अफगानिस्तान में भारत की वापसी : आम नागरिकों के लिए भेजी मदद, तालिबान को मान्यता नहीं देने के फैसले पर अब भी अडिग
भारत को इस माहौल में आगे बढ़ने का रास्ता तलाशना होगा।
तालिबान को दोबारा मजबूत होते देख अमेरिका ने पिछले साल जब काबुल से बाहर निकलने का फैसला किया, तब भारत भी अफगानिस्तान से बाहर निकल आया था। दरअसल अमेरिका ने अफगानिस्तान में जैसा बदलाव लाने की इच्छा जताई थी, दो दशक तक उस पर नियंत्रण बनाए रखने के बावजूद वह वैसा कुछ नहीं कर पाया था। 9/11 के बाद अफगानिस्तान की सत्ता से बाहर हुए तालिबान पिछले साल फिर सत्ता पर काबिज हो गए।
अल कायदा भले ही वैसा ताकतवर नहीं रहा, जैसा वह 9/11 के समय था, लेकिन आईएस और टीटीपी (तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान) ने उसकी जगह ले ली। भारत को निशाना बनाने वाले लश्कर और जैश जैसे आतंकी समूह भी मजबूत बने रहे। पिछले साल अमेरिका द्वारा वित्त पोषित अशरफ गनी की सरकार गिरने का मतलब था कि अफगानिस्तान में उथल-पुथल बरकरार रहे। वैसी स्थिति में भारत के सामने अपने राजनयिकों को वहां से बाहर निकाल लेने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था।
वैसे में उन अफगानी नागरिकों से भी भारत का रिश्ता टूट गया, शांति काल में वह जिनकी मदद कर रहा था। अलबत्ता काबुल में स्थिति सहज होते ही भारत ने अपनी अफगानिस्तान नीति पर पुनर्विचार करने का फैसला लिया। जैसा कि विदेश मंत्रालय ने रेखांकित किया है, भारत एक बार फिर 'अफगान नागरिकों के साथ अपने ऐतिहासिक और सभ्यतागत संबंध बहाल करने की' कोशिश कर रहा है। हालांकि भारत द्वारा तालिबान शासन को मान्यता न देने का निर्णय यथावत है।
दरअसल अमेरिकियों के अफगानिस्तान से बाहर निकलने के कुछ दिन बाद ही भारत ने तालिबान के साथ राजनयिक संपर्क का रास्ता खोला था, जब कतर स्थित भारतीय राजदूत दीपक मित्तल ने विगत 31 अगस्त को दोहा में तालिबान के राजनीतिक प्रमुख मोहम्मद अब्बास स्टानिकजई से मुलाकात की थी। विगत जनवरी में संपन्न हुए पहले भारत-मध्य एशिया सम्मेलन में अफगानिस्तान की रुकी हुई परियोजनाओं तथा तुर्कमेनिस्तान-अफगानिस्तान-पाकिस्तान-इंडिया (टीएपीआई) पाइपलाइन परियोजना पर काम शुरू करने का मुद्दा उठा।
अफगानिस्तान में पैदा हुए एकाधिक संकटों के कारण भी पड़ोस के इस देश में हमारी राजनयिक मौजूदगी की जरूरत पैदा हुई है। अगस्त, 2021 में तालिबान के सत्ता में आने के बाद अफगानिस्तान को भीषण खाद्य संकट का सामना करना पड़ा। तब 30,000 टन गेहूं भेजकर भारत ने उसकी मदद की थी। अतिरिक्त 50,000 टन गेहूं भेजने के लिए भारत ने वर्ल्ड फूड प्रोग्राम (डब्ल्यूएफपी) के साथ एक समझौते पर दस्तखत किया था।
इसके अलावा भी भारत ने वहां 13 टन दवाएं, कोविड-19 वैक्सीन की पांच लाख खुराक और गर्म कपड़े भेजे थे। ईरान में रह रहे अफगान शरणार्थियों के टीकाकरण के लिए भारत ने वहां भी कोवाक्सिन की 10 लाख खुराक भेजी थी। भारत ने अफगानिस्तान को सही समय पर मानवीय मदद पहुंचाई, क्योंकि रूस के यूक्रेन पर हमले के बाद कई देशों में खाद्यान्न का संकट पैदा हो गया है। अफगान नागरिकों को मदद पहुंचाने के लिए वहां की सुरक्षा की स्थिति का आकलन करना जरूरी है।
तालिबान द्वारा काबुल पर कब्जा करने के बाद भारतीय राजनयिकों को अफगानिस्तान छोड़ना पड़ा, तो उसकी बड़ी वजह सुरक्षा का अभाव ही था। वहां स्थानीय स्तर पर सुरक्षा की स्थिति का आकलन करने के लिए विगत दो जून को एक भारतीय टीम ने अफगानिस्तान का दौरा किया। चूंकि यह टीम भारत द्वारा दी जाने वाली मदद की भी समीक्षा करना चाहती थी, इस कारण टीम के सदस्यों ने तालिबान के वरिष्ठ लोगों से मुलाकात की।
उस मुलाकात के दौरान ही भारत द्वारा अफगानिस्तान के साथ अपना राजनयिक संबंध फिर से शुरू करने का फैसला लिया गया। तालिबान ने न केवल भारत के इस फैसले का स्वागत किया, बल्कि भारतीय राजनयिकों को अफगानिस्तान में पूरी सुरक्षा मुहैया कराने का भरोसा भी दिया। उन्होंने इसका भी भरोसा दिलाया कि अफगानिस्तान में भारतीयों और भारतीय परियोजनाओं को लश्कर और जैश जैसे पाक प्रायोजित आतंकवादी समूहों द्वारा कतई निशाना बनाने नहीं दिया जाएगा।
काबुल में भारतीय दूतावास का औपचारिक रूप से खुलना तालिबान शासन के लिए ही मददगार साबित हुआ है, क्योंकि इससे दुनिया भर में यह संदेश गया है कि अफगानिस्तान में सुरक्षा की स्थिति बेहतर है, और राजनयिक मिशन वहां काम कर सकने की स्थिति में हैं। इससे तालिबान शासन को मान्यता बेशक नहीं मिलेगी, लेकिन इससे उनके प्रति वैश्विक समुदाय के शत्रुतापूर्ण रवैये में जरूर कुछ कमी आएगी।
जाहिर है कि काबुल में भारतीय दूतावास का फिर से खुलना हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान को रास नहीं आया है। उसे लग रहा था कि तालिबान के शासन में अफगानिस्तान पर उसकी पकड़ बहुत मजबूत बन गई है। जाहिर है, डूरंड लाइन के पास शरणार्थियों के मुद्दे पर तालिबान शासन से हुई अनबन के बाद भारत के इस कदम से पाकिस्तान को अफगानिस्तान में दूसरा झटका लगा है। अफगानिस्तान में भारत की वापसी पाकिस्तान को आगे भी असहज करती रहेगी।
इसी कारण वह यह प्रचार कर रहा है कि भारत और तालिबान कभी नहीं मिल सकते। सुरक्षा के मुद्दे पर भारत को डराने और उसे अफगानिस्तान से अपना कदम वापस खींचने को मजबूर करने के लिए ही काबुल के गुरुद्वारा में एक आतंकी हमला किया गया। आईएसकेपी नाम के जिस संगठन ने इस हमले की जिम्मेदारी ली, उसके 50 फीसदी से अधिक सदस्य पाकिस्तानी हैं और संगठन का रावलपिंडी स्थित सैन्य मुख्यालय से नजदीकी संबंध बताया जाता है। तालिबान ने नेशनल आर्मी के सैनिकों को प्रशिक्षण के लिए भारत भेजने का जो फैसला लिया, उससे भी पाकिस्तान नाराज है।
पर पाकिस्तान भूल रहा है कि भारत यह देखे बिना हमेशा ही अफगानिस्तान की मदद करता आया है कि वहां सत्ता में कौन है। इस बीच अफगानिस्तान में भीषण भूकंप आया, जिस पर भारत ने स्वाभाविक ही मदद का हाथ बढ़ाया। चूंकि चीन, पाकिस्तान और रूस जैसे देश पहले से ही अफगानिस्तान के मामले में सक्रिय हैं, ऐसे में, भारत का अलग-थलग रहना नुकसानदेह ही साबित होता, क्योंकि वैसे में अफगानिस्तान में हमारी पहले वाली जगह और हैसियत पर इन देशों का कब्जा हो जाता। अफगानिस्तान की सत्ता पर तालिबान का होना एक ठोस सच्चाई है और भारत को इस माहौल में आगे बढ़ने का रास्ता तलाशना होगा।
सोर्स: अमर उजाला