हिंद-प्रशांत क्षेत्र : भारत-जापान रिश्ते के सत्तर साल, तेजी से बदलते दौर में शक्ति संतुलन की गतिशीलता का खतरा
भारत-जापान साझेदारी को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में क्षेत्रीय सुरक्षा और समृद्धि को बढ़ाना है, तो अब समय आ गया है।
बीते 28 अप्रैल को भारत और जापान के बीच राजनयिक संबंध की स्थापना के सात दशक पूरे हो गए। 28 अप्रैल, 1952 को एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर कर दोनों देशों ने राजनयिक संबंध स्थापित किए थे। इन वर्षों में यह द्विपक्षीय साझेदारी न केवल आगे बढ़ी है, बल्कि वर्ष 2015 में नई दिल्ली और टोक्यो विशेष सामरिक और वैश्विक साझेदार बन गए हैं। हालांकि अमेरिका और चीन के बीच बढ़ती प्रतिद्वंद्विता के चलते इस क्षेत्र को तेजी से बदलते शक्ति संतुलन की गतिशीलता का खतरा है।
ऐसे में, यदि भारत और जापान को स्थिर हिंद-प्रशांत क्षेत्र का प्रमुख वाहक बनना है, तो अपने सुरक्षा संबंधों को आगे बढ़ाना होगा। सबसे पहले, दोनों देशों को चीन और उसके उदय के बारे में धारणा और कार्रवाई, दोनों के बीच महत्वपूर्ण अंतर को पाटने के लिए सहयोगी और सुसंगत उपाय खोजने की जरूरत है। दूसरा, उन्हें यह तय करना चाहिए कि उनकी पहली रक्षा जरूरत क्या होगी। यदि ये ऐसा करते हैं, तो यह हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की मुखर कार्रवाइयों के मद्देनजर एक महत्वपूर्ण राजनीतिक संकेत होगा।
चीन के मौजूदा उदय को भारत और जापान किस तरह देखते हैं, इसमें इन दोनों देशों के चीन के साथ अतीत के अनुभवों की महत्वपूर्ण भूमिका है। उदाहरण के लिए, भारत-चीन संबंध ने स्पष्ट और लंबे समय से चले आ रहे शक्ति के अंतर से आकार लिया है, जो 1962 के युद्ध में भारत की हार से पैदा हुआ है। दूसरी तरफ, जापान की साझेदारी को उसके सदियों पुराने सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संबंधों (1930 के दशक में चीन पर कब्जा करने की घटना सहित) के जरिये आकार दिया गया है।
इसके अलावा, 1970 के दशक से, आर्थिक संबंधों का विस्तार करने को संकल्पित एक मजबूत चीनी लॉबी की जापान की सत्तारूढ़ लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी (एलडीपी) में पैठ रही है। इसलिए चीन के साथ महत्वपूर्ण व्यापार एवं आर्थिक साझेदार होने की समानता के साथ उसके आक्रामक उदय से उत्पन्न खतरे के बावजूद टोक्यो और नई दिल्ली की चीन के प्रति अपनी-अपनी धारणा में एक महत्वपूर्ण अंतर रहा है। एक तरफ, टोक्यो चीन का सामना करने के प्रति अपेक्षाकृत अनिच्छुक रहा है, क्योंकि वह राजनीति को अर्थशास्त्र से अलग रखने की अपनी नीति को आगे बढ़ाना चाहता है।
इसके विपरीत, भारत इस बात पर जोर देता रहा है कि जापान के साथ सुरक्षा सहयोग किसी तीसरे देश की कीमत पर, या कम से कम चीन की कीमत पर नहीं होना चाहिए। चीन के साथ लद्दाख में चल रहे संकट से भारत चीन के प्रति अधीर हुआ है, और वर्तमान आख्यान तेजी से बढ़ते तनाव और चीन के उदय को संतुलित करने पर केंद्रित है। इस पृष्ठभूमि के खिलाफ, धारणा और कार्रवाई, दोनों में इस अंतर को पाटने का पहला प्रभावी तरीका यह है कि भारत और जापान अपने सुरक्षा संबंधों (जो पहले से ही अच्छी तरह काम कर रहा है) को मजबूत करें।
दोनों देश लघुपक्षीय या बहुपक्षीय समूह में एक-दूसरे के साथ स्पष्ट रूप से राहत महसूस करते हैं। उदाहरण के लिए, 2017 के बाद से क्वाड (भारत, जापान, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया) के संयुक्त बयानों के विश्लेषण में महत्वपूर्ण प्रगति देखी गई है। बेशक उनमें चीन का प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं होता है, पर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में साझा सुरक्षा और समृद्धि के बारे में काफी कुछ कहा जाता है। इसके अतरिक्त विभिन्न त्रिपक्षीय गठबंधनों में भी सतत प्रगति देखी गई है।
दूसरा तरीका, दोनों देशों की तटरक्षक साझेदारी को बढ़ाने का है, क्योंकि जापान की सांविधानिक सीमाएं अपने समुद्री आत्मरक्षा बल (जेएमएसडीएफ) को पारंपरिक नौसेना की भूमिका निभाने से रोकती हैं। वर्ष 2021 में, चीन ने एक विवादित नया तटरक्षक कानून पारित किया, जिसका जापान ने विरोध किया है। यह स्मरण कराता है कि तटरक्षक संबंधों को मजबूत करना फायदेमंद होगा। जापानी तटरक्षक बल और भारतीय तटरक्षक बल संयुक्त रूप से समुद्री लूटपाट और खोज व बचाव अभ्यास करते हैं और 2006 से दोनों के बीच सहयोग जारी है, इसलिए इन चुनौतियों से निपटने के लिए सहयोग तंत्र का विस्तार करना महत्वपूर्ण होगा।
भारत, जो हिंद महासागर में चीनी नौसेना के प्रवेश से चिंतित रहा है, जापानी तटरक्षक बल के साथ अधिक निकटता बनाकर लाभान्वित हो सकता है। तीसरा दृष्टिकोण, चीन के साथ संवेदनशील क्षेत्रीय मुद्दों के संबंध में उसकी स्थिति की समीक्षा करना और मजबूत समर्थन की आवाज उठाना है। चीन-भारत दोकलाम गतिरोध के दौरान भारत स्थित जापानी दूतावास ने हस्तक्षेप करते हुए कहा था कि 'किसीको भी बलपूर्वक यथास्थिति को बदलने का प्रयास नहीं करना चाहिए।'
यह जापानी विदेश नीति के लिए एक महत्वपूर्ण प्रस्थान बिंदु था, जिसने आम तौर पर अन्य देशों के क्षेत्रीय विवादों की यथास्थिति के बारे में राजनीतिक बयान देने से परहेज किया है। इसलिए, भारत के लिए बेहतर होगा कि वह जापान और चीन के बीच चल रहे सेनकाकू द्वीप समूह विवाद पर अपनी स्थिति का पुनर्मूल्यांकन करे। भारत ने अब तक इस द्वीप समूह के विवाद पर बयान देने से परहेज किया है। नई दिल्ली अगर इस क्षेत्र में प्रमुखता हासिल करना चाहती है, तो उसे एक स्टैंड लेने की जरूरत हो सकती है।
वर्ष 2014 से जापान ने अपने हथियारों के निर्यात पर लगाए गए प्रतिबंधों को हटा लिया है। तब से अक्सर उसने भारत को हथियार बेचने की इच्छा व्यक्त की है। अब तक हथियारों का सौदा नहीं होने की मुख्य वजह जापानी पक्ष द्वारा प्रौद्योगिकी हस्तांतरण को लेकर आनाकानी और भारतीय पक्ष की मूल्य निर्धारण संबंधी चिंताएं हैं। फिर भी जापान के लिए भारतीय हथियार बाजार सबसे आकर्षक हो सकता है, क्योंकि सऊदी अरब के बाद भारत दूसरा सबसे बड़ा हथियार आयातक देश बनकर उभरा है। दोनों देशों के बीच आपूर्ति और मांग की इन प्रबल संभावनाओं के कारण उन्हें अपनी चिंताओं और बाधाओं को दूर करना चाहिए।
इसके अतिरिक्त, यदि दोनों देश भारत की मेक इन इंडिया पहल पर विचार करें कि वे जापानी प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के साथ रक्षा बिक्री और/या उत्पादन को कैसे इसमें शामिल कर सकते हैं, तो यह फायदेमंद होगा। पिछले दशक में मोदी और शिंजो आबे ने जिस रिश्ते को आगे बढ़ाया, उसे नवीनीकृत करने की जरूरत है। यदि भारत-जापान साझेदारी को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में क्षेत्रीय सुरक्षा और समृद्धि को बढ़ाना है, तो अब समय आ गया है।
सोर्स: अमर उजाला