योगी आदित्यनाथ ने कानून व्यवस्था में वास्तविक सुधार को अपनी प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर रखा है। उन्होंने आरंभ से ही गृह विभाग को अपने पास रखा और पुलिस में अनावश्यक राजनीतिक हस्तक्षेप को नगण्य कर दिया। संपूर्ण प्रशासनिक मामलों में भ्रष्टाचार के प्रति जीरो-टारलेंस की नीति अपनाई और साबित कर दिया कि स्वच्छ पारदर्शी और प्रभावी शासन चलाकर कानून व्यवस्था ठीक की जा सकती हैै। उन्हें 'बुलडोजर बाबा' कहलाना मंजूर था, परंतु किसी माफिया की तरफदारी किसी कीमत पर मंजूर नहीं थी। पुलिस के संबंध मेें अगर बात करें तो उन्होंने उत्तर प्रदेश के महत्वपूर्ण जिलों-लखनऊ, गौतम बुद्ध नगर-नोएडा, वाराणसी और कानपुर में कमिश्नर प्रणाली का वर्षों पुराना लंबित प्रस्ताव लागू किया और उसे सफल भी बनाया। प्रदेश में 144 नए थाने, 50 चौकियां बनीं और 1.38 लाख नए पुलिस कर्मियों की भर्ती की गई। 112 नंबर की उपयोगिता बढ़ाते हुए उसे प्रभावशाली बनाया। मांग आते ही पुलिस देहाती क्षेत्रों तक आसानी से पहुंचने लगी। महिलाओं की सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया गया। कानपुर के बिकरू कांड में कठोरतम कदम उठाते हुए अधिकारियों और अपराधियों, दोनों को दंडित किया गया। बड़े से बड़े अपराधियों, माफिया की अवैध संपत्ति को जब्त करने या फिर जमींदोज करने का पूरे प्रदेश में व्यापक अभियान चला, जिसे जनता ने स्वयं देखा। इसमें बहुत से ऐसे अपराधी थे, जिनके इशारों पर शासन के निर्णय होते या बदल दिए जाते थे। बहुत से दुर्दांत अपराधी लंबे समय तक जेल में रहे। उत्तर प्रदेश में विगत पांच वर्षों में 158 दुर्दांत अपराधी पुलिस मुठभेड़ में मारे गए। 19,999 गिरफ्तार हुए। इस अभियान में 12 पुलिसकर्मी भी बलिदान हुए। सराहनीय बात यह रही कि उपरोक्त में से एक भी मामले में उच्चतम न्यायालय को हस्तक्षेप नहीं करना पड़ा और न ही कोई मामला सीबीआइ को सौंपा गया।
कानून व्यवस्था का सीधा संबंध पुलिस से है। पुलिस की कार्यकुशलता, क्षमता, निष्पक्षता, उसका व्यवहार और मनोबल मिलकर उसे जनप्रिय और प्रभावशाली बनाते हैैं। पिछले दिनों प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज भी पुलिस के प्रति सामान्य सोच यही है कि उससे जितना दूर रहो, वही अच्छा है। स्वतंत्र भारत मेें पुलिस की यह छवि बदलनी ही चाहिए। यहीं 1861 के एक्ट द्वारा बनाई गई 'अंग्रेजों की पुलिस' में व्यापक बुनियादी सुधारों की बात पैदा हो जाती है। इन सुधारों से जुड़े सभी बिंदुओं पर व्यापक और गहन विचार राष्ट्रीय पुलिस आयोग कर चुका है। उसकी रिपोर्ट दशकों पहले ही आ चुकी है, जिसे लागू करने का निर्देश सुप्रीम कोर्ट भी 2006 में जारी कर चुका है, परंतु आज तक राज्य सरकारों ने कोई विशेष रुचि नहीं दिखाई। देश की संघीय व्यवस्था में कानून व्यवस्था राज्यों का विषय होने के कारण केंद्र ने भी कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। उचित यह होगा कि पुलिस सुधारों को लागू करने के साथ-साथ जनप्रतिनिधि अधिनियम में भी सुधार किया जाए, ताकि दुर्दांत अपराधी/माफिया संसद/विधानसभाओं में न जा सकें, क्योंकि जनप्रतिनिधियों के विरुद्ध कायम अपराधिक मुकदमों के निस्तारण के लिए अलग से बनाए गए एमपी/एमएलए कोर्ट के बाद भी अभी लगभग पांच हजार मुकदमे न्यायालयों में निस्तारण के लिए लंबित पड़े हैं। पुलिस के संबंध में 2019 की स्टेटस रिपोर्ट कहती है कि देश में 44 प्रतिशत पुलिस कर्मियों को 12 घंटों से कहीं अधिक कार्य करना पड़ता है। 50 प्रतिशत को साप्ताहिक छुट्टी भी नहीं मिल पाती। तब 5.3 लाख स्वीकृत पदों में 20 प्रतिशत रिक्त थे। ऐसी स्थिति में पुलिस जन अपेक्षानुसार किस प्रकार काम कर सकती है? रिपोर्ट ने पुलिस में राजनीतिक हस्तक्षेप और मनमाने स्थानांतरण की विकट समस्या बताई। साफ है कि पुलिस में सुधार तभी संभव है, जब राजनीति में सुधार होगा। यही बात अभी सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने भी दोहराई है।
योगी सरकार ने यह साबित कर दिया है कि माफिया और दुर्दांत अपराधियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई का समाज में व्यापक सकारात्मक संदेश जाता है और सुरक्षा का बोध बढ़ता है, जो जन-जन के सुख-चैन और प्रगति के लिए आवश्यक है। इसमें राजनीतिक पार्टियों के लिए यह महत्वपूर्ण संदेश छिपा है कि प्रभावी कानून-व्यवस्था मेें वोट की अपार संभावनाएं छिपी हैं। इसलिए सभी राज्य पुलिस सुधारों को लागू कर पुलिस को सक्षम और सशक्त बनाएं। यह राजनीतिक पार्टियों के भी हित में है।