अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस: शोषण, असमानता और असुरक्षा मौजूदा समय की बड़ी चुनौतियां, क्या होगा निदान?

हर साल पहली मई को पूरी दुनिया में 'अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस' के रूप में मनाया जाता है

Update: 2022-05-01 13:58 GMT

मोहन सिंह

हर साल पहली मई को पूरी दुनिया में 'अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस' के रूप में मनाया जाता है। उत्पादन के दो प्रमुख घटक श्रम और पूंजी के आंतरिक द्वंद से पैदा हुए शोषण के विरुद्ध मजदूरों के संघर्ष और उसके परिणाम स्वरूप मजदूरों के कल्याण के लिए किए उपाय भी अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाने की एक प्रमुख वजह है।

सन् 1806 में अमेरिका के फिलाडेल्फिया में मोचियों ने शोषण के विरुद्ध हड़ताल का आह्वान किया। वे बीस घंटे काम करने के विरुद्ध हड़ताल कर रहे थे। सन् 1827 में मेकेनिक्स यूनियन ऑफ फिलाडेल्फिया पहली ट्रेड यूनियन बनी। उसके बाद दुनिया में मजदूरों के आठ घंटे काम करने के लिए संघर्ष की शुरुआत हुई।

सन् 1886 में अमेरिका में एक आंदोलन हुआ। यह आंदोलन मजदूरों के लिए काम के आठ घंटे तय करने के लिए किया गया। इस आंदोलन को कुचलने लिए फायरिंग हुई जिसमें कुछ मजदूरों की मौत हुई और करीब सौ मजदूर घायल हुए।

सन्1889 अंतरराष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में प्रस्ताव पारित कर हर साल 1मई को अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाने का निर्णय हुआ। भारत में 1 मई 1923 को लेबर किसान यूनियन ऑफ हिंदुस्तान की पहल पर मजदूर दिवस मनाने की शुरुआत हुई। संयोग से 1 मई को गुजरात और महाराष्ट्र अपना स्थापना दिवस भी मानते हैं। इसके पहले ये राज्य बम्बई प्रेसिडेंसी का हिस्सा रहे हैं।

मजदूरों के शोषण की व्यथा

''दुनिया के मजदूर-एक हों'' का नारा देने वाले कार्ल मार्क्स ने कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो और अपनी दूसरी रचनाओं में भी दावा किया कि वर्ग संघर्ष के जरिये मजदूर वर्ग सत्ता पर काबिज होगा। मार्क्स ने इसे सर्वहारा की तानाशाही कहा और बताया कि ऐसा घटित होना अवश्यम्भावी है- क्यों कि उत्पादन के साधनों पर जिस पूंजीवादी तबके अधिकार हैं- वह मजदूरों के शोषण पर आधारित " अतिरिक्त मूल्य" को हड़पने से कभी बाज नही आएगा। इसकी वजह से बेरोजगारी भी बढ़ती है।

मजदूरी में गिरावट भी दर्ज होती है। इस शोषण के विरुद्ध कार्ल मार्क्स ने अपने समय में अकाट्य तर्क प्रस्तुत किया। मार्क्स के जीवनी लेखक फ्रांसिस व्हीन ने दावा किया कि मार्क्स ने सर्वग्राही पूंजीवाद के विरुद्ध दार्शनिक तरीके से तर्क रखे जिसने पूरी सभ्यता को गुलाम बना रखा है। फिर भी कार्ल मार्क्स की कई भविष्यवाणियां गलत साबित हुई।

रूसी क्रांति की सफलता के बाद 'सर्वहारा के तानाशाही' के नाम पर जो राज्य व्यवस्था रूस समेत दुनिया के दूसरे देशों (मसलन हंगरी, चेकोस्लोवाकिया, पोलैंड) में लागू हुई, उनका क्या हश्र हुआ? कम्युनिस्ट विचारधारा पर ही सवाल खड़ा होने लगा, जिसका वाजिब जवाब आजतक नहीं मिला। हालांकि इसका यह कतई मतलब नहीं है कि पूंजीवाद अपने मकसद आज पूरी दुनिया में सफल हो गया है।

आर्थिक असमानता और बेरोजगारी बड़ी समस्या

दुनिया में आज उदारीकरण-वैश्वीकरण-निजीकरण की परियोजना भी सफलता का दावा नहीं कर सकती। उसकी सीमाएं स्पष्ट हो गयी हैं। इस व्यवस्था ने भले ही पूँजी के निर्बाध प्रवाह को सुनिश्चित और संरक्षित किया हों, पर साथ ही शोषण, असमानता और असुरक्षा की अभेद दीवार भी खड़ी किया है। एक ऐसी दीवार, जहां फैज अहमद फैज की यह चीख भी अनसुनी रह जाती है...

हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे,

इक खेत नहीं, इक देश नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे।

जो खून बहे, जो बाग उजड़े ,जो गीत दिलों में कैद हुए,

हर कतरे का हर गुंचे का हर गीत का बदला मांगेंगे।

आर्थिक असमानता, बेरोजगारी और बाजार की मंदी समय-कुसमय दुनिया के सामने दस्तक दे रही है, पर उसके विरुद्ध कोई सार्थक पहल दिखाई नहीं दे रही। एक अनुमान के मुताबिक आज आर्थिक असमानता का आलम यह है कि देश के एक बड़े पूंजीपति के एक घंटे की कमाई की बराबरी करने के लिए एक औसत मजदूर को नौ हजार साल तक लगातार मेहनत करनी पड़ेगी।

इस बढ़ती गैर बराबरी के प्रति आगाह करते हुए ब्रिटेन के स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के अल्ब्रेख्त रिसल ने दावा किया है कि, भूमंडलीकरण के पहले आलोचक कार्ल मार्क्स हैं। उन्होंने ही सबसे पहले इस बढ़ती गैर बराबरी के प्रति हमें आगाह किया।

मजदूरों के अधिकार को लेकर संघर्ष

आज जब दुनिया में कृत्रिम बौद्धिकता, रोबेटिक टेक्नोलॉजी, थ्री डी-इंटरनेट ऑफ द थिंग्स के जरिए तीसरी औद्योगिक क्रांति के शुरुआत का दावा किया जा रहा है। ऐसे में एक ओर जहां बेरोजगारी-गैर बराबरी के और बढ़ने की संभावना है, वहीं मनुष्य के प्रभुत्व को लेकर भी आशंका व्यक्त किया जाने लगा है।

जैकबस्टिन जैसे विचारकों ने दावा किया है कि, कृत्रिम बौद्धिकता सन् 2020 के बाद इन्सानी बौद्धिकता से आगे निकल जाएगी। पर असल सवाल यह कि कृत्रिम मशीन वाला समाज कैसा होगा? दावा यह भी किया जा रहा है कि, कृत्रिम बौद्धिकता से बेरोजगारी बढ़ेगी, पर यह गरीबी के हद तक नहीं होगी। उम्मीद है कि भविष्य में मशीन और मनुष्य मिलकर काम करेंगे।

डॉ भीमराव आंबेडकर की बड़ी भूमिका

भारत में मजदूर आंदोलन को नया तेवर और कलेवर देने में ट्रेड यूनियनों के अलावा डॉ भीमराव आंबेडकर की बड़ी भूमिका रही है। भीमराव आंबेडकर ने 15 अगस्त 1936 को इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी की स्थापना किया। उसके बैनर तले एक बड़े मजदूर आंदोलन का नेतृत्व किया।

मजदूरों का आह्वान किया कि मजदूर अपने अधिक से अधिक प्रतिनिधियों चुनकर मौजूदा लेजिस्लेटिव कॉउंसिल पर कब्जा करें।

डॉक्टर भीमराव आंबेडकर की मान्यता है कि,अपने हक के लिए मजदूरों का हड़ताल करना अथवा हड़ताल में शामिल होना सिविल अपराध है। फौजदारी गुनाह नहीं।

सन् 1937 में भीमराव आंबेडकर ने महारों को अधीनता में रखने वाले कानून 'वतन प्रथा' के विरोध में विधेयक पेश किया। यह एक ऐसी प्रथा थी, जिसके तहत थोड़ी सी जमीन के बदले पूरे गांव के महारों को बेगारी करने के लिए विवश होना पड़ता था। पूरा गांव एक तरह से बधुआ मजदूर हो जाता था। इस प्रथा को सन् 1918 में सबसे पहले कोल्हापुर राज्य में साहू जी महाराज ने खत्म किया।

डॉ भीमराव आंबेडकर आर्थिक शोषण पर आधारित पूंजीवाद और सामाजिक शोषण पर आधारित ब्राह्मणवाद के घोर विरोधी थे। सन् 1938 में मनमाड़ अस्पृश्य रेलवे कामगार परिषद की अध्यक्षता करते हुए भीमराव आंबेडकर ने दावा किया कि, भारतीय मजदूर वर्ग ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद दोनों का शिकार हैं। इन दोनों व्यवस्थाओं पर एक ही सामाजिक समूह का वर्चस्व है।

कहना होगा कि पूंजीवाद के तहत फलने-फूलने वाली निजीकरण की अर्थव्यवस्था कितनी बेरहम होती है। उसकी बानगी कोरोना जैसे महामारी के वक्त दिखा।जब पुरी दुनिया जिंदगी का पहिया ठप पड़ गया था। चारों ओर त्राहिमाम मचा था, उस स्याह समय में भी फार्मास्युटिकल और डिजिटल कंपनियों ने बेशुमार मुनाफा कमाया।

कोरोना काल से थोड़ी राहत मिली थी कि रूस-यूक्रेन के बीच जारी जंग ने रही सही कसर पूरा कर दी। युद्ध के असर और कच्चे तेल की आपूर्ति में पैदा हो रही है बाधा की वजह से महंगाई आसमान छू रही हैं। श्रीलंका,पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका के कई देशों में अन्न का संकट पैदा हो गया है। भारत के कोर सेक्टर के उत्पादन में भी गिरावट दर्ज हुई है।

सेंटर फ़ॉर मोनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की हालिया रिपोर्ट में बताया गया बेरोजगारी की दर 8.1% तक पहुँच चुकी है। ऐसी विकट स्थिति में यह बेहद जरूरी हो जाता है कि कुछ राज्य सरकारों द्वारा फैक्टरी कानून में संशोधन और श्रम कानूनों को स्थगित करने के बजाय मजदूरों के वाजिब अधिकारों को सुरक्षित और संरक्षित करने के उपाय किया जाए। आज के समय में अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस इस मायने में ज्यादा प्रासंगिक और उपादेय है।

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