनके पास कम साधन हैं उन्हें शासन की ओर से पर्याप्त मात्रा में साधन उपलब्ध कराया जाए. लेकिन विडंबना ही है कि भारत में गरीबी हटाओ की बात तो खूब हुई लेकिन लंबे समय तक गरीबी उन्मूलन की दिशा में कोई ठोस प्रयास नहीं हुए.
नतीजा हुआ कि आधी से अधिक आबादी औपचारिक तंत्र का हिस्सा ही नहीं बन पाई. ना बैंकिंग सिस्टम तक पहुंच, ना ही सरकारी सुविधाओं का पूर्ण लाभ और ना ही आय बढ़ाने का कोई कारगर जरिया इतनी बड़ी आबादी तक पहुंच पाया. जबकि किसी भी देश के आर्थिक विकास का मुख्य आधार उसका बुनियादी ढांचा होता है. अगर बुनियाद ही कमजोर हो तो व्यवस्था को मजबूत नहीं बनाया जा सकता है. इसी को ध्यान में रखकर 2014 से ऐसे परिवर्तन की पहल हुई जिसे वित्तीय समावेशन कहा जाता है, जिसमें अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति को भी आर्थिक विकास के लाभ से जुड़ना सुनिश्चित किया गया है.
वित्तीय समावेशन का मतलब कम आय वाले लोगों और समाज के वंचित वर्ग को उपयुक्त कीमत पर भुगतान, बचत, ऋण आदि की वित्तीय सेवाएं पहुंचाने का प्रयास है. इसके अभाव में बैंकों की सुविधा से वंचित लोग मजबूरन अनौपचारिक बैंकिंग क्षेत्र या साहूकारों से जुड़ने के लिए बाध्य हो जाते हैं जहां ब्याज की दरें अधिक होती है. अगर विभिन्न रिपोर्टों को देखें तो इसकी वजह से ही भारत में नकदी लेनदेन 95 फीसदी तक होने लगी थी. सरकारी योजनाओं का लाभ भी शत-प्रतिशत लाभार्थी तक पहुंचने की बजाए बीच में ही भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ने लगी थी. लाखों करोड़ रुपये का लीकेज मानो सिस्टम का हिस्सा बन गया था.
लेकिन, अब जन धन योजना से हुई शुरुआत एक जन क्रांति बन चुकी है. समाज का करीब-करीब हर वर्ग आज किसी न किसी रूप से देश के वित्तीय क्षेत्र से जुड़ चुका है. गरीब, किसान, पशुपालक, मछुआरे, छोटे दुकानदार सभी के लिए ऋण की सुविधा आसान हो चुकी है. इसकी सबसे बड़ी पहल हुई 'पहल' से. आज हर भारतीय की विशिष्ट पहचान संख्या बन चुके आधार कार्ड की व्यवस्था को सबसे पहले नीतिगत ढांचा देकर देश भर में फैलाया और 'JAM-जैम' यानी 'जनधन-आधार-मोबाइल' ट्रिनिटी की व्यवस्था से 1 जनवरी 2015 को सब्सिडी के प्रत्यक्ष हस्तांतरण (डीबीटीएल) की शुरुआत की, जिसे 'पहल' नाम दिया गया जो दुनिया की सबसे बड़ी वित्तीय सहायता बनी और गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में इसे शामिल किया गया.
इस डीबीटीएल से 4.49 करोड़ फर्जी कनेक्शन की पहचान कर मार्च 2020 तक 71 हजार करोड़ रुपये से अधिक बचाए. अन्य सभी मंत्रालयों की सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में भ्रष्टाचार या फर्जीवाड़े के भी आंकड़े को मिलाकर देखें तो 'जैम' ट्रिनिटी यानी सामाजिक सुरक्षा के इस प्लेटफॉर्म से 1 लाख 78 हजार करोड़ रुपये की लीकेज रोकी गई है, जिससे लाभार्थियों तक अधिक से अधिक पहुंच भी सुनिश्चित हुई है.
आज केंद्र सरकार के 54 मंत्रालयों की 318 से अधिक योजनाओं का लाभ सीधे अब लाभार्थियों के बैंक खाते में पहुंच रही है. इनमें किसान सम्मान निधि, मुद्रा ऋण, मनरेगा, सुरक्षा बीमा योजना, सार्वजनिक जन वितरण प्रणाली, खाद सब्सिडी, प्रधानमंत्री आवास योजना, एससी-एसटी-ओबीसी और अल्पसंख्यक छात्र-छात्राओं को मिलने वाली सब्सिडी, आंगनवाड़ी के जरिए पोषण सुरक्षा अभियान, स्वरोजगार के लिए ऋण, एमएसएमई को सस्ता ऋण, स्वच्छ भारत मिशन के तहत शौचालय निर्माण आदि सैकड़ों योजनाओं का लाभ अब सीधा लाभार्थियों तक पहुंच रहा है.
वित्तीय समावेशन का परिणाम है कि आजादी के वक्त जिस भारत की 70 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे थी, लेकिन अब यह आंकड़ा 22 फीसदी तक आ गई है. जबकि आबादी 135 करोड़ के पार है. इसकी नतीजा यह भी है कि भारत में अब तेजी से नए मध्यम वर्ग का दायरा बढ़ रहा है. भारत में मध्यम वर्ग उपभोक्ताओं की संख्या अब 30 करोड़ के पार पहुंच चुकी है जो अगले 10 वर्षों में दोगुनी होने की संभावना है. यानी सही मायने में जन धन योजना अब जन-गण-मन तक पहुंच चुकी है. जन यानी लोग, गण यानी समूह और मन यानी मस्तिष्क. कोविड काल में जिस तरह से इस योजना ने देश को आपदा से जूझने में मदद की, उससे यह जाहिर हो चुका है कि जन धन सिर्फ योजना नहीं बल्कि जन-गण-मन के साथ आत्मसात होकर परिवर्तनकारी सुधार का वाहक बन चुकी है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
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