भारत के लिए जरूरी होता ईरान का साथ: अफगानिस्तान में अपने हितों की सुरक्षा को देखते हुए भारत के लिए ईरान का साथ जरूरी

रान के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी ने अपने पद की शपथ ग्रहण कर ली। उनके शपथ ग्र्रहण समारोह में शामिल होने के लिए भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर भी तेहरान में उपस्थित रहे।

Update: 2021-08-07 05:24 GMT

भूपेंद्र सिंह| ईरान के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी ने अपने पद की शपथ ग्रहण कर ली। उनके शपथ ग्र्रहण समारोह में शामिल होने के लिए भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर भी तेहरान में उपस्थित रहे। अपने दो दिवसीय ईरान दौरे पर जयशंकर इस आधिकारिक कार्यक्रम में शिरकत करने के अलावा कई द्विपक्षीय बैठकों में भी हिस्सा लेंगे। एक महीने के भीतर जयशंकर का दूसरा ईरान दौरा यही दर्शाता है कि तेहरान किस प्रकार नई दिल्ली की प्राथमिकताओं में है। दरअसल मौजूदा वैश्विक भू-राजनीतिक समीकरणों में ईरान की स्थिति जटिल होते हुए भी बड़ी महत्वपूर्ण बनी हुई है। विशेषकर भारत के लिए ईरान की खासी अहमियत है, लेकिन इसमें कुछ पेच भी फंसे हुए हैं। जैसे अमेरिका-ईरान के बीच उलझे हुए रिश्तों के कारण भारत के समक्ष अक्सर दुविधा की स्थिति बन जाती है। वाशिंगटन ने तेहरान पर कुछ प्रतिबंध लगाए थे। हालांकि दोनों देशों में सरकारें बदल गई हैं, फिर भी गतिरोध टूटने के आसार नहीं दिख रहे। यह भी एक दिलचस्प संयोग है कि अमेरिका में अपेक्षाकृत कट्टर डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन के दौरान ईरान में उदारवादी नेता शासन की बागडोर संभाल रहे थे। वहीं अब अमेरिका की कमान उदारवादी बाइडन संभाल रहे हैं तो ईरान में कट्टरपंथी रईसी का राज आ गया है। वैसे तो बाइडन ने राष्ट्रपति बनने के बाद अपने पूर्ववर्ती ट्रंप की कई नीतियों को पलट दिया, लेकिन ईरान को लेकर उनकी नीति कमोबेश वैसी ही रही। अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि अमेरिका रईसी जैसे कट्टर माने जाने वाले नेता के साथ किस प्रकार आगे बढ़ेगा? इस अनिश्चितता को लेकर भारत के समक्ष समस्याएं और बढ़ जाती हैं।

ईरान को साधने के लिए भारतीय प्रयास तेज
वैसे तो भारत की विदेश नीति के लिए ईरान हमेशा से महत्वपूर्ण रहा है, लेकिन वर्तमान परिदृश्य में उसकी महत्ता और बढ़ गई है। यही कारण है कि ईरान को साधने के लिए भारतीय प्रयास यकायक तेज हुए हैं। इसकी सबसे बड़ी तात्कालिक वजह अफगानिस्तान है। वहां तेजी से बदल रहे समीकरणों में केवल ईरान ही ऐसा देश है, जिसका सोच भारत से बहुत मेल खाता है। अफगान अखाड़े में सक्रिय खिलाड़ियों में जहां पाकिस्तान और चीन एक पाले में हैं। वहीं रूस की स्थिति न इधर न उधर वाली है। ऐसे में अफगान सीमा से सटे देशों में केवल ईरान का रुख ही भारत के अनुकूल है। बदलते हालात के हिसाब से ईरान ने तैयारी भी शुरू कर दी है। उसने अफगान सीमा के आसपास अपने लड़ाकू दस्तों को सक्रिय कर दिया है। अफगानिस्तान में अपने व्यापक हितों को सुरक्षित रखने के लिए भारत को ईरान का साथ जरूरी है।
भारत ईरान में चाबहार बंदरगाह परियोजना से जुड़ा
दूसरे महत्वपूर्ण मसले की कड़ी भी कहीं न कहीं अफगानिस्तान से ही जुड़ी है। लैंडलाक्ड यानी भू-आबद्ध देश अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक पहुंच बनाने के लिए भारत ईरान में चाबहार बंदरगाह परियोजना से जुड़ा है। अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण इस योजना का विस्तार अधर में पड़ गया है और यह आर्थिक स्तर पर भी अपेक्षित रूप से व्यावहारिक नहीं रह गई है। इस मोर्चे पर भारत की कमजोर होती स्थिति को देखते हुए चीन इस मौके को भुनाना चाहता है। इसी कारण उसने ईरान में करीब 400 अरब डॉलर के निवेश की एक दीर्घकालीन योजना बनाई है। अनुबंधों में अपनी एकतरफा शर्तों और कर्ज के जाल में फंसाने के लिए कुख्यात होने के बावजूद चीन को इस मोर्चे पर मुश्किल इसलिए नहीं दिखती, क्योंकि ईरान के पास और कोई विकल्प नहीं बचा है। ऐसे में भारत को कुछ ऐसे उपाय अवश्य करने आवश्यक हो गए हैं कि ईरान में चीन का प्रभाव एक सीमा से अधिक न बढ़ने पाए।
भारत और ईरान के बीच द्विपक्षीय व्यापार महत्वपूर्ण मुद्दा
भारत और ईरान के संबंधों में द्विपक्षीय व्यापार भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। दोनों के व्यापारिक रिश्तों का एक खास पहलू यह है कि दोनों देश इसके लिए एक-दूसरे की मुद्रा में विनिमय को प्राथमिकता देते आए हैं, ताकि डालर के रूप में अपनी विदेशी मुद्रा की बचत की जा सके। हालांकि अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण पिछले कुछ समय से दोनों देशों का व्यापार घटा है, क्योंकि भारतीय कंपनियां अमेरिकी प्रतिबंधों के कोप का भाजन नहीं बनना चाहतीं। ऐसे में भारत-ईरान के संबंधों के परवान चढ़ने में एक तीसरा पक्ष यानी अमेरिका अहम किरदार बना हुआ है। केवल अमेरिका ही नहीं, बल्कि पश्चिम एशिया में सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात यानी यूएई और इजरायल जैसे देशों के साथ भारत के संबंधों में आए व्यापक सुधारों से भी ईरान के साथ रिश्तों की तासीर प्रभावित हो रही है। मोदी सरकार के दौर में सऊदी अरब और यूएई के साथ भारत के संबंधों में नाटकीय रूप से सुधार हुआ। इसका भारत को पाकिस्तान के ऊपर दबाव बनाने में फायदा भी मिला। वहीं इजरायल तो भारत का पारंपरिक रूप से सामरिक साझेदार है। जहां सऊदी अरब और यूएई के साथ ईरान की मुस्लिम जगत के नेतृत्व को लेकर प्रतिद्वंद्विता रही है वहीं इजरायल उसे फूटी आंख नहीं सुहाता। इन तीनों ही देशों के इस समय भारत के साथ अत्यंत मधुर और बेहद अटूट संबंध हैं। ऐसी अड़चनों के बावजूद भारत ने ईरान को लेकर अपने प्रयासों में कोई कमी नहीं रखी है। यह बहुत ही स्वाभाविक भी है, क्योंकि ईरान को भरोसे में लेने के लिए भारत को अतिरिक्त प्रयास करने ही होंगे। विशेषकर रईसी जैसे कट्टरपंथी नेता के साथ ताल मिलाने के लिए यह और भी आवश्यक हो जाता है। जयशंकर की एक के बाद एक यात्राएं इसी सिलसिले में ही हुई हैं।
ईरान का साथ भारत के लिए जरूरी
पश्चिम एशिया के भू-राजनीतिक परिदृश्य से लेकर अफगानिस्तान में बदल रहे समीकरण हों या फिर पाकिस्तान को दरकिनार करते हुए अफगान और मध्य एशिया तक पहुंच बनाने का मसला या फिर भारत की ऊर्जा सुरक्षा, इन सभी पहलुओं के लिहाज से ईरान का साथ भारत के लिए बहुत जरूरी है। इसके लिए भारत के प्रयास तो सही दिशा में हैं, लेकिन इसके साथ ही उसके समक्ष ईरान की कहानी से जुड़े अन्य किरदारों को साधने की चुनौती भी उतनी ही बड़ी है। उम्मीद है कि भारतीय कूटनीति इस दुविधा और धर्मसंकट का भी कोई न कोई समाधान निकालने के लिए और सक्रियता दिखाएगी, ताकि राष्ट्रीय हितों को अपेक्षा के अनुरूप पोषित किया जा सके।


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