स्नेह तरंगों से वंचित होते मासूम
इसी परिप्रेक्ष्य में मां के महत्त्व और उनकी भूमिका को धरा पर यथार्थ के रूप में स्वीकार भी किया गया है। इसीलिए हर जगह मां की महिमा का यशोगान मुक्त कंठ से किया गया है।
अशोक कुमार: इसी परिप्रेक्ष्य में मां के महत्त्व और उनकी भूमिका को धरा पर यथार्थ के रूप में स्वीकार भी किया गया है। इसीलिए हर जगह मां की महिमा का यशोगान मुक्त कंठ से किया गया है।
'मातृ देवो भव:' के अर्थ और उपादेयता के मर्म में अवतारी प्रतीकों का धरती पर आगमन एक विशिष्ट घटना भी है। अपने संतान सुख और कल्याण के लिए माताओं के कर्तव्य कभी त्याग की ऊंचाई स्पर्श किया करते हैं। अपने जमाने की प्रसिद्ध चलचित्र 'मदर इंडिया' में मां भूख से परेशान अपने बच्चों को जब अन्न के कुछ दानों से तृप्त करने में असमर्थ रहती है तो मां का कलेजा दहाड़ मारता है।
पिछले दिनों एक दंपति ने बताया कि उनकी बच्ची अभी सिर्फ छह महीने की है। पति-पत्नी, दोनों ही नौकरी में हैं, इसलिए बच्चे को 'दिवस देखभाल गृह' यानी 'डे केयर होम' में रखने की नौबत थी। इस प्रसंग ने कई प्रश्नों से जूझने की भावभूमि पैदा कर दी। यह एक मामला था, जबकि देश के नगरीय परिवेश में असंख्य ऐसे देखभाल गृह संचालित हो रहे होंगे। इस स्थिति के मूल कारण में जब हम दृष्टि डालते हैं तो कई पारिवारिक परिस्थितियां सामने दिखाई देती हैं।
आमतौर पर विवाह विधान संपन्न होते ही नवदंपति नौकरी के लिए नगरों की ओर रुख करते हैं। एकल परिवार के सीमित संसाधनों के चलते पति-पत्नी मिलजुल कर अपने शिशु की देखभाल कर पाते हैं। गिने-चुने दंपति ही विवाह के बाद अपने अभिभावक को साथ रखते हैं। अधिकतर माता-पिता सामूहिक परिवार की परिधि से मुक्त होकर अपने बच्चों के साथ नहीं रह पाते हैं, क्योंकि उनके बेटे-बहु दिन भर बाहर जब नौकरी में होते हैं तो बुजुर्ग अकेलेपन के शिकार तो होते ही हैं, साथ ही उनका पारंपरिक परिवेश भी छूट जाता है।
परिवार के बिखरते कुनबे के प्रतिकूल परिणाम समाज में व्यापक रूप से घटित हुए हैं, लेकिन मातृत्व की वात्सल्य यात्रा के प्रथम पड़ाव पर जहां नवजात शिशु जो अभी धरती पर खड़ा भी नहीं हो सका है, उसे दिन भर 'डे-केयर होम' में रखना कई दूरगामी परिणामों को जन्म देता है। सशक्तिकरण और समानता के सिद्धांत के आधार पर महिलाओं को आज जीवन के हर क्षेत्र में सफलता और निपुणता मिल रही है। प्राप्त शैक्षणिक अनुभव की बहुलता से उसे पुरुष के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की आवश्यकता भी हो रही है।
जीवन चक्र प्रगति के पहिए पर निरंतर चलता रहे, यह आवश्यक तो है, लेकिन इस विषय पर बुनियादी चिंता यह है कि अबोध शिशु को शिक्षा की बदहवास दौड़ में इतनी शीघ्रतापूर्वक निर्ममता से पेश नहीं किया जाए, क्योंकि उसे अभी मातृत्व छाया की चौबीस घंटे की जरूरत है। केंद्र और राज्य सरकारों ने पूरे देश में विभिन्न अवधि के लिए मातृत्व और पितृत्व अवकाश के नियम को भी लागू कर रखा है तो उसका उपयोग कर जन्मजात बच्चे को न्यूनतम दो साल तक शुद्ध गृह पाठशाला में ही दीक्षित करना ज्यादा उचित है। अनेक राज्य सरकारों ने बच्चों की न्यूनतम छह वर्षों की उम्र होने पर ही उसका प्रवेश प्रथम वर्ग में मान्य किया है, लेकिन इसके पूर्व बच्चों को प्ले, नर्सरी, एलकेजी, यूकेजी की पढ़ाई चक्र ने भी विस्तृत नींव गढ़ दी है। सरकारों को और भी विस्तृत कायदे तैयार करने की जरूरत है।
वैज्ञानिक शोधों ने यह प्रमाणित किया है कि तीन साल की उम्र पूरी होने पर ही बच्चों के मस्तिष्क का संज्ञानात्मक विकास हो पाता है। शैशव काल में मातृ सुख का एक-एक पल उसके लिए संजीवनी-सा है। चूंकि उस अवस्था में बच्चे बोल नहीं पाते, इसलिए मां से संवाद स्थापित करने के स्रोत में बच्चे का रोना, मां का स्नेह स्पर्श स्पंदन और सांकेतिक भाव-भंगिमा प्रभावकारी है। बच्चे को शायद इन तीन प्रतीकों से किसी 'केयर होम' में वंचित होने की नौबत आती होगी, क्योंकि अधिकांश 'केयर होम' और वृद्धाश्रम अब व्यावसायिक कृत्य में गतिशील हैं।
प्राथमिक विद्यालय से ही बच्चों के भारी होते बस्ते ने उसके बचपन की रौनक और बाल सुलभ चपलता को छीन लिया है, जो चिंता की स्थिति इंगित कर रहा है। माता-पिता के प्रति अधिकतर युवा संतानों की वर्तमान उदासीनता और विमुखता जिस घनत्व में वृद्धि कर रही है, डर है कि कहीं नूतन पीढ़ी का बाल मन परंपरागत और विरासतीय वात्सल्य की डोर से वंचित हो गया तो भविष्य में वृद्धाश्रमों की संख्या की बाढ़ आ जाएगी। कभी घर से दूरदराज अध्ययनरत बच्चे किसी कारण से भूखे सो जाते थे तो 'आंख रोया परदेस में भीगा मां का प्यार, दिल ने दिल से बात कही बिन चिट्ठी बिन तार' की ममतामयी मार्मिक तरंग एक दूसरे को बांधे रखती थी।