हालांकि ऐसा कुछ नहीं हुआ. अमेरिकी फौजों के जाते ही जितनी तेजी से तालिबान ने अफगानिस्तान के बड़े शहरों पर कब्जा किया, उसे देख कर लग रहा है जैसे सब कुछ एक प्लान के मुताबिक हुआ हो. तालिबान और शिया बहुल रियासतों में हमेशा से ठनती आई है. 90 के दशक में तालिबान ने जब अफगानिस्तान पर कब्जा किया था तो उस वक्त भी उसे शिया बहुल शहरों पर कब्जा करने में लोहे के चने चबाने पड़े थे. लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ. मजार-ए-शरीफ, हेरात और बामियान जैसे शिया बहुल इलाकों पर तालिबान ने चुटकियों में कब्जा कर लिया. यह शहर ईरान की सीमा से लगते हैं और ईरान शिया बहुल आबादी वाला देश है. यहीं से इन शहरों को ताकत भी मिलती है. लेकिन इस बार लगता है जैसे ईरान ने पहले ही तालिबान से समझौता कर लिया था और इन शहरों पर उसका कब्जा होने दिया.
अफगानिस्तान के षड्यंत्र से निकलेगा नया सुपर पावर देश
अफगानिस्तान की हार ने अमेरिका के माथे पर एक ऐसा कलंक लगा दिया है, जिसने उसके सुपर पावर होने पर संदेह खड़ा कर दिया है. जिस हालात में अमेरिका ने अफगानिस्तान का साथ छोड़ा, दुनिया भर के छोटे देश जो अमेरिका को अपना सरदार मानते थे अब उसे संदेहास्पद दृष्टि से देखने लगे हैं. रूस के लिए यह बदला लेने का समय है और चीन के लिए अपने उस सपने को पूरा करने का जिसे वह वर्षों से देखता रहा है. यानि कि सुपर पावर बनने का सपना.
रूस ने अफगानिस्तान में 1979 में वहां की मौजूदा सरकार को बचाने के लिए विद्रोहियों से युद्ध किया था. लेकिन इस युद्ध में रूस के लगभग 15000 सैनिकों की जान चली गई और उसको आखिर में अपमानजनक हार के साथ वापस लौटना पड़ा. रूस की हार के पीछे अमेरिका का हाथ था. क्योंकि अमेरिका, पाकिस्तान, चीन, ईरान और सऊदी अरब मिलकर वहां के मुजाहिद्दीन लड़कों को पैसे और हथियार दे रहे थे. अब बिल्कुल वही स्थिति अमेरिका के साथ आ गई है. अब रूस, ईरान, चीन और पाकिस्तान एक साथ हो गए हैं और अमेरिका बिल्कुल अलग पड़ गया है. उसे भी उसी बेज्जती के साथ अफगानिस्तान से हारकर लौटना पड़ा, जैसे 1989 में रूस को लौटना पड़ा था.
चीन अपनी आर्थिक और व्यापारिक मजबूती के चलते अब धीरे-धीरे दुनिया भर में दूसरी सबसे बड़ी महाशक्ति के रूप में जन्म ले रहा है और अफगानिस्तान का मुद्दा उसके लिए एक बेहतर मौके की तरह है. जहां से वह खुद के सुपर पावर बनाने की ओर एक कदम आगे बढ़ा सकता है. इन सबके बीच सबसे ज्यादा नुकसान भारत का हो रहा है. जहां चीन, रूस, ईरान- अमेरिका को हराना चाहते हैं. वहीं पाकिस्तान का सीधा निशाना हिंदुस्तान है. पाकिस्तान, तालिबान के जरिए हिंदुस्तान को चोट पहुंचाना चाहता है. अफगानिस्तान की धरती पर षड्यंत्र तो अमेरिका के खिलाफ रचा जा रहा है, लेकिन कहीं ना कहीं भारत भी उसका शिकार होता दिख रहा है. हालांकि अगर भारत तालिबान से बातचीत करने में सफल हो जाता है तो शायद वह इस खतरे से अपने आप को बचा सकता है.
भारत की ओर एक बड़ा खतरा मुंह बाए खड़ा है
तालिबान की बुनियाद ही इस्लाम की रक्षा और इस्लाम को बढ़ावा देने के लिए रखा गया है. लेकिन भारत की मौजूदा सरकार और उसके फैसले तालिबान की सोच को चुनौती देते हैं. चाहे राम मंदिर निर्माण का मुद्दा हो या फिर कश्मीर से धारा 370 आर्टिकल 35A खत्म करने का या तीन तलाक जैसे शरिया कानून को खत्म करने का, यह सभी मुद्दे कहीं ना कहीं कट्टरपंथी इस्लामी सोच रखने वाले लोगों को चोट पहुंचाते हैं. चूंकि रूस, चीन, ईरान और पाकिस्तान की सीमा अफगानिस्तान से लगती है और उन्हें कहीं ना कहीं यह डर है कि तालिबान के लड़ाके इन सीमावर्ती शहरों में ना घुसपैठ करें. इसलिए यह देश पूरी कोशिश करेंगे कि इन लड़ाकों को एक नई जंग दे दी जाए और पाकिस्तान के सहारे इन तालिबानी लड़ाकों को भारत की तरफ मोड़ने का पूरा प्रयास किया जाएगा. द क्विंट में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक अगर ऐसा होता है तो अमेरिका भारत की बहुत अधिक मदद नहीं कर पाएगा. इसलिए भारत को इस नए षड्यंत्र से पूरी तरह से चौकन्ना रहने की जरूरत है.
सभी देश अफगानिस्तान को अपने साथ क्यों रखना चाहते हैं
युद्ध में कहावत कही जाती है कि अगर किसी को जीत ना सको तो उसे अपने साथ ले लो. अफगानिस्तान के साथ ही कुछ ऐसा ही है. सदियों से उस पर विदेशियों ने कब्जा करने की खूब कोशिश की. लेकिन आज तक कोई कब्जा नहीं कर पाया. 19वीं सदी में सबसे पहले ब्रिटिश हुकूमत ने अफगानिस्तान पर कब्जा करने की कोशिश की थी. उसने अपनी पूरी शक्ति लगा दी. लेकिन वह अफगानिस्तान पर जीत नहीं दर्ज कर पाया और उसे 1919 में अफगानिस्तान छोड़कर जाना पड़ा.
1979 में रूस ने भी ऐसी ही एक कोशिश कि थी. लेकिन उसकी मंशा अफगानिस्तान पर कब्जे की नहीं थी, बल्कि वहां की कम्युनिस्ट सरकार को गिरने से बचाने की थी. हालांकि रूस को भी लगभग 9 साल लड़ने के बाद हार का ही सामना करना पड़ा और इस लड़ाई में रूस ने अपने लगभग 15,000 सैनिक गंवा दिए.
9/11 के हमले के बाद 2001 में अमेरिकी नेतृत्व में नाटो देशों ने अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. कई सालों तक चले भीषण युद्ध में लाखों लोगों की जान गई. लेकिन आखिरकार 20 साल बाद अमेरिका को भी वहां से हार कर ही वापस आना पड़ा.
चीन इन मायनों में चालाक निकला. उसने जब देखा कि अफगानिस्तान में तालिबान का कब्जा हो चुका है तो चीन ने तालिबान की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया और इस बार उसके साथ रूस, ईरान और पाकिस्तान जैसे देश भी हैं. इन सभी को पता है कि तालिबान से लड़ाई लड़ कर उससे जीतना नामुमकिन है. इसलिए बेहतर यही होगा कि तालिबान से दोस्ती कर ली जाए और अपने अपने मंसूबे पूरे किए जाएं.
भारत के पास है इस षड्यंत्र से बचने का एक अचूक उपाय
कहते हैं जब सब दरवाजे बंद हो जाते हैं तब भी एक दरवाजा खुला रहता है. भारत के पास भी एक दरवाजा ऐसा है जिसकी मदद से वह पाकिस्तान को उसी के घर में सबक सिखा सकता है. पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच सीमा विवाद काफी पुराना है. दरअसल इन दोनों देशों को डूरंड रेखा आपस में बांटती है. लेकिन इस रेखा को अफगानिस्तान नहीं मानता है. इस रेखा के दोनों तरफ यानि अफगानिस्तान और पाकिस्तान में पख्तून लोगों की एक बड़ी आबादी रहती है. और इनकी हमेशा से एक मांग रही है कि इस इलाके को पख्तून रियासत बना दिया जाए.
हालांकि पाकिस्तान इस मांग को हमेशा से ठुकराता आया है. भारत को अब इसी मुद्दे को हवा देने की जरूरत है. यह वक्त है भारत को अपनी उचित बुद्धिमता का कौशल दिखाने का और पाकिस्तान को बता देने का कि अगर वह कश्मीर का मुद्दा उठाता है तो भारत तालिबान के हाथों ही उसको नेस्तनाबूद करा सकता है. इस बार तो तालिबान भी भारत के साथ अपने रिश्ते बेहतर बनाना चाहता है. यही वजह थी अफगानिस्तान पर कब्जे के बाद कश्मीर को लेकर उसने बयान दिया कि यह भारत का आंतरिक मामला है. भारत अगर तालिबान से बातचीत करने में सफल हो जाता है और अपने रिश्ते को मजबूत बना लेता है, तो चीन को शिंजियांग प्रांत में उइगर मुस्लिमों को लेकर और पाकिस्तान में पख्तून रियासत को लेकर इन्हें सबक सिखा सकता है.