सच कहूं, दुनिया भर के लोग अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा किए जा रहे कृत्य को देखकर आहत हैं। तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया और राष्ट्रपति अशरफ गनी भी देश छोड़कर तजाकिस्तान चले गए। वहां खौफ का माहौल है और अफगान में रह रहे लोग काबुल छोड़ने का हरसंभव प्रयास कर रहे हैं। तालिबान के डर से लोग काबुल एयरपोर्ट पर जुटे हुए हैं, सोमवार को एक हृदयविदारक घटना सामने आई, जहां अमेरिका जा रहे विमान के अंदर सीट न मिलने पर लोग उसके पहिए से ही लटक गए, लेकिन कुछ ही देर बाद गिरने से उनकी मौत हो गई। इस हादसे का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है। इसी बीच सबसे ज्यादा चर्चा अब्दुल गनी बरादर की हो रही है, जो दोहा स्थित तालिबान के राजनीतिक कार्यालय का प्रमुख है। बरादर ही अफगानिस्तान का अगला राष्ट्रपति बनने की कोशिशें कर रहा है। ये वही व्यक्ति है जिसे 2010 में पाकिस्तान के कराची में गिरफ्तार किया था लेकिन, डोनाल्ड ट्रंप के दबाव में तालिबान के साथ डील होने के बाद पाकिस्तान ने इसे 2018 में रिहा कर दिया था।
अफगानिस्तान में कहीं न कहीं इस पूरे घटनाक्र के लिए अमेरिका जिम्मेवार माना जा रहा है। उसने अपने सैनिकों को वापिस बुलाने की हड़बड़ी में न केवल कई दशकों तक अशांत रहने वाले अफगान के भविष्य को अधर एवं अनिश्चितता में डाल दिया, बल्कि एशिया सहित पूरी दुनिया को अस्थिर बनाने के साथ ही विश्व शांति के समक्ष जोखिम भी पैदा कर दिया है। इससे अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा पर भी प्रश्न चिन्ह लगा है। वह भी ऐसे समय में जब अमेरिका को चीन की चुनौती का कोई कारगर तोड़ निकालना है। निश्चित रूप से ऐसी असहज स्थिति से बचा जा सकता था, लेकिन बाइडन की बेपरवाही और अदूरदर्शिता ने सबकुछ मलियामेट करके रख दिया। इसमें कोई संदेह नहीं कि तालिबान को पाकिस्तान का सहयोग और समर्थन हासिल है। ऐसे में अफगानिस्तान की सत्ता पर तालिबान के कब्जे से उसकी कई मुरादें पूरी हो सकती हैं। जिनमें विगत कुछ वर्षो के दौरान अफगानिस्तान में भारतीय निर्माण गतिविधियों से नई दिल्ली-काबुल के रिश्तों में जो नई गर्मजोशी आई, पाकिस्तान उस पर चोट करेगा।
पाक लंबे अर्से से इस प्रयास में लगा था कि अफगानिस्तान में भारत के प्रभाव को कैसे सीमित कर भारतीय हितों पर पर आघात किया जाए। अब वह इस मुहिम को कुछ धार देता हुआ नजर आएगा। इससे भी बड़ा खतरा इस बात का है कि पाकिस्तान अफगान धरती को आतंक की नई पौध तैयार करने में इस्तेमाल कर सकता है। पाकिस्तान का मित्र चीन भी उसके इन हितों की पूर्ति में मददगार बनने के लिए जोर-आजमाइश करता दिखेगा। वह पहले से ही अफगानिस्तान में अमेरिका द्वारा खाली किए जा रहे स्थान की भरपाई के लिए लार टपका रहा है। भारत की वहां कई परियोजनाएं दांव पर लगीं हैं भारत को अब इस मामले में वैचारिक आधार से कहीं आगे बढ़कर व्यावहारिकता से फैसला करना होगा, लेकिन इसमें किसी तरह के जोखिम से भी बचा जाना चाहिए। भारत के प्रयासों को अमेरिका से कुछ खास मदद अब नहीं मिलने वाली, परन्तु रूस इस मामले में जरूर भरत की मदद कर सकता है। भारत को अपने हित पश्चिम की बजाय क्षेत्रीय कूटनीति से हल करने होंगे।
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