यथार्थ को जस का तस प्रस्तुत करना आसान नहीं, अवाम इसे स्वीकार नहीं करती
अभिनेत्री भूमि पेडनेकर अभिनीत अधिकांश फिल्में सराही गई हैं
जयप्रकाश चौकसे का कॉलम:
अभिनेत्री भूमि पेडनेकर अभिनीत अधिकांश फिल्में सराही गई हैं। यह भूमि और तापसी पन्नू का साहस ही था कि उन्होंने अलंकृता श्रीवास्तव की फिल्म 'सांड की आंख' में दादियों और नानियों की भूमिकाएं अभिनीत कीं। आजकल भूमि पेडनेकर और राजकुमार राव अभिनीत 'बधाई दो' की प्रशंसा हो रही है। इस फिल्म का विषय साहसी है और समाज में अधिकांश लोग इस विषय पर बात करना नहीं चाहते।
इस नासूर का भीतर ही भीतर मवाद बनना जारी रहता है जबकि इसे शल्य चिकित्सा की आवश्यकता है। मनुष्यों में विविधता है और यह जरूरी नहीं है कि दो लोगों के विचार मिलें। वैचारिक विविधता स्वाभाविक है। मनुष्यों को नाम की जगह नंबर से संबोधित करना संभव नहीं होगा। भूमि और तापसी पन्नू ने किसी बड़े सितारे का सहारा नहीं लिया है बल्कि उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर अपने अभिनय की धाक जमाई है।
तापसी अभिनीत 'पिंक' में अमिताभ बच्चन ने बचाव पक्ष के वकील की भूमिका इतने विश्वसनीय ढंग से निभाई है कि आम दर्शक के मन पर उसका गहरा प्रभाव छूटा है। तापसी ने 'नाम शबाना' और 'बेबी' में भी प्रभावोत्पादक अभिनय किया है। 'नाम शबाना' तो पूरी तरह तापसी की फिल्म मानी जाती है।
कहा जा सकता है कि भूमि और तापसी को किसी सुपर सितारे के साथ अभिनय करने की आवश्यकता भी नहीं है और न ही उनके प्रेम प्रसंग की कोई बात सामने आई है। बैसाखियों की जरूरत प्रतिभाशाली व्यक्ति को नहीं पड़ती। भूमि ने यह तो साबित कर दिया है कि बिना शरीर प्रदर्शन के भी अभिनय के दम पर सफलता पाई जाती है।
लेकिन पटकथा की मांग के अनुरूप वे शारीरिक सौंदर्य भी प्रदर्शित करने जा रही हैं ऐसी खबरें हैं। आजकल के युवा कलाकार राजकुमार राव, आयुष्मान खुराना, विकी कौशल और भूमि तथा तापसी केवल पटकथा पसंद आने पर ही फिल्म में काम करना पसंद करते हैं। भव्य निर्माण संस्था इन लोगों के लिए कोई आकर्षण नहीं रखती परंतु पटकथा अच्छी लगने के बाद उनकी कोई शर्त नहीं होती।
नई सोच और विचार हमेशा इसी तरह विकसित होते हैं और बड़े परिवर्तन प्रस्तुत करतें हैं। इस तरह के विचार से नए लोग और नई ऊर्जा फिल्म उद्योग में आएगी। विगत वर्षों में दर्शक भी बदले हैं। बड़े सितारों से अधिक उन्हें कहानी में नवीनता की तलाश है। आमिर खान की 'दंगल' नया विचार था उन्होंने दो नई तारिकाओं को अवसर दिया था और सारा फोकस भी उन्हीं पर था।
सलमान खान ने भी फिल्मों में अपने बहनोई को मुख्य भूमिका दी और स्वयं समानांतर भूमिका अभिनीत की। महामारी ने सभी क्षेत्रों में आम आदमियों के जीवन में परिवर्तन प्रस्तुत किए हैं। साहित्य और सिनेमा में महामारी के प्रभाव को अभी तक अभिव्यक्त नहीं किया है। बॉक्स ऑफिस की खातिर कड़वी हकीकत को भी महिमामंडित किया गया है।
ऋषिकेश मुखर्जी की राजेश खन्ना अभिनीत 'आनंद' और शर्मिला टैगोर तथा राजेश खन्ना अभिनीत 'सफर' में यही किया गया। दरअसल दर्द का सहना अन्याय नहीं होता। यह भी जनहित में है कि दर्द को उसके यथार्थ भयावह रूप में प्रस्तुत किया जाए। यथार्थ को जस का तस प्रस्तुत करना आसान भी नहीं है और अवाम इसे स्वीकार भी नहीं करती।
मौत के चेहरे-मोहरे और स्वभाव का यथार्थ वर्णन करने कोई लौटता भी नहीं है। यह आम आदमियों के हित में है कि इस विषय में खामोशी ही बरती जाए। यह अत्यंत प्रसन्नता की बात है कि नए कलाकार और फिल्मकार अपने अभिनव विचारों सहित आगे आ रहे हैं। अच्छी बात यह है कि आज उम्दा सृजन में सहयोग करने के लिए पूंजी निवेशकों की भी कमी नहीं है।