पिछले कुछ वर्षो में इंटरनेट मीडिया अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम बनकर उभरा
भारत में इंटरनेट मीडिया के बेलगाम होते दौर में इसके अनेक दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं।
भारत में इंटरनेट मीडिया के बेलगाम होते दौर में इसके अनेक दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। समय आ गया है कि इस बारे में समग्रता से विचार किया जाए। दरअसल भारत में सूचना प्रौद्योगिकी (आइटी) एक्ट में वर्ष 2008 के बाद से कोई खास संशोधन नहीं हुआ है। अच्छी बात यह है कि अब माइक्रोब्लॉगिंग साइट ट्विटर के साथ चल रहे विवाद के बीच केंद्र सरकार इंटरनेट मीडिया के विनियमन के संबंध में एक प्रारूप तैयार कर रही है। इस प्रारूप में इंटरनेट मीडिया के विभिन्न आयामों, स्ट्रीमिंग और ओटीटी प्लेटफॉर्म समेत समाचारों से संबंधित वेबसाइट्स के लिए नियम तय किए गए हैं।
नए नियमों के अनुसार इंटरनेट मीडिया प्लेटफॉर्म्स को एक मुख्य अनुपालन अधिकारी की नियुक्ति करनी होगी। यह अधिकारी 24 घंटे कानून प्रवर्तन एजेंसियों के निर्देशों का जवाब देगा। इसके अलावा, सरकार सूचना प्रौद्योगिकी/ आइटी अधिनियम की धारा 79 में संशोधन भी कर रही है। दरअसल केंद्र सरकार चाहती है कि इंटरनेट मीडिया कंपनियां घृणा, अफवाह और नफरत फैलाने वाले कंटेंट को हटाने के संबंध में अधिक संवेदनशील हों। ज्ञातव्य है कि भारत में इंटरनेट मीडिया प्लेटफॉर्म पहले से ही सूचना प्रौद्योगिकी (आइटी) अधिनियम, 2008 के दायरे में आते हैं।
हालांकि भारत में फेक न्यूज को रोकने के लिए कोई विशेष कानून नहीं है। बात अगर टाइमिंग की करें तो केंद्र सरकार ने आइटी नियमों में बदलाव की घोषणा ऐसे समय में की है, जब ट्विटर और केंद्र सरकार के बीच विवाद थमता नजर नहीं आ रहा है। गौरतलब है कि पिछले दिनों आइटी मंत्रलय ने गलत तथ्यों और सूचनाओं के जरिये कृषि कानून विरोध आंदोलन को भड़काने में शामिल करीब 1,100 ट्विटर अकाउंट की पहचान कर उन्हें बंद करने का निर्देश दिया था। परंतु ट्विटर ने करीब 500 ट्विटर अकाउंट बंद करने के बाद अन्य अकाउंट के खिलाफ यह कहकर कार्रवाई करने से मना कर दिया था कि सरकार की इच्छा के मुताबिक सभी को बंद नहीं किया जा सकता।
सनद रहे इंटरनेट मीडिया के विनियमन के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरकार का ध्यान इस ओर आकृष्ट करने का प्रयास कई बार किया गया कि ऑनलाइन निजता के अधिकार को बनाए रखने, घृणास्पद संदेशों को फैलने से रोकने तथा फेक न्यूज की उत्पत्ति का पता लगाने के संदर्भ में इंटरनेट मीडिया का विनियमन आवश्यक है। एक आंकड़े के मुताबिक आज देश में इंटरनेट मीडिया के करीब 70 करोड़ यूजर्स हैं। यानी यह अभिव्यक्ति का बड़ा मंच बन चुका है। इंटरनेट मीडिया प्लेटफॉर्म से जुड़े हालिया कई विवादों को देखते हुए यह आभास होने लगा है कि बेलगाम होते इस प्लेटफॉर्म के लिए आइटी से जुड़े पुराने नियमों की समीक्षा कर नए नियम-कायदे बनाना जरूरी है। अगर आइटी नियमों को और अधिक मजबूत बनाया जाता है तो इंटरनेट मीडिया प्लेटफॉर्म भारतीय कानून के प्रति ज्यादा जवाबदेह होंगे। नए नियमों के आने से डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म को भारतीय आचार संहिता का पालन करने के लिए प्रतिबद्ध होना पड़ेगा।
आज डिजिटल/ इंटरनेट मीडिया रोटी, कपड़ा और मकान की तरह हमारे जीवनचर्या का एक अहम हिस्सा बनता जा रहा है। इंस्टाग्राम, ट्विटर, फेसबुक जैसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के बिना आज जीवन की कल्पना करना थोड़ा मुश्किल है। लेकिन इसका एक पहलू यह भी है कि इन प्लेटफॉर्म पर एक बार संदेश प्रसारित हो जाने के बाद उसका नियंत्रण हमारे हाथ में नहीं रहता। वह समाज के सामने किस प्रकार प्रस्तुत होगा, समाज पर किस प्रकार का असर डालेगा, इसका अनुमान लगाना मुश्किल है। विचार किए बिना सूचनाओं को प्रसारित करने की होड़ समाज में कई बार तनाव का कारण बनती है। आज यह माध्यम निर्बाध, अनियंत्रित और अमर्यादित अभिव्यक्ति का मंच बन गया है। किसी दूसरे व्यक्ति के सहमत नहीं होने पर गाली-गलौज करना और धमकियां देना आदि सामान्य होता जा रहा है। व्यक्ति और समुदाय विशेष के खिलाफ घृणा फैलाने और सांप्रदायिक तनाव पैदा करने में भी इंटरनेट मीडिया की सक्रियता देखी गई है, इसीलिए सुप्रीम कोर्ट भी इसके नियमन के लिए सरकार से कानून बनाने को कह चुका है।
बात अगर हालिया विवाद में आए इंटरनेट मीडिया प्लेटफॉर्म ट्विटर की करें तो एक सीमित दायरे में ट्विटर का आकर्षण कुछ ऐसा है कि यहां यूजर्स का जो मन करता है, वे उसी तरह के कमेंट्स करते हैं, पलभर में सही या गलत चीजें, भद्दी गालियां और अनाप-शनाप कमेंट्स साइबर स्पेस में आ जाते हैं, जहां उनको कोई भी पढ़ सकता है। ये कमेंट्स कहीं से भी प्रमाणित नहीं होते। निश्चित तौर पर ट्विटर खराब ट्वीट और झूठ के सहारे बदनाम करने वाली जानकारियों की निगरानी जरूर करता है, लेकिन इस टास्क को प्रभावी तरीके से करने का काम बहुत बड़ा है। एक जानकारी के मुताबिक वर्ष 2020 में हर सेकंड औसतन छह हजार ट्वीट किए गए। हर मिनट 3.6 लाख ट्वीट किए गए और हर घंटे 2.16 करोड़ ट्वीट किए गए। जब इंटरनेट मीडिया के इतने शक्तिशाली प्लेटफॉर्म पर प्रोपेगेंडा के तहत दुष्प्रचार ट्रेंड होने लगें तो समझा जा सकता है कि ये कितना खतरनाक होगा।
दूसरी तरफ बात अगर फेसबुक की करें तो एक अनुमान के मुताबिक हर 40 मिनट में फेसबुक से संबंधित एक पोस्ट को हटाने की रिपोर्ट की जाती है। अधिकतर लोग बिना सोचे-विचारे ही किसी भी पोस्ट को साझा कर देते हैं। दरअसल टेलीग्राम, वाट्सएप और फेसबुक पर कई डिजिटल ग्रुप बने होते हैं। अक्सर ये ग्रुप किसी खास विचारधारा से प्रेरित होते हैं या किसी खास मकसद से बनाए जाते हैं। कहा जाए कि अधिकतर ग्रुप किसी न किसी विचारधारा से प्रेरित होते हैं तो गलत नहीं होगा। यहां बिना किसी रोक-टोक के धड़ल्ले से फेक न्यूज बनाए और साझा किए जाते हैं।
जाहिर है ये न्यूज किसी खास भावना या मकसद से तैयार किए जाते होंगे। फिर यह कहना गलत नहीं होगा कि सामाजिक सौहार्द के सामने इंटरनेट मीडिया एक चुनौती बन कर खड़ा है। अत: कहा जा सकता है कि डिजिटल मीडिया के अनाम-गुमनाम सिपाहियों की स्थिति तो बंदर के हाथ में उस्तरा जैसी है, उन्हें तो बस इसका यूज करना है, फिर चाहे वह परायों को काटे या अपनों को। इसलिए इंटरनेट मीडिया प्लेटफॉर्म ट्विटर से यह उम्मीद करना गलत है कि वह स्व-अनुशासन या स्व-नियमन जैसा कोई बड़ा कदम उठाएगा। इसलिए आज जरूरत है कि इंटरनेट मीडिया का वैधानिक नियमन करने के लिए ऐसी व्यवस्था की जाए, ताकि इसका सकारात्मक उपयोग बढ़े और नकारात्मक उपयोग कम-से-कम हो।
विनियमन से जुड़ी चिंताएं : सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2017 में पुट्टास्वामी मामले में निजता के अधिकार को मूल अधिकार माना है। विशेषज्ञों के एक तबके का मानना है कि इंटरनेट मीडिया प्रोफाइल्स को आधार से लिंक करने के बाद उनका विनियमन करना निजता के अधिकार के विरुद्ध है। इससे व्यक्ति से संबंधित व्यक्तिगत या गोपनीय सूचनाओं के सार्वजनिक हो जाने का भय बना रहेगा। एक बात और भी है कि डाटा सुरक्षा को लेकर भारत द्वारा कोई ठोस कदम अभी तक नहीं उठाया गया है। आधार के माध्यम से डाटा प्राप्त कर वाणिज्यिक कंपनियों द्वारा इसके वाणिज्यिक उपयोग का खतरा है। इतनी बड़ी मात्र में डाटा तो है, किंतु इनके स्टोरेज के लिए पर्याप्त डाटा बैंक नहीं हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार इसका उपयोग नागरिकों की निगरानी के उपकरण के तौर पर कर सकती है।
भारत को फेक न्यूज और हेट स्पीच से प्रभावी ढंग से निपटने में कनाडा, जर्मनी और ब्रिटेन से सीख लेने की आवश्यकता है। दरअसल इन देशों ने इंटरनेट मीडिया को न केवल विनियमित किया है, बल्कि इन्हें अपराध मानते हुए कुछ विशेष प्रविधान भी किए हैं। असल में आज भारत को इंटरनेट मीडिया के विनियमन के लिए जर्मनी जैसे एक प्रभावी कानून की जरूरत है। गौरतलब है कि जर्मनी की पाíलयामेंट ने डिजिटल कंपनियों को उनके डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अवैध, नस्लीय और निंदनीय सामग्री के लिए जवाबदेह ठहराने वाला एक कानून पारित किया है। इसके तहत उन्हें एक निश्चित समयावधि में आपत्तिजनक सामग्री को हटाना होगा, अन्यथा उन पर 50 मिलियन यूरो यानी लगभग 4.4 अरब रुपये तक का जुर्माना लगाया जा सकता है। यह कानून लोकतांत्रिक देशों में अब तक का संभवत: सबसे प्रभावी और कठोर कानून है। वहां जब इंटरनेट कंपनियों ने इस कानून को अभिव्यक्ति की वैध स्वतंत्रता के लिए संभावित खतरा बताते हुए चिंता जताई तो जर्मनी के कानून मंत्री ने यह कहकर इसका जवाब दिया था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वहां समाप्त होती है, जहां आपराधिक कानून शुरू होता है।
अगर कुछ अन्य देशों की इंटरनेट मीडिया के विनियमन के लिए बनाए गए कानून की बात करें तो फेक न्यूज की गंभीर होती समस्या से निपटने के लिए मलेशिया में वर्ष 2018 में एंटी-फेक न्यूज कानून 2018 लागू किया गया, जिसमें सरकार को फेक न्यूज बनाने-फैलाने का आरोप साबित होने पर दंडित करने का अधिकार मिल गया है। इस कानून के तहत दोषी को छह साल तक के कारावास और अधिकतम 1.3 लाख डॉलर जुर्माने का प्रविधान है। स्थानीय व विदेशी मीडिया दोनों इस कानून में शामिल हैं। इस कानून के तहत ऐसे समाचार, सूचना, डाटा या रिपोर्ट जो पूरी तरह या आंशिक तौर पर झूठे हैं, उन्हें फेक न्यूज की श्रेणी में रखा गया है। इसमें फीचर, विजुअल एवं ऑडियो रिकाìडग शामिल हैं तथा डिजिटल प्रकाशन और इंटरनेट मीडिया भी इस कानून के तहत रखे गए हैं। अगर फेक न्यूज से मलेशिया या वहां का नागरिक प्रभावित होता है तो यह कानून विदेशी सहित मलेशिया से बाहर नियमों का उल्लंघन करने वालों पर भी लागू होगा।