अरविंद केजरीवाल विचारधारा बदलकर क्या बीजेपी की जगह लेने के लिए तैयार हैं?

केवल भारत में “भक्त” जैसे एक सीधे सादे शब्द का मतलब कई लोगों के लिए बहुत कुछ हो सकता है

Update: 2022-03-28 09:28 GMT
संदीपन शर्मा।
केवल भारत में "भक्त" जैसे एक सीधे सादे शब्द का मतलब कई लोगों के लिए बहुत कुछ हो सकता है. भक्त शब्द सम्मान का बिल्ला हो सकता है लेकिन ये निर्भर करेगा कि उसने किसे अपना देवता चुना है. जैसे – रामभक्त हनुमान. या फिर यह एक अपमानजनक उपाधि हो सकती है जिसे किसी नेता या विचारधारा के प्रति निष्ठा अंधी होती है . लेकिन, इस सामाजिक-राजनीतिक इकोसिस्टम (Socio- Political Eco System) में एक और तरह के भक्त होते हैं. ऐसा कोई जो देवताओं को खुशी खुशी बदल सकता है .मिसाल के तौर पर अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejariwal) .
जन्म के समय अलग हुए
केजरीवाल और नरेंद्र मोदी उसी क्रांति की पैदाइश हैं जिसने पिछले दशक में भारत को बदल दिया. और, उनका राजनीतिक विकास उन भाई बहन की तरह रहा है जो ऐतिहासिक रूप से तो जुड़े होते हैं लेकिन जन्म के समय अलग-अलग हो गए.
भारतीय पॉप कल्चर में अधिकांश भाई-बहन कुंभ मेले में बिछुड़ जाते हैं. इस मेला को भी राजनीतिक संदर्भ में देखा जा सकता है जब लगभग एक दशक पहले कांग्रेस के नेतृत्व वाली भ्रष्ट और बेहोश केंद्र सरकार के खिलाफ लोग सड़कों पर उतर आए थे.
लोगों के इस सामूहिक नाराजगी के दो तात्कालिक कारण थे . एक, दिल्ली में निर्भया रेप केस. और दूसरा, भारत को भ्रष्टाचार से मुक्त करने के लिए लोकपाल की मांग. लेकिन, इन दोनों घटनाओं ने भारत के लिए अभिशाप बन चुकी भ्रष्ट, कमजोर और वंशवादी व्यवस्था को पूरी तरह से खत्म करने की ज्वलंत इच्छा को ही सतह पर ला दिया. और सामान्य जनता की ये अंदरूनी इच्छा थी कि चाहे कोई भी पार्टी हो दिल्ली के लगभग हर राजनेता और उनकी दागी राजनीति से छुटकारा पाना ही होगा. इसलिए, उस दौरान आसपास रहने वाले लगभग सभी लोग बाहर निकल गए: गांधी परिवार, उनके दरबारी और यहां तक कि आडवाणी सहित भाजपा के शीर्ष नेता भी. लुटियंस क्लब के पाप से भारत को शुद्ध किया गया.
बहरहाल अरविंद केजरीवाल की राय में इस शुद्धिकरण से फायदा उठाने वालों में एक वो स्वयं ही थे. आखिरकर उनका इंडिया अगेंस्ट करप्शन इस आंदोलन का पायलट था. अपने कैडर और सोशल मीडिया की मदद से इस इंडिया एगेंस्ट करप्शन ने आंदोलन को दिशा और उड़ान दोनों दी.
प्रतिद्वंद्विता
लेकिन इस क्रांति के फसल को नरेन्द्र मोदी ने ही काटा. इसके कई कारण थे जैसे उनका अपना प्रशासनिक रिकॉर्ड, हिंदुत्व की अपील, 'अच्छे दिनों' का वादा और भाजपा की विरासत का लाभ. और एक ही क्रांति के दो बच्चों के साथ नियति ने अलग व्यवहार किया . मोदी जल्द ही मनमोहन देसाई की फिल्म के बड़े भाई एंथोनी बन गए. और केजरीवाल को महज साइडशो के रूप में ड्रामा का अकबर माना जा सकता है.
बहरहाल , केजरीवाल इस रोल को स्वीकार नहीं करना चाहते थे. उनका मानना था कि लोगों में बदलाव की इस लालसा के वे स्वाभाविक लाभार्थी थे और इसलिए उन्होंने अपने करियर की शुरुआत में एक रणनीतिक गलती कर दी. उन्होंने खुद को मोदी के खिलाफ खड़ा कर दिया. और ये वही मोदी थे जिन्हें लोगों ने इस क्रांति का सिरमौर नेता मान लिया था. केजरीवाल की शुरुआती गलतियों की लिस्ट लंबी है: वाराणसी से मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने का उनका फैसला, प्रधानमंत्री पर लगातार निजी हमला करना , टकराव और धरने की राजनीति… लेकिन एक लंबी कहानी को छोटा करते हुए यही कहा जा सकता है कि जंग की लूट को साझा करने के अपने उतावलापन में वे अपने "क्रांति के भाई" मोदी के प्रतिद्वंद्वी में बदल गए.
गुप्त भक्त
"इन द डार्केस्ट ऑवर " में विंस्टन चर्चिल एक दिलचस्प बात बताते हैं जो केजरीवाल की राजनीति और व्यक्तित्व पर सही तौर पर उतरता है. संसद में अपने जबरदस्त भाषण के बाद, चर्चिल कहते हैं, "जो लोग अपना विचार नहीं बदलते हैं, वे कभी भी कुछ नहीं बदल सकते हैं."
विचार बदलने के मामले में आपको इसका श्रेय केजरीवाल को देना होगा. वह भगत सिंह मामले पर तुरंत अपना विचार बदल सकते हैं . वह दोस्तों को बाहर निकाल सकते हैं , देवताओं और नायकों को बदल सकते है (अन्ना हजारे को याद करें ) और विचारधारा के साथ बहुत लचीला हैं . उनके मस्तिष्क में, भगत सिंह, बीआर अम्बेडकर, गांधी, हनुमान और कई अन्य मिलकर एक मौलिक सूप बनाते हैं जहां उनकी विचारधारा लगातार विकसित होती है.
वो एक भक्त हैं लेकिन स्वयं को छोड़कर उनका कोई भी स्थायी देवता नहीं है. इसलिए, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि आगे बढ़ने की इस प्रक्रिया में केजरीवाल ने मोदी-मॉडल को अपना लिया और इसे अपनी "चीट शीट" में जगह दे दी. धर्मनिरपेक्ष के रूप में शुरुआत करने वाले केजरीवाल अब दक्षिणपंथी हो गए. उन्होंने मोदी के उस विचार को अपनाया जिसके तहत मोदी विभिन्न राजनीतिक खेमों से (भगत सिंह, गांधी, अम्बेडकर और हनुमान) रोल मॉडल को आत्मसात कर लेते हैं. इतना ही नहीं , खुद को अल्पसंख्यकों से भी दूर कर लिया.
इतना ही नहीं. वह मोदी पर पूरी तरह से खामोश हो गए. मई 2019 (बालाकोट एक महत्वपूर्ण मोड़ था) से कुछ महीने पहले, उन्होंने अपने भाषणों में पीएम के नाम का उल्लेख करना बंद कर दिया और कई मुद्दों, विशेषकर हिंदुत्व और राष्ट्रवाद पर भाजपा की लाइन का समर्थन करना शुरू कर दिया.
उद्देश्य सरल था: भारतीय राजनीति बहुसंख्यकवादी हो गई थी और केजरीवाल इस विभाजन के सही साइड में खड़े रहना चाहते थे. और वे अपने मिशन में सफल भी हुए क्योंकि वो लगातार ही हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के मुद्दे को बार बार उठाते रहे.
घर वापसी
केजरीवाल ने मोदी के प्ले-बुक से उधार लिया , सियासी गलियारों में वे मोदी के डुप्लीकेट बन गए , बीजेपी के वैचारिक एजेंडा को न सिर्फ बढ़ावा दिया बल्कि आत्मसात भी किया. लेकिन अचानक ही वो मोदी पर फिर से हमला करने लगे हैं. आखिर क्या बदल गया है ?
जब केजरीवाल के बारे में बात करते हैं तो बशीर बद्र की एक शेर याद हो जाती है…. कुछ तो मजबूरियां रहीं होंगी , यूं ही कोई बेवफा नहीं होता.
केजरीवाल की अपनी मजबूरियां हैं . एक, उन्होंने ये महसूस कर लिया है कि आगे बढ़ने के लिए और अपनी महत्वाकांक्षाओं को साकार करने के लिए अब उन्हें भाजपा से मुकाबला करना होगा. उनका अगला गंतव्य हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और गुजरात है , जहां भाजपा ही एक ऐसी पार्टी है जिसको हराना है. कई लोगों के मुताबिक , गुजरात चुनाव से पहले मोदी पर हमला करने की रणनीति मूर्खतापूर्ण है.. लेकिन, याद रहे कि 2017 के चुनावों में बीजेपी को कांग्रेस ने लगभग पछाड़ दिया था. इसलिए, लोगों में कुछ वास्तविक नाराजगी तो है जिसे केजरीवाल साधना चाहते हैं और इसके लिए मोदी को निशाने पर लेना ही होगा.
दूसरा, उन्होंने महसूस किया है कि उत्तर भारत में कांग्रेस और हर दूसरी विरासत वली पार्टी सिर्फ दफन नहीं हुई है लेकिन मर जरूर गई है. उन्होंने महसूस किया है कि मुसलमानों के प्रति सहानुभूति रखने वाली किसी भी पार्टी या राजनेता का आज के भारत में , कम से कम अभी के लिए , कोई भविष्य नहीं है . और, अपनी हिंदू साख स्थापित कर लेने के बाद अब वो दलितों की तरफ बढ़ रहे हैं . निस्संदेह ही उनके पास एक मौका है और वो आज अकेले ऐसे राजनेता हैं जो खुद को भाजपा के विकल्प के रूप में स्थापित कर सकते हैं.
केजरीवाल ये महसूस करते हैं कि 2010-11 क्रांति का इनाम पाने का वक्त अब आ गया है. अपने बड़े भाई से सीख कर , छोटा मोदी अब प्रतिद्वंदी बनने को तैयार है.
एक दुश्मन जो कभी गुप्त भक्त बन गया था ..आज फिर से दुश्मन बन गया है. केजरीवाल और भारतीय राजनीति एक बार फिर वहीं खड़ी है जहां से इसने शुरूआत की थी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
Tags:    

Similar News

-->