इसमें किंचित संदेह नहीं कि कोरोना वायरस से निपटने में एक बड़ी बाधा समाज और खासकर ग्रामीण समाज में फैली भ्रामक जानकारियां हैं। ऐसी जानकारियां दुनिया के दूसरे देशों में भी फैलाई गईं, लेकिन अपने देश में तो उन नेताओं ने यह काम किया, जिनका दायित्व था लोगों को सही राह दिखाना। मीडिया के एक तबके ने भी यही काम किया। इस तबके ने जनवरी माह में टीकाकरण शुरू होते ही टीके को लेकर न केवल शंका जाहिर की, अपितु ऐसी टिप्पणियां भी कीं, जिनसे देश के एक वर्ग में भ्रम और डर की स्थिति उत्पन्न हुई। यह परोक्ष रूप से भारतीय वैज्ञानिकों के अथक परिश्रम और प्रतिभा को कठघरे में खड़ा करने जैसा था। उल्लेखनीय है कि इसके नकारात्मक परिणाम त्वरित गति से सामने आए। 'मूड ऑफ द नेशन पोल मार्केट रिसर्च एजेंसी-कार्वी इनसाइटÓ के जनवरी माह में 19 राज्यों में 37 संसदीय क्षेत्रों में किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक 21 प्रतिशत लोग टीका नहीं लगवाना चाहते थे। देश के कई ग्रामीण क्षेत्रों में यह तर्क दिया जा रहा कि वैक्सीन लगवाने के बाद पुरुष नपुंसक हो जाएंगे या उनकी संतान विकलांग होगी। वहीं कइयों का यह मानना है कि उन्हेंं वैक्सीन की आवश्यकता है ही नहीं, क्योंकि उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बहुत अच्छी है और वैक्सीन तो उन लोगों के लिए जरूरी है जो बीमार रहते हैं। हैरानी की बात तो यह है कि वैक्सीन को लेकर संशय और भ्रम की स्थिति ब्रिटेन के भारतीय समुदाय में भी व्याप्त है। ऑक्सफोर्ड यूनिवॢसटी समेत कई संस्थानों ने मिलकर हाल ही में किए एक सर्वे में बताया कि वहां के केवल 56 प्रतिशत भारतीयों ने वैक्सीन लगवाने में दिलचस्पी दिखाई है, जबकि 44 प्रतिशत ने वैक्सीन न लेने या फिर असमंजस में होने की बात कही। जो वजह गिनाई गईं उसमें वैक्सीन पर जानकारी के अभाव को जिम्मेदार ठहराया गया।
देखा जाए तो टीकाकरण के खिलाफ विरोध का इतिहास इसके विकास और इसके प्रयोग जितना ही पुराना है। 18वीं सदी के मध्य से लेकर अंत तक इंग्लैंड और अमेरिका में स्मॉल पॉक्स टीके का विरोध हुआ था। वहां एक टीकाकरण विरोधी लीग भी बनी। इस विरोध का आधार धाॢमक एवं राजनीतिक आपत्तियां थीं। 1885 का लिसेस्टर डेमोंट्रेशन मार्च सर्वाधिक प्रसिद्ध टीकाकरण विरोधी प्रदर्शनों में से एक है। न्यूयॉर्क में 1879 में एक एंटी वैक्सीनेशन सोसाइटी ऑफ अमेरिका का गठन हुआ तो ब्राजील में 1904 में वैक्सीन के खिलाफ विद्रोह भड़का। मालूम हो कि दुनिया भर में फैले ये संगठित समूह किसी भी तरह के टीकाकरण का विरोध करते हैं। वे अनिवार्य टीकाकरण को नागरिक अधिकारों, वैयक्तिक स्वतंत्रता और स्वायत्तता का उल्लंघन मानते हैं।
अनेक शोध बताते हैं कि टीकाकरण के कारण दुनिया भर में हर साल 20 से 30 लाख जानें बचाई जा रही हैं। यह संख्या 45 लाख तक हो सकती थी, अगर शेष बचे हुए लोग भी टीका लगवाते। हालांकि वैक्सीन विरोधियों की संख्या बहुत कम है, लेकिन वे बहुत मुखर और सक्रिय हैं। वैक्सीन को लेकर उनके द्वारा नकारात्मक खबरों ने भारत समेत कई देशों में टीकाकरण को प्रभावित किया है। उल्लेखनीय है कि 2016 में केरल में डिप्थीरिया के खिलाफ चलाए गए टीकाकरण कार्यक्रम को भ्रामक जानकारियों ने प्रभावित किया। इतना ही नहीं कर्नाटक और तमिलनाडु में चेचक और रूबेला वायरस के खिलाफ चलाए गए टीकाकरण अभियान को भारी नुकसान तब उठाना पड़ा था, जब इसके विरुद्ध यह गलत दावा किया गया कि इसमें पशुओं का मांस मिलाया गया है। इसी वजह से 2019 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने टीकाकरण विरोधी समूह और उनके कुप्रचार के कारण वैक्सीन को लेकर पैदा होने वाली हिचक की पहचान वैश्विक स्वास्थ्य के लिए दस सबसे बड़े खतरों के रूप में की थी।
यह तय है कि कोरोना वैक्सीन का पूर्व में जो दुष्प्रचार हुआ, उसका नकारात्मक प्रभाव सहजता से नहीं जाने वाला, इसलिए टीके के संबंध में उपजे हुए भ्रम को दूर करने के लिए सरकारों को भरसक प्रयास करने होंगे। ऐसी खबरें निराश करती हैं कि ग्रामीणों ने टीकाकरण टीम को भगा दिया या खुद ही भाग गए। इस संबंध में निर्णायक भूमिका धर्मगुरुओं, स्थानीय नेताओं एवं उन लोगों की हो सकती है, जिन्हेंं सामान्य जन अपना आदर्श मानते हैं। इसके अलावा बिना किसी वैज्ञानिक आधार के कोरोना वैक्सीन को लेकर हुए किसी भी प्रकार के दुष्प्रचार को रोकने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों को सख्त कदम उठाने होंगे, क्योंकि प्रश्न मानव जीवन की सुरक्षा का है।